भारत में कई ऐसे मंदिर हैं, जहां धर्म और आस्था की जड़ें बहुत गहरी हैं। यहां कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर कोई न कोई मंदिर मिल जाता है, जहां लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं। ऐसा ही एक प्रसिद्ध मंदिर आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले के लेपाक्षी गांव में स्थित है, जिसे वीरभद्र मंदिर या लेपाक्षी मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर भगवान शिव के रुद्र अवतार वीरभद्र को समर्पित है। यह स्थान भारतीय वास्तुकला, रहस्य और आस्था का अद्भुत संगम माना जाता है। इस मंदिर से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। आइए, इसके इतिहास के बारे में जानते हैं।
मंदिर की दीवारों पर अंकित शिलालेखों से पता चलता है कि इस गांव को पहले लेपक्षा, लेपाक्षी और लेपाक्षीपुरा के नाम से जाना जाता था। वीरभद्र मंदिर मुख्य रूप से एक कछुए के आकार की चट्टानी पहाड़ी पर बना है, इसलिए इस पहाड़ी को कुर्मासैलम कहा जाता है। तेलुगु भाषा में कुर्मासैलम का अर्थ होता है 'कछुए की पहाड़ी'।
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मंदिर का इतिहास
वीरभद्र मंदिर का निर्माण 16वीं शताब्दी (1530 ई) में विजयनगर साम्राज्य के दौरान हुआ था। इसे विरुपन्ना और वीरन्ना नाम के दो भाइयों ने बनाया था, जो विजयनगर के राजा अच्युतदेव राय के शासनकाल में गवर्नर थे। यह मंदिर विजयनगर शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें बारीक नक्काशी और भव्य नक्काशीदार खंभे देखने को मिलते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार, यह भगवान शिव का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है।
वीरभद्र की जन्म:
यह कथा राजा दक्ष प्रजापति, यानी माता सती के पिता, से जुड़ी है। दक्ष ने कनखल में एक भव्य यज्ञ कराया, जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को बुलाया, लेकिन जानबूझकर अपने दामाद भगवान शिव को उसमें नहीं बुलाया। जब माता सती बिना बुलाए यज्ञ में पहुंचीं, तो दक्ष ने सबके सामने भगवान शिव का अपमान किया। यह अपमान माता सती सह नहीं सकीं और उन्होंने यज्ञ की अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।
इसका पता चलते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़कर पर्वत पर पटक दी, जिससे भयंकर और शक्तिशाली वीरभद्र तथा भद्रकाली प्रकट हुए। वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ को पूरी तरह नष्ट कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उनका अंत कर दिया।
इसके बाद भी शिव और वीरभद्र का क्रोध शांत नहीं हुआ, जिससे सृष्टि पर प्रलय का संकट खड़ा हो गया। तब ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवता शिव के पास पहुंचे और उनसे शांत होने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि यज्ञ का पूर्ण होना आवश्यक है, क्योंकि अधूरा यज्ञ सृष्टि का संतुलन बिगाड़ देता है। देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करते हुए भगवान शिव ने वीरभद्र को अपने आलिंगन में समेट लिया। मान्यता है कि इसी से उनका उग्र रूप शांत हुआ और वे वहीं शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गए।
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मंदिर की कुछ खासियत
- हवा में झूलता खंभा (द हैंगिंग पिलर)- यह मंदिर का सबसे बड़ा रहस्य माना जाता है। मंदिर में कुल 70 खंभे हैं, जिनमें से एक खंभा जमीन को छूता ही नहीं है। यह छत से लटका हुआ है और इसके नीचे से पतला कपड़ा या कागज आसानी से निकाला जा सकता है। कहा जाता है कि ब्रिटिश शासन के समय एक इंजीनियर ने इस खंभे को हिलाने की कोशिश की थी, जिससे पूरे मंदिर की संरचना हिलने लगी थी।
- विशाल नंदी- मंदिर के मुख्य परिसर से करीब 200 मीटर की दूरी पर पत्थर को काटकर बनाई गई नंदी की एक विशाल प्रतिमा स्थित है। यह एक ही पत्थर से बनी भारत की सबसे बड़ी नंदी प्रतिमाओं में से एक मानी जाती है। इसकी लंबाई लगभग 27 फीट और ऊंचाई करीब 15 फीट है।
- विशाल शिवलिंग- मंदिर के पीछे एक ही पत्थर से तराशा गया विशाल शिवलिंग है, जिसके ऊपर शेषनाग अपनी छाया फैलाए हुए दिखाई देते हैं। स्थानीय मान्यता के अनुसार, शिल्पकारों ने दोपहर के भोजन के इंतजार में मिले खाली समय के दौरान इसे बनाया था।
- मां सीता के पैर का निशान- मंदिर के फर्श पर एक बहुत बड़ा पदचिह्न भी बना हुआ है, जिसे माता सीता का माना जाता है। खास बात यह है कि इस पदचिह्न में हर मौसम में पानी भरा रहता है।
नोट: इस खबर में लिखी गई बातें धार्मिक और स्थानीय मान्यताओं पर आधारित हैं। हम इसकी पुष्टि नहीं करते हैं।