संसद में बजट 2025 का ऐलान किया जा रहा है। इसमें कई लोगों की निगाहें सरकार द्वारा टैक्स पर लिए गए फैसलों पर होगी। बता दें कि भारतीय शास्त्रों में कर (टैक्स) के महत्व और इसके इस्तेमाल को विस्तार है। इसे समाज के विकास और कल्याण का एक प्रमुख साधन भी बताया गया है। प्राचीन काल से ही कर संग्रह और उसके उचित उपयोग को लेकर कई नीतियां बनाई गईं, जिनका उल्लेख वेद, स्मृति, पुराण और अर्थशास्त्रों में मिलता है। इन ग्रंथों में कराधान (टैक्सेशन) के सिद्धांत, करदाताओं के अधिकार, कर संग्रह करने के तरीके और उनके इस्तेमाल पर विशेष ध्यान दिया गया है।
धर्म शास्त्रों में टैक्स के विषय में कही गई ये बातें
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में कर का स्वरूप स्पष्ट रूप से बताया गया है।
मनुस्मृति
मनुस्मृति 7 अध्याय के 127 श्लोक में बताया गया है ‘षड्भागं शुल्कमादाय चरेद्राष्ट्रेण धर्मतः।’
इसका अर्थ है कि राजा को प्रजा की आय का छठा भाग कर रूप में लेना चाहिए और धर्मपूर्वक शासन करना चाहिए। मनुस्मृति के अनुसार, राजा (शासक) को कर ऐसे ही लेना चाहिए जैसे मधुमक्खी फूल से शहद निकालती है- अर्थात कर न तो अधिक कठोर होना चाहिए, न ही जनता पर बोझ डालने वाला। कर इतना होना चाहिए कि वह जनता के लिए असहनीय न बने और राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर सके।
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रामायण
रामायण के उत्तराकांड में बताया गया है कि 'नाद्य राजा करं किंचित् प्रजा धर्मपरायणः।'
इसका मतलब है कि धर्मपरायण राजा जनता से अनुचित कर नहीं वसूलता। ऐसी मान्यता है कि रामराज्य में कर प्रणाली बहुत ही उदार और न्यायसंगत थी। जनता पर कर का बोझ नहीं डाला जाता था और सभी नागरिकों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता था।
चाणक्य अर्थशास्त्र
आचार्य चाणक्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र में लिखा गया है कि ‘कोष मूलो दंडः।‘
इसका अर्थ है कि राज्य की शक्ति का आधार उसका कोष होता है। साथ ही कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कर व्यवस्था को बड़े ही सुनियोजित रूप में समझाया गया है। इसमें कर की दर, कर वसूली के तरीके और कर की पारदर्शिता पर विशेष जोर दिया गया है। कौटिल्य ने कहा कि करों को इस तरह से वसूलना चाहिए कि व्यापारी, किसान और अन्य करदाता बिना किसी असुविधा के इसे चुकाएं और राज्य के प्रति उनका विश्वास बना रहे।
महाभारत
महाभारत में बताया गया है कि ‘न राजा शुल्कमादत्ते लोकात् स्वार्थाय कर्हिचित्।’
इसका अर्थ है राजा को कर केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं लेना चाहिए, बल्कि लोक-कल्याण के लिए लेना चाहिए। महाभारत में भी कर प्रणाली पर प्रकाश डाला गया है, जहां कहा गया है कि राजा को प्रजा से कर उसी प्रकार लेना चाहिए जैसे सूर्य धरती से जल लेकर वर्षा के रूप में उसे वापस लौटा देता है। इसका अर्थ यह है कि कर वसूलने के बाद उसका उपयोग जनता के हित में होना चाहिए, न कि केवल शासक के व्यक्तिगत सुख के लिए।
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शास्त्रों में कर वसूली और उसका इस्तेमाल
उचित कर निर्धारित करना: करों को व्यक्ति की आर्थिक स्थिति और आमदनी के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। गरीबों पर अधिक कर लगाना अनुचित बताया गया है।
न्यायसंगत कर व्यवस्था: राजा (शासक) को कर लगाते समय निष्पक्ष और न्यायसंगत दृष्टि से अपनाना चाहिए। कर किसी वर्ग विशेष पर अधिक नहीं होना चाहिए, बल्कि सभी पर समान रूप से लागू होना चाहिए।
जनता के हित में उपयोग: कर से प्राप्त धन का इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, सड़कों, जल प्रबंधन और सार्वजनिक सेवाओं में होना चाहिए। शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि यदि शासक करों का दुरुपयोग करता है, तो वह अधर्म का भागी बनता है।
शासन की स्थिरता: कर से प्राप्त राजस्व का एक हिस्सा सेना, प्रशासन और अन्य सरकारी कार्यों में लगाया जाना चाहिए ताकि राज्य सुचारू रूप से चले और बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहे।
करदाताओं पर कम बोझ: मनुस्मृति में उल्लेख है कि कर की दर इतनी होनी चाहिए कि लोग सहजता से उसे अदा कर सकें और व्यापार, कृषि व अन्य आर्थिक गतिविधियां बिना बाधा के चलती रहें। अधिक कर वसूली से असंतोष फैलता है और प्रजा पर अनावश्यक दबाव बढ़ता है।
भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था: शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि कर संग्रह में ईमानदारी होनी चाहिए और शासकों को इसका व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाना चाहिए।