आज विशेषरूप से उत्तर भारत में लोहड़ी का त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा। बता दें कि लोहड़ी विशेषकर पंजाब और हरियाणा में मनाया जाने वाला प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार मकर संक्रांति से एक दिन पहले मनाया जाता है और इनमें नई फसल की कटाई के साथ-साथ सर्दियों के अंत का स्वागत किया जाता है। इस त्योहार को कृषि, प्रकृति और सामुदायिक सौहार्द को समर्पित का प्रतीक माना जाता है। लोहड़ी की शुरुआत और इसे मनाने के पीछे के इतिहास, भूगोल और लोक कथाओं में एक गहरी सांस्कृतिक जड़ें छिपी हैं।
लोहड़ी का इतिहास और महत्व
लोहड़ी का त्योहार खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है और इसे नई फसल के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। यह पंजाबी जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है। लोहड़ी का त्योहार मुख्य रूप से आग के चारों ओर नृत्य और गाने के साथ मनाया जाता है। आग को प्रकाश और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है और लोग इसमें तिल, गुड़, रेवड़ी और मूंगफली अर्पित करते हैं। यह परंपरा समृद्धि और जीवन में सकारात्मकता लाने का प्रतीक मानी जाती है।
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दुल्ला भट्टी का किस्सा
दुल्ला भट्टी का किस्सा लोहड़ी के त्योहार से गहराई से जुड़ा हुआ है और इसे पंजाब के गौरवशाली इतिहास और लोककथाओं में प्रमुख स्थान प्राप्त है। दुल्ला भट्टी, जिसे 'पंजाब का रॉबिन हुड' कहा जाता है, मुगल काल में पंजाब क्षेत्र का एक बहादुर और न्यायप्रिय योद्धा थे। वह अमीरों और जमींदारों से धन लूटकर गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करते थे।
दुल्ला भट्टी ने न केवल शोषित किसानों और मजदूरों का सहारा बने, बल्कि वह समाज के कमजोर वर्ग, विशेष रूप से लड़कियों के सम्मान और अधिकारों के लिए खड़े हुए। उस समय जमींदार गरीब लड़कियों का शोषण करते थे और उन्हें जबरन उठा ले जाया जाता था। दुल्ला भट्टी ने न केवल इन लड़कियों को बचाया, बल्कि उनकी शादी भी धूमधाम से करवाई।
कहा जाता है कि उन्होंने कई गरीब लड़कियों को गोद लिया और उन्हें अपनी बेटियों की तरह पाल-पोसकर उनकी शादियां करवाई। लोकगीतों में एक प्रसंग प्रसिद्ध है, जिसमें सुंदरी और मुंदरी नामक दो बहनों को दुल्ला भट्टी ने बचाया और उनकी शादी करवाई। उनकी शादी के दौरान दुल्ला ने खुद उनके पिता की भूमिका निभाई।
लोहड़ी के गीतों में आज भी दुल्ला भट्टी का जिक्र होता है और लोग आग के चारों ओर उसके साहस और न्यायप्रियता की कहानियां गाते हैं। यह लोककथा न केवल दुल्ला भट्टी की वीरता को याद करती है।
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