भारत में धर्म और दर्शन की बहुत सी परंपराएं हमेशा से एक समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा रही हैं। हाल के वर्षों में इन्हीं परंपराओं के दो प्रमुख पक्षों ISKCON (इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस) और शंकराचार्य परंपराओं के बीच वैचारिक मतभेद गहराते दिख रहे हैं। यह विवाद केवल धार्मिक आयोजन या आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि दर्शन, परंपरा और धार्मिक अधिकार के स्वरूप को लेकर भी सवाल खड़े कर रहा है।
विवाद की शुरुआत तब जोर पकड़ने लगी जब पुरी के शंकराचार्य ने ISKCON के अमेरिका स्थित ह्यूस्टन रथयात्रा आयोजन पर आपत्ति जताई थी। उनका कहना था कि ISKCON परंपरागत तिथियों से हटकर उत्सव मनाकर प्राचीन धार्मिक नियमों का उल्लंघन कर रहा है। शंकराचार्य ने यह भी कहा कि धार्मिक उत्सवों का निर्धारण केवल सुविधा या प्रचार के लिए नहीं, बल्कि शास्त्रीय मर्यादाओं के अनुरूप होना चाहिए।
यह भी पढ़ें: मंगला गौरी मंदिर: क्या है मंदिर से जुड़ी मान्यता और विशेषता?
झगड़े की असली वजहें क्या हैं?
पौराणिक और धार्मिक परंपराएं, उत्सवों की समय-सीमा
उदाहरण के लिए, हाल ही में पुरी के शंकराचार्य ने ISKCON की अमेरिका स्थित ह्यूस्टन रथयात्रा की योजना पर कहा कि यह परंपरागत समय से बाहर हो रही है और इस तरह के आयोजनों की तिथि, नियमों और ग्रंथों के अनुकूल होनी चाहिए।
शंकराचार्यों की मान्यता है कि धार्मिक उत्सवों और संस्कारों की तिथियां और विधियां प्राचीन और ग्रंथ आधारित परंपराओं के अनुसार होनी चाहिए, न कि जहां सुविधा हो या प्रचार हो, वहां। ISKCON कभी-कभी वैश्विक आयोजन करते समय स्थानीय या परंपरागत कैलेंडर से भटक जाता है, जिससे आस्था की भावनाएं आहत होती हैं।
दर्शनात्मक मतभेद
शंकराचार्य परंपराएं मूल रूप से आद्वैत वेदान्त की व्याख्या करती हैं, जिसमें ब्रह्म (सर्वोच्च सत्य) को निराकार, अविभाज्य और सभी व्यक्तियों में एक माना जाता है। जीव-आत्मा, भगवान आदि सभी एक ही अन्तर्निहित ब्रह्म के अलग-अलग रूप माने जाते हैं।
ISKCON (गौड़िया वैष्णव परंपरा) भक्ति मार्ग को महत्व देती है और भगवान कृष्ण को सर्वोच्च, व्यक्तिगत ईश्वर के रूप में मानती है। उनका मानना है कि भक्त-परमात्मा के बीच भक्ति-सम्बन्ध विशेष है। इस तरह के दृष्टिकोण आद्वैत की निराकारता और धार्मिक महत्वों से अलग होते हैं। ये मतभेद दर्शन, आध्यात्मिक लक्ष्य और मुक्ति की व्याख्या में आते हैं।
प्रचार एवं मिशनरी गतिविधियां / धर्म परिवर्तन का आरोप
कुछ शंकराचार्यों ने आरोप लगाया है कि ISKCON की गतिविधियां कभी-कभी धर्म परिवर्तन या हिन्दू धर्म की परंपरागत मान्यताओं को प्रभावित करने वाली लगती हैं। उदाहरण के रूप में, शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा कि ISKCON मंदिरों में जो चढ़ावा या दान होता है, 'वह अमेरिका जाता है' और इसे मिशनरी गतिविधियों से जोड़कर देखा गया है।
ISKCON इस तरह के आरोपों का खंडन करता है, उनका कहना है कि ISKCON का उद्देश्य लोगों के हृदय को परिवर्तित करना है, न कि धर्म परिवर्तन जैसा कि बाह्य रूप से समझा जाता है।
यह भी पढ़ें: बौद्ध धर्म में कितने संप्रदाय हैं, क्या है इनसे जुड़ी मान्यता?
परंपरा, अधिकार का प्रश्न
शंकराचार्य मठों की परंपराएं हमेशा से मजबूत धार्मिक संस्थाएं रहीं हैं, जिनकी शिष्य-गणना और ग्रंथाधारित परंपराओं में मजबूती होती है। उन्हें लगता है कि धर्म-कार्य, पूजा-विधि आदि में पूर्णता बरती जानी चाहिए। ISKCON की कुछ खोज, नयी व्यवस्थाएं, आधुनिकता की ओर झुकाव या ग्रंथों की व्याख्या में बदलाव शंकराचार्यों को परंपरा के उल्लंघन जैसा लगता है।
दूसरी ओर, ISKCON का दृष्टिकोण है कि भक्ति आंदोलन में समय के अनुसार, कुछ बदलाव हो सकते हैं और लोगों को संवाद, प्रचार, वैश्वीकरण आदि की जरुरत है, जिससे वैष्णव धर्म अधिक लोगों तक पहुंच सके।
अभी तक के विवाद
अमेरिका स्थित ह्यूस्टन रथयात्रा विवाद: शंकराचार्य और पुरी गजपति महाराज ने ISKCON के यूएसए के कार्यक्रम की तिथि पर प्रश्न उठाया क्योंकि वह परंपरागत तिथि (अषाढ़ शुक्ल द्वितीया) से नहीं मिलती थी।
जगन्नाथ धाम नाम का इस्तेमाल: बंगाल के दीघा में ISKCON के जरिए बने नये मंदिर को जगन्नाथ धाम नाम देने पर भी विरोध हुआ क्योंकि पुरी का मंदिर पारंपरिक रूप से जगन्नाथ धाम के रूप में स्वीकार है।
अंग-भंग, वेशभूषा और साधु-शिष्य व्यवहार: ISKCON की कुछ नीतियों, समारोहों की शैली, मंदिरों की बनावट आदि शंकराचार्य परंपराओं में कभी-कभी बहुत आधुनिक और प्रचारात्मक माना जाता है। इससे कुछ पारंपरिक भक्तों में असंतोष होता है।