'वंदे मातरम्' गीत को लेकर पूरे देश में बहस तेज है। यह विवाद मुख्य रूप से धार्मिक और राजनीतिक पहलुओं से जुड़ा माना जा रहा है। सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में इस मुद्दे पर विशेष चर्चा का प्रस्ताव रखा, जिस पर दोनों सदनों में बहस जारी है। प्रधानमंत्री ने भी वंदे मातरम् पर विशेष चर्चा की शुरुआत करते हुए इसे ऐतिहासिक क्षण बताया और कहा कि वंदे मातरम् वर्षों से भारत की रगों में समाया हुआ है। संसद हो या देश, हर जगह लोग इस विषय पर अपने-अपने विचार रख रहे हैं लेकिन इन सभी विवादों के बीच हम उस 'आनंद मठ' को भूलते जा रहे हैं, जहां वंदे मातरम् की रचना हुई थी। आइए जानते हैं आनंद मठ की कहानी।
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने प्रसिद्ध गीत वंदे मातरम लिखा था जिसमें धरती को मां बताया गया था। 7 नवंबर 1875 को इसे पहली बार साहित्य पत्रिका बंगदर्शन में प्रकाशित किया गया। वंदे मातरम के पहले 2 छंद संस्कृत में थे जबकि आगे के 4 छंद बांग्ला भाषा में लिखे गए थे।
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क्या है आनंदमठ की कहानी?
आनंदमठ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1882 में लिखा गया बांग्ला उपन्यास है जो 1770 के बंगाल अकाल और संन्यासी विद्रोह पर आधारित है। यह कहानी महेंद्र और उनकी पत्नी कल्याणी से शुरू होती है, जो अकाल और अंग्रेजी लगान के दबाव में गांव पदचिह्न छोड़कर भागते हैं। महेंद्र को संन्यासी भवानंद बचाते हैं जबकि कल्याणी जंगल में भटकती हैं और आनंदमठ पहुंचती हैं, जहां संन्यासी नेता सत्यानंद देशभक्ति के नाम पर विद्रोह चला रहे होते हैं।
उपन्यास में सबसे प्रसिद्ध गीत 'वंदे मातरम्' है जो भारत का राष्ट्रगीत बना। इस गीत में भूमि को मां बताया गया। 7 साल बाद 1882 में बंकिम चंद्र ने इस गीत को अपने ही उपन्यास आनंद मठ में शामिल किया था। यह उपन्यास संन्यासी विद्रोह पर लिखा गया था।
यहां कई अन्य गीत भी लिखे गए जिसमें देशभक्ति और आध्यात्मिक भाव वाले भजन शामिल हैं जो संन्यासियों के विद्रोह को प्रेरित करते हैं।
आनंद मठ में हुई बड़ी घटनाएं
- बंगाल में भयंकर अकाल से जनता का पलायन और अंग्रेजी शासन के अत्याचार।
- भवानंद और जीवानंद जैसे संन्यासी अंग्रेजों और नवाबी सेना पर हमला करते हैं, लूटा माल राहत के लिए बांटते हैं।
- आनंदमठ में सत्यानंद का नेतृत्व, जहां संन्यासी ब्रिटिश सैनिकों को हराते हैं और अंत में महेंद्र भी संन्यासी बन विद्रोह में शामिल होते हैं।
आनंद मठ उपन्यास पर विवाद
आलोचकों का मानना है कि उपन्यास में संन्यासी विद्रोह को मुस्लिम शासकों और बाद में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के रूप में दिखाया गया है। कहानी में संन्यासी ब्रिटिश सेना के साथ-साथ तत्कालीन मुस्लिम नवाबों के प्रति भी दुश्मनी रखते हैं। कुछ आलोचकों का मानना है कि उपन्यास में मुसलमानों को 'यवन' या देश के दुश्मन के रूप में चित्रित किया गया है, जबकि संन्यासी धर्म (हिंदू राष्ट्रवाद) को मुक्ति के मार्ग के रूप में प्रस्तुत करते हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय एक ब्रिटिश कर्मचारी थे, इसलिए उन्होंने अंग्रेजों की आलोचना कम की लेकिन मुस्लिम नवाबों के पतन के कारण मुसलमानों को मुख्य शत्रु के रूप में दिखाना अधिक आसान और सुरक्षित पाया।
उपन्यास जिस संन्यासी विद्रोह पर आधारित है, इतिहासकार बताते हैं कि उस विद्रोह में हिंदू और मुस्लिम दोनों फकीर/संन्यासी शामिल थे लेकिन उपन्यास ने मुख्य रूप से इसे हिंदू संन्यासियों के आंदोलन के रूप में चित्रित किया, जिससे इसकी ऐतिहासिक विश्वसनीयता पर सवाल उठे।
मूल रूप से यह उपन्यास ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद की भावना भड़काता था। यही कारण था कि अंग्रेजों ने इस ग्रंथ पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह प्रतिबंध भारत के स्वतंत्र होने के बाद 1947 में हटाया गया।