प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों और रामायण की कथाओं में भगवान शिव के धनुष 'पिनाक' का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यह कोई साधारण धनुष नहीं था, बल्कि एक दिव्य और अकल्पनीय शक्ति से भरा शस्त्र था। इसकी कथा रावण से लेकर राजा जनक और फिर श्रीराम तक आती है, जिसका आध्यात्मिक दृष्टि से भी खास स्थान रखता है।
पिनाक धनुष की उत्पत्ति स्वयं भगवान शिव की इच्छा से हुई थी। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था और देवताओं द्वारा असुरों के खिलाफ युद्धों में इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। इस धनुष को शिव ने त्रिपुरासुर का नाश करने के समय धारण किया था, जिससे इसकी महिमा और बढ़ गई।
पिनाक धनुष की महिमा
धर्मग्रंथों में यह बताया गया है कि भगवान शिव जब तांडव करते हैं, तब उनका यह धनुष ब्रह्मांड की कंपन शक्ति से भर उठता है। इसे त्रिपुर दहन के समय उन्होंने अपने हाथ में लिया था और तभी से यह धनुष पवित्र और अजेय माना जाता है। भगवान शिव का एक नाम 'पिनाकी' भी है, जिसका अर्थ होता है- ‘पिनाक धनुषधारी।’
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रावण और पिनाक धनुष
पौराणिक कथा के अनुसार, रावण भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था। उसने कई वर्षों तक शिव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तप किया था। रावण ने एक बार अपनी भक्ति सिद्ध करने के लिए अपना सिर काट-काटकर शिव को अर्पित किया। जब उसका अंतिम सिर शेष रह गया, तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा।
रावण ने शिव से कहा कि वह उनका सबसे बड़ा भक्त है, इसलिए वह शिव से कोई अमूल्य वस्तु प्राप्त करना चाहता है। महादेव ने प्रसन्न होकर रावण को कई शक्तियां दीं और कहा कि वह उनका धनुष 'पिनाक' भी अपने साथ ले जा सकता है। रावण को यह अत्यंत गर्व की बात लगी कि अब वह खुद शिव का शस्त्र लेकर जा रहा है।
हालांकि रावण का अहंकार बढ़ने लगा। उसने पिनाक धनुष को अपनी शक्ति का प्रतीक समझ लिया और एक बार उसे जबरन खींचने की कोशिश की। उसी समय पिनाक धनुष की दिव्यता के कारण वह घायल हो गया और धनुष की महाशक्ति का अनुभव कर सका। उसे समझ आ गया कि यह कोई साधारण वस्तु नहीं, बल्कि दिव्य शक्ति है। रावण ने इसे तब सम्मानपूर्वक भूमि पर छोड़ दिया।
राजा जनक और पिनाक धनुष
कई वर्षों बाद यह धनुष मिथिला (वर्तमान में बिहार राज्य का एक भाग) पहुंचा। मिथिला के राजा जनक बहुत ही धार्मिक, न्यायप्रिय और विद्वान राजा थे। एक बार उनके राज्य में अकाल पड़ा। वर्षा नहीं हो रही थी और लोग दुखी थे। तब ऋषियों ने उन्हें यज्ञ करने की सलाह दी। जब राजा जनक भूमि जोतने लगे तो उन्हें भूमि के भीतर से एक कन्या प्राप्त हुई- जिन्हें देवी सीता के रूप में पूजा जाता है।
राजा जनक को विश्वास हुआ कि यह कन्या कोई साधारण नहीं, बल्कि देवी का अवतार है। उन्होंने सीता लालन-पालन किया और जब वह बड़ी हुईं और उनके विवाह का विचार आया तो समस्या यह थी कि सीता खेल-खिलौनों से नहीं खेलती थीं, बल्कि वह भगवान शिव के पिनाक धनुष को खेल-खेल में उठाकर रख देती थीं।
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राजा जनक को समझ में आ गया कि सीता का विवाह किसी ऐसे पुरुष से ही हो सकता है, जो इस पिनाक धनुष को उठा सके। इसलिए उन्होंने एक स्वयंवर की घोषणा की- जो वीर इस धनुष को उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा देगा, वही सीता से विवाह कर सकेगा।
श्रीराम ने पिनाक को उठाया
जनक के स्वयंवर में कई राजा, राजकुमार और योद्धा आए, जिनमें रावण भी शामिल था। पर कोई भी उस धनुष को हिला भी नहीं पाया। अंत में भगवान विष्णु के सातवें अवतार श्रीराम आए। जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से राम ने उस धनुष को उठाया तो देखते ही देखते उन्होंने उस पर प्रत्यंचा चढ़ाई और उसी क्षण वह धनुष टूट गया। ध्वनि इतनी प्रचंड हुई कि पूरी पृथ्वी जैसे हिल गई। सभी को समझ आ गया कि यही वो पुरुष हैं जिनसे सीता का विवाह होना तय है।