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नया साल कितना नया होता है, रेजोल्यूशन से क्या बदलता है? विद्वानों से समझिए

कुछ लोगों का मानना होता है कि नए साल से कुछ नहीं बदलता और कुछ इसे त्योहार की तरह मनाते हैं। इस पर विद्वानों की राय जान लीजिए।

happy new year

प्रतीकात्मक तस्वीर, Photo Credit: Sora AI

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इक साल गया इक साल नया है आने को
पर वक़्त का अब भी होश नहीं दीवाने को
नया साल होता क्या है? क़ायनात में कुछ भी नया नहीं होता। सूरज वहीं का वहीं है, धरती बस एक बार फिर उसके चारों तरफ़ अपना चक्कर पूरा कर लेती है। न कोई घंटी बजती है, न आसमान में कोई तारीख़ बदलती है और फिर भी हम कहते हैं नया साल आ गया। क्या यह पटाखों, पार्टियों और सेलिब्रेशन की एक लंबी रात के बाद कैलेंडर का पलट जाना भर है? क्या आधी रात के बाद हमारा इमोशनल सिस्टम अचानक रीबूट हो जाता है? क्या दुख कम हो जाते हैं, यादें पीछे छूट जाती हैं और उम्मीदें अपने आप फ्रेश हो जाती हैं?

 

या फिर नया साल दरअसल इंसान की वो ज़िद है जिससे वह वक़्त से कहता है एक मौका और दे दो। ज़रा ठहरिए और इस क़ायनात को सोचिए। एक सूरज है लगातार जलता हुआ एक तारा, जिसकी आग से धरती पर सुबह होती है।

 

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हमारी पृथ्वी उस सूरज के चारों तरफ़ एक अंडाकार रास्ते पर लगभग 94 करोड़ किलोमीटर का सफ़र हर साल पूरा करती है। न कोई शोर, न कोई काउंटडाउन, न कोई तालियाँ। बस एक चक्कर और हम उसे कह देते हैं, नया साल। फिर ज़रा और पीछे जाइए। हमारा यह सौरमंडल एक आकाशगंगा का हिस्सा है मिल्की वे, जो लगभग एक लाख प्रकाश-वर्ष में फैली हुई है और यह पूरी आकाशगंगा भी क़ायनात के समुद्र में बस एक छोटा-सा बिंदु है। इतनी विशालता में हमारी सारी पार्टियाँ, हमारे सारे पटाखे क्या कुछ भी बदल पाते हैं?

 

तो क्या नया साल नया नहीं होता, होता है इंसानी जज़्बातों से, उसी तरह जिस तरह एक गुलमोहर का एक फूल सबेरे-सबेरे डाली पर आकार आंगन को नया कर देता है, जिस तरह धरती एक चक्कर पूरा करके दूसरे चक्कर पूरा करने की उम्मीद को यकीन में बदलती है, ठीक उसी तरह नया साल नए मौकों की उम्मीद देता है। 

इसी उम्मीद में शायरी जन्म लेती है। नए साल को देखने के नज़रिये देती है।

इक बरस और कट गया 'शारिक़'
रोज़ साँसों की जंग लड़ते हुए
सब को अपने ख़िलाफ़ करते हुए
यार को भूलने से डरते हुए
और सब से बड़ा कमाल है ये
साँसें लेने से दिल नहीं भरता
अब भी मरने को जी नहीं करता”

‘इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई’

अंग्रेज़ी ज़बान के मशहोर कवि और लेखक टी. एस. एलियट का कथन है. 'जिसे हम शुरुआत कहते हैं, वह अक्सर किसी अंत का नाम होता है और किसी अंत तक पहुंचना ही असल में एक नई शुरुआत है।'

 

दुनियाभर के साहित्य में नया साल अक्सर किसी उत्सव या नई शुरुआत की तरह नहीं, बल्कि एक तरह की नाउम्मीदी, अस्वीकार और ठहरी हुई निराशा की तरह देखा गया है। कवि और लेखक जानते हैं कि तारीख़ बदल जाने से ज़िंदगी की सच्चाइयाँ नहीं बदलतीं। वही दिन, वही रातें, वही मौसमों का क्रम और वही इंसानी मजबूरियाँ सब कुछ पहले जैसा ही रहता है। इसलिए साहित्य में नया साल जश्न का नहीं, सवाल का विषय बनता है। यह उम्मीद नहीं जगाता, बल्कि याद दिलाता है कि समय अपने चक्र में चलता रहता है और इंसान अक्सर वहीं खड़ा रह जाता है। यही वजह है कि नए साल को कई कवियों ने मुबारकबादों से नहीं, बल्कि शिकायत और बहस की नज़र से देखा है एक ऐसी शुरुआत के रूप में जो असल में किसी पुराने अनुभव का ही अगला पड़ाव भर होती है। इसी नज़र से फ़ैज़ लुधियानवी नए साल से सवाल करते हैं, और उसकी तथाकथित नवीनता को परखते हैं।

ऐ नए साल बता तुझ में नया-पन क्या है
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यों शोर मचा रखा है

रौशनी दिन की वही तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर एक बात वही

आसमान बदला है अफ़्सोस ना बदली है ज़मीं
एक हिंदिसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं

अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किसे मालूम नहीं बारह महीने तेरे

जनवरी फ़रवरी मार्च में पड़ेगी सर्दी
और अप्रैल मई जून में हो गी गर्मी

तेरा मन दहर में कुछ खोएगा कुछ पाएगा
अपनी मीआ'द बसर कर के चला जाएगा

तू नया है तो दिखा सुब्ह नई शाम नई
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई

बे-सबब लोग क्यों देते हैं मुबारक-बादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें

तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ से सब की
'फ़ैज़' ने लिक्खी है ये नज़्म निराले ढब की

 

नया साल कोई नई बात नहीं कहता। हर साल वही सवाल लौटता है  ऐसा क्या कहा जाए जो पहले न कहा गया हो? शब्द थके हुए हैं, मुबारकबादें जानी-पहचानी, और फिर भी हम उन्हें दोहराते हैं क्योंकि साल बदलने से ज़्यादा हमें ख़ुद को भरोसा दिलाना होता है। नए साल आते हैं, पुराने चले जाते हैं लेकिन इंसान वहीं खड़ा रहता है कभी यक़ीन में, कभी सपने में और कभी इस भ्रम में कि वह दोनों को पहचान चुका है। जैसे एक दिन पूरी ज़िंदगी बन जाता है; सुबह हँसी के साथ उठती है और रात आंसुओं के साथ ख़त्म होती है।

 

हम इस दुनिया से पूरी ताक़त से लिपटते हैं और जब वही दुनिया चुभने लगती है तो उसे कोसते हुए उड़ जाने के सपने देखते हैं। इसी एक साल में हम जीते हैं, चाहते हैं, वादे करते हैं, रिश्ते रचते हैं, गर्व संजोते हैं और किसी को कफ़न ओढ़ाते हैं। हम हंसते हैं, रोते हैं, उम्मीद करते हैं, डरते हैं और शायद यही नया साल नहीं, बल्कि एक साल का बोझ है, जिसे हर इंसान हर बार फिर से उठाता है।

मुखतलीफ़ शेरों में नए साल को बरतने के ढंग देखिए

 

अहमद फराज़ का शेर है- 

न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है
किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है

 

क़तील शिफ़ाई शेर कहते हैं- 

जिस बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
उस को दफ़नाओ मिरे हाथ की रेखाओं में

 

सरफ़राज़ ज़ाहिद कहते हैं-

साल गुज़र जाता है सारा
और कैलन्डर रह जाता है

 

अमीर क़ज़लबाश कहते हैं- 

यकुम जनवरी है नया साल है
दिसम्बर में पूछूँगा क्या हाल है

 

ऐतबार साजिद का शेर है- 

किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए
कैलन्डर के बदलने से मुक़द्दर कब बदलता है


दर्शन हमें नया साल मनाने का तरीका नहीं सिखाता बल्कि उसे एक एग्जिस्टेंशियल चेकप्वाइंट की तरह देखता है।  एक ऐसा पल जहाँ इंसान खुद से सामना करता है, अपनी पसंद से और अपने तरीके से ज़िंदगी को लेने से।

फिलॉस्फर मार्कस औरेलिस के अनुसार, समय एक ऐसा प्रवाह है जिसमें हर क्षण गुजर जाता है और फिर नया क्षण आ जाता है। समय एक नदी की तरह है, जिसमें हम डूबते चले जाते हैं और कोई भी क्षण स्थायी रूप से हमारे पास नहीं रहता। उनकी समझ यह है कि जीवन वही बन जाता है जो हमारे विचार उसे बनाते हैं और समय, जैसा कि वह बहता है, लगातार सब कुछ बदलता रहता है।

 

Nietzsche की थॉट एक्सपेरिमेंट एटरनल रिकरेंस कहती है कि क्या आप वही जीवन  वही दर्द, वही खुशी, वही राहत बार-बार और फिर से जीना चाहोगे? अगर हर अनुभव अनगिनत बार दोहराया जाएगा, तो क्या आप उसे अपनाने को तैयार होंगे? यह विचार हमें चुनौती देता है कि हम अपने जीवन को इस तरह जिएं कि हम उसे बार-बार जीने के लिए 'हाँ' कह सकें  न कि उसे केवल समय के गुज़रने के बहाने छोड़ दें। 

 

St. Augustine समय को एक एक्सटरनल सीक्वेंस के रूप में नहीं, बल्कि मानसिक अनुभव के रूप में समझता है  पास्ट, प्रजेंट और फ्यूचर सब हमारी याद्दाश्त और उम्मीद के भीतर होते हैं। उनके अनुसार जो भी हम कहते हैं ‘पहले’ या ‘बाद में’  वह हमारी चेतना के दृष्टिकोण का ही परिणाम है क्योंकि बाहरी दुनिया में भविष्य या बीता हुआ काल वस्तुतः मौजूद नहीं होता; केवल एक ही सतत वर्तमान होता है। 

 

और इसी तरह बुद्ध कहते हैं: “The past is already gone, the future is not yet here…”  अर्थात दुविधा में फँसने की बजाए, इंसान केवल अब और यहीं में जी सकता है। यही वह ‘मोमेंट’ है जिसमें जीवन सचमुच मौजूद है। 

इन सब विचारों का एक ही निचोड़ है  नया साल तारीख़ बदलने का नाम नहीं है, और न ही वह बाहरी जादू है। वह सिर्फ़ हमें याद दिलाता है कि समय का बहाव एक भ्रम से ज़्यादा अनुभव है और हम वहीं रहते हैं, जब तक हम खुद को बदलना सीख नहीं लेते  और यही सवाल हर साल फिर से हमारे सामने आता है:

 

“क्या तुम अब भी वही हो, या ज़रा-सा बदलने की हिम्मत कर पाए?”
अपने सुकोमल हाथों से
सुंदर फूल के ‘बुके’

पकड़कर, सुंदर ‘ग्रीटिंग कार्ड’
भेजती थीं,

हर नए साल तुम मुझे।
इस साल

शुभकामना सहित
एक बड़ी डायरी भेजी हो;

विश्वास न होगा तुम्हें
हर साल की डायरी है मेरे पास

पर लिखने के लिए
विशेष विषय/विशेष शब्द

विशेष मन/विशेष रंग
न होने से

हर साल की डायरी
यथावत् है, रिक्त है, सादा है

मेरे पास, मेरे साथ...!

 

सबके लिए खुशी नहीं लाता नया साल?

 

नया साल हर किसी के लिए जश्न और खुशियों का पैग़ाम नहीं लेकर आता। कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ़ वही दिन है, जिसमें उजाले और परछाई दोनों साथ चलते हैं। जहाँ कुछ घरों में रोशनी और खुशी है, वहीं कुछ सड़कों और गलियों में भूख और थकान की चुप्पी है। हर काउंटडाउन  के पीछे कुछ चेहरे हैं जो मुस्कुरा नहीं सकते और हर मुबारकबाद के बीच कुछ लोग अपने संघर्ष और दर्द के साथ अकेले खड़े हैं।

 

नया साल का हर सनराइज सबके लिए समान नहीं होता। कुछ लोग नए साल में उम्मीद और प्यार खोजते हैं तो कुछ अपने हालात की हकीकत और अधूरी ज़िंदगियों का सामना करते हैं। यह वो पल है जब इंसान अपने आप से पूछता है क्या यह दिन मेरे लिए नया कुछ लेकर आया है, या वही पुराने दर्द और संघर्ष का हिस्सा है?

फूट पड़ीं मशरिक़ से किरनें
हाल बना माज़ी का फ़साना
गूँजा मुस्तक़बिल का तराना
भेजे हैं अहबाब ने तोहफ़े
अटे पड़े हैं मेज़ के कोने
दुल्हन बनी हुई हैं राहें
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
निकली है बंगले के दर से
इक मुफ़लिस दहक़ान की बेटी
अफ़्सुर्दा मुरझाई हुई सी
जिस्म के दुखते जोड़ दबाती
आँचल से सीने को छुपाती
मुट्ठी में इक नोट दबाए
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
भूके ज़र्द गदागर बच्चे
कार के पीछे भाग रहे हैं
वक़्त से पहले जाग उठे हैं
पीप भरी आँखें सहलाते
सर के फोड़ों को खुजलाते
वो देखो कुछ और भी निकले
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के


रेजॉल्यूशन्स क्या कहते हैं?

 

नया साल सिर्फ़ तारीख़ बदलने का नाम नहीं है। यह ऐसा पल है जब इंसान खुद को चुनौती देता है, अपने सपनों और फैसलों के साथ ईमानदार होने का मौका मांगता है। रेजोल्यूशन्स का असली मक़सद सिर्फ़ लिस्ट बनाना नहीं है। यह आपके जीवन के दिशा-निर्धारण का समय है। हर नया साल हमें सोचने और तय करने का मौका देता है कि इस साल हम कौन बनना चाहते हैं, कौन सी आदतें बदलें और किन अनुभवों को प्राथमिकता दें। रेजोल्यूशन्स इंसान को ऐक्टिव पार्टिसिपेशन की याद दिलाते हैं, न कि पैसिव एक्सपेक्टेशन में जीने की।

 

Neil Gaiman कहते हैं: “I hope that in this year to come, you make mistakes. Because if you are making mistakes... you're Doing Something.”

गलतियों का मतलब असफलता नहीं; इसका मतलब है सीखना और आगे बढ़ना। रेजोल्यूशन्स हमें याद दिलाते हैं कि जीवन का हर नया साल एक कोरा कैनवास है, जिसे हम अपनी नीयत, काम और इच्छाओं से रंग सकते हैं।

इसी राह में Rainer Maria Rilke कहते हैं: “And now we welcome the new year, full of things that have never been.”

 

यह याद दिलाता है कि नया साल हमें नए अवसर देता है,  नए विचारों, नए रिश्ते, नए अनुभव और नई उम्मीदें। रेजोल्यूशन्स की ताक़त यही है: यह हमें ऐक्टिवली शेप करने की प्रेरणा देता है, सिर्फ़ ऑब्जर्व करने या इंतजार करने की नहीं।

हर रेजोल्यूशन खुद से एक वादे की तरह होता है। जो  कहता है, 'इस साल मैं अपने डर, झिझक से बाहर निकालकर एक नया रूटीन तैयार करूंगा । इस साल मैं वही कदम उठाऊंगा जो मुझे आगे बढ़ाएंगे करेंगे। इस साल मैं वही इंसान बनने की कोशिश करूँगा जो मैं बनना चाहता हूँ।'

 

नहीं काम रखना कोई दिल लगी से यकुम जनवरी से
गुज़रना नहीं अब तुम्हारी गली से यकुम जनवरी से

गुज़िश्ता बरस सब के नख़रे उठाए मगर कुछ न पाया
नहीं मुझ को करनी मोहब्बत किसी से यकुम जनवरी से

दिसम्बर के आख़िर में अपने गुनाहों से तौबा करूँगा
फ़रिश्ता ही बन जाउँगा आदमी से यकुम जनवरी से

ख़ुशी क्या मनाऊँ कि दिल ग़म-ज़दा है नए साल पर भी
कि इक कम हुआ है बरस ज़िंदगी से यकुम जनवरी से

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