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मध्यमहेश्वर: यहां भगवान शिव ने पांडवों को बैल रूप में दिए थे दर्शन

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित मध्यमहेश्वर मंदिर की कथा महाभारत काल से जुड़ती है। जानते हैं इस मंदिर से जुड़ी खास बातें।

Image of Madhyamaheshwar Mandir

मध्यमहेश्वर मंदिर(Photo Credit: Wikimedia Commons)

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उत्तराखंड को देवी भूमि कहा जाता है। यहां विभिन्न देवी-देवताओं के कई पौराणिक और प्राचीन मंदिर हैं। साथ उत्तराखंड में भगवान शिव के भी कई पवित्र धार्मिक स्थल है। इन्हीं में से एक मध्यमहेश्वर मंदिर पांच पवित्र केदारों में से एक है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और ‘पंच केदार’ की परंपरा में दूसरे स्थान पर आता है। यह मंदिर गढ़वाल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है और समुद्र तल से करीब 3,289 मीटर की ऊंचाई पर अलकनंदा और मंधाकिनी की धाराओं के बीच बसा है।

 

मध्यमहेश्वर तक पहुंचने के लिए रांसी गांव से लगभग 16 किलोमीटर की पदयात्रा करनी पड़ती है, जो पहाड़ी रास्तों, बर्फीले टीलों और घने जंगलों से होकर गुजरती है। यहां पहुंचना जितना कठिन है, यहां का शांत वातावरण और दृश्य मन को मोह लेती हैं।

 

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पौराणिक कथा से जुड़ा रहस्य

मध्यमहेश्वर मंदिर की स्थापना की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। कथा के अनुसार, पांडवों द्वारा कौरवों का वध करने के बाद जब उन्हें बोध हुआ कि उन्होंने अपने ही भाइयों का विनाश किया है, तब उन्होंने भगवान शिव से क्षमा मांगने के लिए उनका दर्शन करने का संकल्प लिया। हालांकि भगवान शिव, उनके कर्मों से क्रोधित होकर छिप गए। पांडवों ने उन्हें ढूंढना शुरू किया और अंत में महादेव ने एक बैल का रूप धारण कर लिया और केदारनाथ क्षेत्र की ओर बढ़े।

 

 

कहा जाता है कि जब भीम ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की, तो शिवजी अदृश्य हो गए और उनका शरीर पांच भागों में विभाजित होकर विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए- इन्हीं पांच स्थानों को पंच केदार कहा जाता है:

 

  • केदारनाथ में पीठ (कूबड़),
  • तुंगनाथ में भुजाएं,
  • रुद्रनाथ में मुख,
  • कल्पेश्वर में जटा,
  • और मध्यमहेश्वर में नाभि और पेट का भाग प्रकट हुआ।

इसीलिए इस स्थान का नाम 'मध्यमहेश्वर' पड़ा, जिसका अर्थ भगवान शिव के शरीर का मध्य अंग जहां प्रकट हुआ।

 

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मंदिर का स्थापत्य और विशेषता

मध्यमहेश्वर मंदिर पत्थरों से बने एक प्राचीन शैली के मंदिरों में से है। मंदिर की वास्तुकला केदार शैली की है, जिसकी दीवारें मोटे पत्थरों से बनी हैं और छत लकड़ी की बनी होती है। मंदिर में स्थापित शिवलिंग अंडाकार और मध्य भाग के समान प्रतीत होता है। यहां एक छोटा कुंड भी स्थित है, जिसे चंद्रकुंड कहा जाता है, जिसमें भक्त स्नान कर शुद्ध होकर पूजा करते हैं। इसके समीप ही बुढ़ा मध्यमहेश्वर नाम से तीर्थस्थान भी स्थित है, जहां साल भर बर्फ जमी रहती है और कहा जाता है कि शिवजी वहां ध्यान करते हैं।

धार्मिक मान्यताएं और आस्था

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, मध्यमहेश्वर में भगवान शिव की आराधना करने से मन के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से कार्तिक माह (अक्टूबर-नवंबर) में यहां भक्तों की भीड़ उमड़ती है। सर्दियों में जब बर्फबारी के कारण मंदिर बंद हो जाता है, तब मंदिर की पूजा उखीमठ में की जाती है, जो भगवान का शीतकालीन निवास स्थान होता है। यह भी मान्यता है कि इस पवित्र यात्रा में जो भक्त पंच केदारों के दर्शन करता है, उसे जीवन में पुण्य, शांति और शिवकृपा सहज रूप में प्राप्त होती है।


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