तमिलनाडु के तंजावुर शहर में स्थित बृहदेश्वर मंदिर न केवल दक्षिण भारत की अद्वितीय धार्मिक धरोहर है, बल्कि यह चोल साम्राज्य की समृद्धि और स्थापत्य कौशल का भी प्रतीक माना जाता है। इस प्राचीन मंदिर का निर्माण चोल वंश के राजा, राजा चोल प्रथम ने 1003 से 1010 ईस्वी के बीच करवाया था। इस मंदिर को दक्षिण का मेरु पर्वत भी कहा जाता है। बृहदेश्वर मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का जीवंत उदाहरण माना जाता है। इसके गर्भगृह के ऊपर 66 मीटर ऊंचा विशाल पिरामिडीय शिखर है, जो इसे कर्नाटक के अन्य मंदिरों से अलग बनाता है।
बृहदेश्वर मंदिर में द्रविड़ वास्तुकला की विशेषता साफ दिखाई देती है। इस मंदिर के केंद्र में गर्भगृह, चारों दिशाओं में मंडप और परिक्रमा मार्ग, प्रवेश द्वार पर विशाल गोपुरम, दीवारों पर देवी-देवताओं और पौराणिक कथाओं को बारीक नक्काशी करके उकेरा गया है। यही वजह है कि बृहदेश्वर मंदिर न केवल धार्मिक अनुष्ठानों का केंद्र है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी महत्वपूर्ण स्थल माना जाता है।
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मंदिर की बनावट और स्थापत्य कला
वास्तुशिल्प शैली: यह मंदिर द्रविड़ शैली में बनाया गया है, जिसमें परंपरागत दक्षिण भारतीय मंदिरों के सभी प्रमुख तत्व शामिल हैं।
विमाना (मुख्य शिखर): मंदिर का 13-मंजिला पिरामिडीय शिखर 66 मीटर (216 फीट) ऊंचा है, जो इसे भारत के सबसे ऊंचे मंदिर वाले शिखरों में से एक बनाता है। इसकी चोटी पर स्थित एकल शिला (कुम्बम) का वजन लगभग 80 टन है।
नंदी की प्रतिमा: मुख्य गर्भगृह के सामने स्थित नंदी (शिव के वाहन) की विशाल प्रतिमा एक ही ग्रेनाइट पत्थर से तराशी गई है। यह 13 फीट ऊंची और 16 फीट चौड़ी है, जो मंदिर की भव्यता को दर्शाती है।
बनावट और योजना: मंदिर का परिसर लगभग 240.79 मीटर (पूर्व से पश्चिम) और 121.92 मीटर (उत्तर से दक्षिण) का है, जिसमें मुख्य गर्भगृह, नंदी मंडप, महा मंडप, मुख मंडप, आंतरिक मंडप और परिक्रमा मार्ग शामिल हैं। यह संरचना 'पद्मगर्भमंडल' योजना पर आधारित है, जो दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला की एक विशिष्ट योजना है।
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मंदिर का इतिहास और निर्माण
- निर्माण काल: यह मंदिर चोल वंश के राजा, राजा चोल प्रथम के शासनकाल में 1003 से 1010 ईस्वी के बीच निर्मित हुआ था।
- मंदिर को बनाने में क्या-क्या इस्तेमाल हुआ था: मंदिर का निर्माण लगभग 130,000 टन ग्रेनाइट पत्थरों से हुआ है, जो उस समय की अद्वितीय इंजीनियरिंग क्षमता को दर्शाता है।
- नाम और महत्व: मंदिर को 'दक्षिण मेरु' भी कहा जाता है, जो हिंदू ब्रह्मांडीय संरचना के केंद्र 'मेरु पर्वत' का प्रतीक है।

शिल्पकला की विशेषताएं
बारीक नक्काशी और मूर्तिकला: मंदिर की दीवारों और स्तंभों (पिलर) पर देवी-देवताओं, आकाशीय नर्तकों और चोल साम्राज्य की उपलब्धियों के दृश्य को बारीकी से उकेरा गया हैं, जो उस समय की कला और संस्कृति को दर्शाते हैं।
निर्माण तकनीक: मंदिर का निर्माण बिना किसी नींव के किया गया है, जो उस समय की अद्वितीय निर्माण तकनीकों को दर्शाता है।

मंदिर तक पहुंचने का मार्ग

- निकटतम रेलवे स्टेशन: तंजावुर रेलवे स्टेशन, जो मंदिर से लगभग 2 किमी दूर है।
- निकटतम एयरपोर्ट: तिरुचिरापल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, जो मंदिर से लगभग 60 किमी दूर है।
- स्थानीय परिवहन: बस, टैक्सी और निजी वाहन द्वारा मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।