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दक्ष महादेव मंदिर: जहां शिव का हुआ था अपमान और सती ने त्यागे थे प्राण

दक्ष महादेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित प्रसिद्ध मंदिर है। आइए जानते हैं इस मंदिर से जुड़ी कहानी और कथा।

Image of Daksha Mahadev Mandir

दक्ष महादेव मंदिर(Photo Credit: incredibleindia.gov.in)

उत्तराखंड के प्रमुख तीर्थस्थलों के द्वार के रूप में हरिद्वार को जाना जाता है। यहां एक तरफ गंगा गंगा नदी के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर कई धार्मिक स्थलों के भी दर्शन के अवसर मिलते हैं। इसी क्रम में हरिद्वार के कनखल में स्थित दक्ष महादेव मंदिर ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह मंदिर केवल धार्मिक आस्था का केंद्र ही नहीं, बल्कि एक ऐसी कथा से जुड़ा है। यह मंदिर मुख्य रूप से देवी सती, उनके पिता दक्ष प्रजापति और भगवान शिव से जुड़ा हुआ है। मान्यता है कि इसी स्थान पर वह यज्ञ हुआ था, जिसने सृष्टि में बड़ा परिवर्तन ला दिया था।

 

पौराणिक कथा के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा जी के मन से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ। दक्ष एक महान राजा और ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। उन्होंने अपनी कई कन्याओं का विवाह देवताओं और ऋषियों से किया। उनकी एक अत्यंत सुंदर और तेजस्विनी कन्या थीं- सती। देवी सती का विवाह भगवान शिव से हुआ, जो सृष्टि के संहारक के रूप में पूजे जाते हैं और अपने तपस्वी व विरक्त जीवन के लिए जाने जाते हैं।

 

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दक्ष महादेव मंदिर की पौराणिक कथा

दक्ष प्रजापति भगवान शिव को अधिक पसंद नहीं करते थे। उन्हें शिव का औघड़ व साधु स्वभाव, भूत-प्रेतों के साथ रहना और सांसारिक रीति-रिवाजों से दूर रहना स्वीकार नहीं था। उन्हें लगता था कि शिव उनके समान कुलीन और शिष्ट समाज के लिए उपयुक्त वर नहीं हैं। इसी कारण जब दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया, तो उन्होंने जानबूझकर भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया।

 

देवी सती को जब इस यज्ञ की जानकारी मिली, तो उन्होंने आग्रह किया कि वह अपने पिता के घर जाएं। शिव जी ने पहले तो मना किया और कहा कि जहां आमंत्रण न हो, वहां जाना अपमानजनक होता है। सती के आग्रह पर महादेव ने उन्हें जाने की अनुमति दे दी।

 

जब सती यज्ञ स्थल पर पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि यज्ञ बड़ी भव्यता से चल रहा है। सभी देवताओं को बुलाया गया था लेकिन शिव जी का नाम तक नहीं लिया गया था। अपने पिता से इस अनदेखी का कारण पूछने पर दक्ष ने भगवान शिव के बारे में अपमानजनक बातें कही। यह सुनकर सती बहुत क्रोधित और निराश हो गईं और उन्होंने वहीं यज्ञ की अग्नि में स्वयं को भस्म कर दिया।

 

जब यह समाचार भगवान शिव को मिला, तो वह क्रोध से भर उठे। उन्होंने अपने गणों के साथ यज्ञ को विध्वंस कर दिया और अपने गण वीरभद्र को दक्ष का सिर काटने का आदेश दिया। बाद में भगवान विष्णु और ब्रह्मा के समझाने पर शिव जी का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने दक्ष को जीवनदान दे दिया। शिव ने उसे बकरे का सिर लगाकर पुनर्जीवित किया। इस घटना के बाद यज्ञ अधूरा रह गया था, लेकिन भगवान शिव के दया भाव से वह पूर्ण हुआ।

 

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दक्ष महादेव मंदिर का इतिहास

यह मंदिर हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में स्थित है और यही वह पावन भूमि मानी जाती है जहां वह यज्ञ हुआ था। कहा जाता है कि यह स्थल सती की आत्म-बलि की साक्षी भूमि है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 19वीं शताब्दी में बना और यह उत्तर भारत के प्राचीन शिव-संबंधित स्थलों में एक माना जाता है। मंदिर परिसर में शिवलिंग, यज्ञशाला और देवी सती का स्मारक भी बना हुआ है। यहां विशेषकर श्रावण मास और महाशिवरात्रि के समय यहां बहुत भीड़ होती है।

यहीं से शुरू हुए सभी शक्तिपीठों की स्थापना

इस घटना के बाद भगवान शिव ने विरह में देवी सती के शरीर को अपने कंधे पर उठाकर पूरे ब्रह्मांड में भ्रमण कर शुरू कर दिया। इससे सृष्टि में अस्थिरता पैदा हो गई। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंड-खंड कर दिया और जहां-जहां उनके अंग गिरे, वहां शक्ति पीठ की स्थापना हुई। इस कारण देवी सती को आदिशक्ति भी कहा जाता है। दक्ष यज्ञ की यह कथा यह बताती है कि महादेव रौद्र भी हैं और शांत भी। वह विनाश के देवता हैं लेकिन अपनी पत्नी के सम्मान के लिए उन्होंने संसार को हिला दिया। साथ ही यह भी सिखाती है कि अहंकार किसी का नहीं चलता, चाहे वह राजा ही क्यों न हो।

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