राज्यपाल का इस्तीफा, नेताओं में खौफ, क्या है टी एन शेषन की कहानी?
विशेष
नीलेश मिश्र• NEW DELHI 18 Sept 2025, (अपडेटेड 18 Sept 2025, 6:13 PM IST)
भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन को उनके सख्त रवैयै और नियमों के सख्ती से पालन करवाने की वजह से जाना जाता है।

टी एन शेषन की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
90 के दशक की शुरुआत। प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के दफ़्तर में एक हाई-लेवल मीटिंग चल रही थी। क़ानून मंत्री मौजूद थे और उनके सामने बैठे थे मुख्य चुनाव आयुक्त, टी.एन. शेषन। सरकार और चुनाव आयोग के बीच तनाव बढ़ रहा था। मंत्री ने शेषन से कहा, ‘शेषन साहब, आप सहयोग नहीं कर रहे हैं। You are not cooperating।’ शेषन ने प्रधानमंत्री की तरफ़ देखे बिना, मंत्री से कहा।
‘Mr. Minister, I represent the Election Commission of India। I am not a cooperative society’, ‘मिस्टर मिनिस्टर, मैं भारत के चुनाव आयोग का प्रतिनिधि हूं। मैं कोई कोऑपरेटिव सोसाइटी नहीं हूं।’ कमरे में सन्नाटा छा गया। प्रधानमंत्री भी चुप थे। भरी मीटिंग में मंत्री को संविधान के दायरे याद दिला दिए थे, वह भी एक बाबू के द्वारा। भारत में सरकारी अफ़सरों के लिए यह शब्द इस्तेमाल किया जाता है। बाबू यानी एक ऐसा इंसान जो नियमों की मोटी-मोटी किताबों के हिसाब से चलता है। जो सत्ता के इशारों को समझता है और सिस्टम को चलाने वाली एक शांत, आज्ञाकारी कड़ी बना रहता है। टी.एन. शेषन भी एक ऐसे ही 'बाबू' थे। IAS टॉपर, जो भारतीय अफ़सरशाही के सबसे ऊंचे पद, कैबिनेट सचिव, तक पहुंचे थे। एक ऐसा अफ़सर जिसने कभी राजीव गांधी के मुंह से यह कहते हुए बिस्किट छीन लिया था कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा पहले आती है।
फिर 1990 में उन्हें एक ऐसी कुर्सी मिली, जिसे तब तक एक आरामदायक रिटायरमेंट पोस्टिंग माना जाता था- भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त का पद। उस कुर्सी पर बैठते ही, उस 'बाबू' का अवतार बदल गया। वह खुलेआम कहने लगा, 'I eat politicians for breakfast।' मैं नाश्ते में नेताओं को खाता हूं। यह सिर्फ़ एक जुमला नहीं था। उस एक शख्स ने प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्रियों तक को चुनौती दी। उसने उन कानूनों को लागू करना शुरू कर दिया, जिन्हें नेता भूल चुके थे। नतीजा? बंगाल के मुख्यमंत्री ने उसे 'पागल कुत्ता' कहा , तो दिल्ली के गलियारों में लोग उसे 'अलसेशियन' बुलाने लगे और आम जनता ने उसके नाम के फैन क्लब बना दिए।
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यह कहानी सिर्फ़ एक अक्खड़ और ईमानदार अफ़सर की नहीं है। यह कहानी है उस विरोधाभास की, कि कैसे सिस्टम का बनाया एक 'बाबू' ही सिस्टम का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया। कैसे एक आदमी, जिसे सरकार ने अपने काम में हाथ बंटाने के लिए भेजा था, उसी ने सरकार के हाथ-पैर बांध दिए। आज पढ़िए कहानी टी. एन. शेषन की।
प्रधानमंत्री का बिस्किट रोका
कहानी शुरू होती है 60 के दशक की शुरुआत से। साल था 1962, एक युवा IAS अफ़सर, टी.एन. शेषन को मद्रास का डायरेक्टर ऑफ ट्रांसपोर्ट बनाया गया। एक दिन कुछ बस ड्राइवरों ने उन्हें घेर लिया और ताना मारा- ‘साहब, आप एसी कमरे में बैठकर हमारी तकलीफ़ें क्या समझेंगे? आप क्या जानें बस का इंजन कैसे काम करता है? कभी बस चलाएंगे, तब पता चलेगा।’
उस दिन के बाद, शेषन ऑफ़िस के बाद घर नहीं, बस वर्कशॉप जाने लगे। उन्होंने मैकेनिकों से दोस्ती की। उनके साथ बैठकर बस का इंजन खोलना सीखा। उसे फिर से जोड़ना सीखा और फिर ड्राइविंग सीखी।
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उन्हें दिनों का एक क़िस्सा है। एक रोज़ शेषन कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक सरकारी बस का ड्राइवर बहुत ख़तरनाक तरीक़े से बस चला रहा है। यात्रियों की जान ख़तरे में थी। उन्होंने अपनी कार से बस को ओवरटेक किया, उसे रुकवाया। ड्राइवर को नीचे उतारा और ख़ुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए। मद्रास के ट्रांसपोर्ट डायरेक्टर ने यात्रियों से भरी बस को ख़ुद 80 किलोमीटर तक चलाया और सुरक्षित डिपो तक पहुंचाया। शेषन का यह सख़्त रवैया सिर्फ़ सड़क पर नहीं, ऑफ़िस में भी दिखता था और इसकी वजह से उन्हें कई बार सत्ता से सीधे टकराना पड़ा।
एक दिन में 7 ट्रांसफर
ऐसा ही एक किस्सा है मद्रास में उनकी डिप्टी सेक्रेटरी की पोस्टिंग का। उनके एक बॉस थे, जो मुख्यमंत्री के. कामराज के बहुत करीबी थे। पॉलिटिकली काफ़ी कनेक्टेड। वह शेषन पर अपने हिसाब से काम करने का दबाव बना रहे थे लेकिन शेषन को यह बात जमी नहीं। उन्होंने साफ़ मना कर दिया।
नतीजा- शेषन का एक ही दिन में सात बार ट्रांसफर किया गया। सुबह वह जिस कुर्सी पर बैठते, घंटे भर में उनके हाथ में नया ट्रांसफर ऑर्डर आ जाता। उन्हें एक डिपार्टमेंट से दूसरे डिपार्टमेंट में घुमाया जाता रहा। शेषन के करियर का अगला पड़ाव था मदुरै। 1965 में उन्हें मदुरै का डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर बनाया गया। यहां उनका सामना हुआ कश्मीर पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला से, जिन्हें के कोडाइकनाल में नज़रबंद रखा गया था। उनकी निगरानी की ज़िम्मेदारी कलेक्टर शेषन पर आई। अब्दुल्ला पर पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ाने के आरोप थे इसलिए उन दिनों उनकी कोई भी चिट्ठी बिना पढ़े बाहर नहीं भेजी जाती थी और चिठ्ठी पढ़ते थे- कलेक्टर।
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एक दिन शेख अब्दुल्ला ने एक लिफ़ाफ़ा शेषन को दिया। उस पर पता लिखा था- 'डॉक्टर एस. राधाकृष्णन, प्रेसिडेंट ऑफ़ इंडिया'। राष्ट्रपति के नाम ख़त, कलेक्टर नहीं पढ़ेगा- यह सोचकर अब्दुल्ला ने शेषन से कहा- ‘तो, नौजवान, क्या अब भी इसे खोलने की हिम्मत करोगे?’ उन्हें लगा कि राष्ट्रपति का नाम देखकर 2 साल पुराना यह कलेक्टर डर जाएगा लेकिन लिफ़ाफ़ा उठाया और कहा, 'सर, नियम तो नियम है। इसे मैं आपके सामने ही खोलूंगा और पढ़ूंगा। इस पर क्या पता लिखा है, इससे मुझे कोई मतलब नहीं।' नियम का पालन हुआ, चिट्ठी पढ़ी गई।
होटल की नाम में दम
नियमों को लेकर शेषन कितने सख़्त थे, इसका एक और मज़ेदार किस्सा है। कोडाइकनाल में, जहां शेख अब्दुल्ला नज़रबंद थे, वहां एक मशहूर होटल था - 'Laughing Waters'। इसकी मालकिन एक अंग्रेज़ महिला थीं, मिसेज़ हेनरी। अब्दुल्ला अक्सर इस होटल में जाते थे ताकि सरकार की नज़र से दूर लोगों से मिल सकें। शेषन को जब पता चला, तो उन्होंने मिसेज़ हेनरी को चेतावनी दी। मिसेज हेनरी नहीं मानीं। आख़िर में शेषन ने एक रास्ता निकाला। अगले कुछ दिनों तक उस होटल में अजीब घटनाएं होने लगीं, कभी अचानक पानी की मेन पाइपलाइन फट जाती। जब तक उसे ठीक किया जाता, तब तक बिजली का मेन फ़्यूज़ उड़ जाता। सब कुछ ठीक होता तो फ़ोन लाइन डेड हो जाती।
मिसेज़ हेनरी को पता था कि यह सब कौन करवा रहा है। आख़िरकार, उन्होंने हार मान ली। शेषन इसके बाद दिल्ली पहुंचे। साल था 1972। यहां उनके करियर में एक बड़ा तूफ़ान आया। टी.एन. शेषन ने अपनी आत्मकथा, 'थ्रू द ब्रोकन ग्लास' Through the Broken Glass, में इस घटना का ज़िक्र किया है।
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उनके बॉस, एटॉमिक एनर्जी कमीशन के चेयरमैन होमी सेठना से उनके गहरे मतभेद थे, जो विक्रम साराभाई के निधन के बाद कमीशन के प्रमुख बने थे।। शेषन के मुताबिक, क्योंकि वह साराभाई के क़रीबी थे, इसलिए सेठना ने उनकी Confidential Report में उनके ख़िलाफ़ टिप्पणी लिख दी। लिखा-'वह आक्रामक है और अपने से नीचे काम करने वालों को धमकाता है। He is a bully।'यह किसी भी अफ़सर का करियर तबाह कर सकती थी लेकिन शेषन चुप नहीं बैठे। उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए सीधे कैबिनेट सचिव को एक लंबा पत्र लिखा। मामला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पहुंच गया। शेषन अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि जब इंदिरा गांधी ने उनसे मुलाक़ात की, तो उन्होंने बेबाकी से अपनी बात रखी। इंदिरा ने पूछा, ‘क्या आप एग्रेसिव हैं?’
राजीव गांधी को दौड़ने से रोका
शेषन ने कहा, 'अगर मुझे कोई काम दिया जाता है तो मैं उसे आक्रामक होकर ही पूरा करता हूं।' बकौल शेषन इंदिरा गांधी उनकी बेबाकी से प्रभावित हुईं और उनकी रिपोर्ट से टिप्पणी हटा दी गई। दिल्ली के बाद वह फिर तमिलनाडु लौटे। इस बार सामना हुआ मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन से। MGR, जो एक बड़े ऐक्टर भी थे और उतने ही ताक़तवर मुख्यमंत्री भी। शेषन उस समय इंडस्ट्री सेक्रेटरी थे। MGR चाहते थे कि शेषन एक कंपनी की फ़ाइल पर उनकी मर्ज़ी के मुताबिक़ नोटिंग लिखें। शेषन ने फ़ाइल देखी। उन्हें लगा कि यह डील सरकार के लिए नुक़सान का सौदा है। उन्होंने MGR की मर्ज़ी के आगे झुकने से साफ़ इनकार कर दिया।
MGR को गुस्सा आया।! उन्होंने अपने चीफ़ सेक्रेटरी को बुलाया और आदेश दिया, ‘इस शेषन को नीचे लाओ।’
चीफ़ सेक्रेटरी ने क्या किया? शेषन का ऑफ़िस सचिवालय की नौवीं मंज़िल पर था। उन्हें वहां से ट्रांसफर करके एग्रीकल्चर सेक्रेटरी बना दिया गया। जिसका ऑफ़िस पहली मंज़िल पर था। इस तरह MGR के आदेश का पालन हो गया। शेषन सचमुच ‘नीचे’ आ गए। वक्त आगे बढ़ा। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। शेषन को राजनेताओं से टक्कर लेने के लिए जाना जाता है लेकिन राजीव गांधी से उनकी खूब पटती थी। 1985 से 1988 के बीच शेषन कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। वह पर्यावरण और वन मंत्रालय के सचिव थे और रक्षा सचिव भी बने। रक्षा सचिव के कार्यकाल का एक क़िस्सा है।
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साल 1987 की बात है। इंडिपेंडेंस डे पर एक 'फ्रीडम रन' Freedom Run आयोजित की गई थी, -विजय चौक से इंडिया गेट तक। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी हिस्सा लिया। राजीव ने दौड़ना शुरू किया। अचानक एक एम्बेसडर कार तेज़ी से आई और उनके आगे आकर रुकी। उसमें से टी.एन. शेषन उतरे और बोले, ‘सर, प्लीज़ गाड़ी में बैठ जाइए।’ राजीव थोड़ा नाराज़ हुए, ‘शेषन, मैं बस दौड़ रहा हूं।
शेषन ने जवाब दिया, ‘देश का प्रधानमंत्री दौड़ सके, इसके लिए कुछ लोगों को हर पल सीधा खड़ा रहना पड़ता है।।’ इसके बाद राजीव गांधी को गाड़ी में बैठना पड़ा। एक और क़िस्सा है, एक रोज किसी मीटिंग के दौरान शेषन राजीव गांधी के साथ थे। राजीव ने सामने रखी प्लेट से एक बिस्किट उठाया। वह बिस्किट खाने ही वाले थे कि अचानक एक हाथ तेज़ी से आगे बढ़ा और उस हाथ ने प्रधानमंत्री के हाथ से वह बिस्किट ले लिया। वह हाथ था टी. एन. शेषन का। शेषन बोले, ‘माफ़ कीजिएगा सर, लेकिन इस बिस्किट को अभी तक फ़ूड-टेस्टर्स ने जांचा नहीं है।’
मार्च 1989 में शेषन अपने करियर के शिखर पर पहुंचे। उन्हें कैबिनेट सेक्रेटरी बनाया गया लेकिन 8 महीने बाद ही सरकार बदल गई। दिसंबर 1989 में वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री बने। शेषन को पद से हटाने का फ़ैसला हो गया। शेषन को किनारे लगा दिया था। लगा कि शेषन का चैप्टर अब क्लोज हो चुका है लेकिन शेषन एक बार फिर मुख्य भूमिका में लौटे और यह नई भूमिका जल्द ही दिल्ली के सियासी मौसम को हमेशा के लिए बदलने वाली थी।
आधी रात की नियुक्ति
साल 1990- दिल्ली का सियासी मौसम बदल चुका था। वी पी सिंह की सरकार गिर चुकी थी। चंद्रशेखर देश के नए प्रधानमंत्री थे और टी.एन. शेषन, योजना आयोग में अपना 'वनवास' काट रहे थे। एक ऐसा दफ़्तर जिसे नौकरशाही में सज़ा की पोस्टिंग माना जाता था। शेषन को लग रहा था कि उनका शानदार करियर अब एक शांत अंत की तरफ़ बढ़ रहा है लेकिन क़िस्मत ने कुछ और ही सोच रखा था।
दिसंबर की एक सर्द रात। घड़ी में एक बज रहा था। शेषन के पंडारा रोड वाले घर के बाहर एक सफ़ेद एम्बेसडर कार रुकी। उससे उतरे केंद्रीय मंत्री सुब्रमण्यन स्वामी अपनी पत्नी रोक्साना साथ। स्वामी और शेषन का रिश्ता पुराना था। 60 के दशक में जब शेषन हार्वर्ड में पढ़ते थे, तब स्वामी उनके टीचर हुआ करते थे। हालांकि, उम्र में छोटे थे। स्वामी को जब भी दक्षिण भारतीय खाने की तलब लगती, वह सीधे शेषन के फ़्लैट पर पहुंच जाते, दही-चावल और अचार खाने।
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उस रात स्वामी दही-चावल खाने नहीं आए थे। वह प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के दूत बनकर आए थे। आते ही उन्होंने प्रधानमंत्री का संदेश दिया, 'क्या आप भारत के अगले मुख्य चुनाव आयुक्त बनना पसंद करेंगे?' शेषन ज़्यादा उत्साहित नहीं हुए। कुछ दिन पहले कैबिनेट सचिव विनोद पांडे भी यही ऑफ़र दे चुके थे और शेषन ने मज़ाक में कहा था, 'विनोद, तुम पागल हो गए हो क्या?'लेकिन इस बार बात गंभीर थी। शेषन ने सोचने के लिए अगली शाम 6 बजे तक का वक़्त मांगा।
सलाह-मशविरे का दौर शुरू हुआ। उसी रात, करीब ढाई बजे, शेषन 10 जनपथ पर थे। विपक्ष के नेता राजीव गांधी के सामने। राजीव उन्हें अच्छी तरह जानते थे। शेषन को देखते ही उन्होंने आवाज़ लगाई, 'The fat fellow is here, Will you give us some chocolates?' वह मोटा आदमी यहां है। क्या हमें कुछ चॉकलेट मिलेंगी? चॉकलेट दोनों की कमज़ोरी थी।
शेषन ने उन्हें पूरी बात बताई। राजीव ने मुस्कुराते हुए कहा, 'तुम्हें यह काम ले लेना चाहिए लेकिन वह दाढ़ी वाला चंद्रशेखर तुम्हें नियुक्त करने के अपने फ़ैसले पर बहुत पछताएगा।' अगली सुबह शेषन राष्ट्रपति आर वेंकटरमन के पास पहुंचे। उनकी सलाह भी राजीव जैसी ही थी, अगर कोई और रास्ता न हो, तभी यह पद लेना।
दो बड़े नेताओं से हरी झंडी नहीं मिली थी। शेषन का मन उलझन में था। उन्होंने आख़िरी दरवाज़ा खटखटाया। कांची के शंकराचार्य का। एक दोस्त के ज़रिए संदेश भेजा गया। वहां से जवाब आया- यह एक बहुत सम्मानजनक पद है। इसे ले लेना चाहिए। गुरु का आशीर्वाद मिल चुका था। शेषन ने शाम 6 बजे से पहले ही स्वामी को फोन किया और अपनी हां कह दी। 10 दिसंबर, 1990 को आदेश जारी हुआ। टी. एन. शेषन भारत के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए। सरकार ने एक ख़ाली पद भरा था। नेताओं ने सोचा कि एक और 'हां में हां' मिलाने वाला 'बाबू' आ गया है। उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि उन्होंने ग़लती से बारूद के एक ढेर पर चिंगारी रख दी है।
'मैं नाश्ते में राजनेताओं को खाता हूं'
टी.एन. शेषन ने भारत के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभाल लिया था लेकिन जिस संस्था के वह मुखिया बने थे, उसकी हालत क्या थी? शेषन ने बाद में एक इंटरव्यू में बताया था कि चुनाव आयोग की हैसियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके एक पूर्ववर्ती को एक किताब ख़रीदने के लिए सरकार से 30 रुपये की मंज़ूरी मांगनी पड़ी थी। चुनाव आयोग सरकार की एक छोटी-मोटी शाखा बनकर रह गया था। शेषन इसे बदलने वाले थे और शुरुआत पहले ही दिन से हो गई।
जब शेषन पहली बार 'निर्वाचन सदन' के अपने दफ़्तर में घुसे तो उन्होंने चारों तरफ़ देखा। दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरें और कैलेंडर लगे हुए थे। ख़ुद शेषन बहुत धार्मिक इंसान थे। हर रोज़ पूजा-पाठ करते थे लेकिन उन्होंने अपने सेक्रेटरी को बुलाया और पहला हुक्म दिया- 'दफ़्तर की दीवारों से ये सारी तस्वीरें और कैलेंडर हटा दो।' सेक्रेटरी हैरान। शेषन ने समझाया, 'चुनाव आयोग का कोई धर्म नहीं होता। इसका एकमात्र धर्म है भारत का संविधान।'
दूसरा संदेश कुछ ही दिनों बाद आया। शेषन की नज़र चुनाव आयोग के आधिकारिक लेटरहेड्स पर पड़ी। उस पर लिखा था- ‘इलेक्शन कमीशन, भारत सरकार’- उन्होंने तुरंत आदेश दिया, ‘इन लिफ़ाफ़ों से 'गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया' शब्द हटाओ। बाद में प्रसार भारती को दिए एक इंटरव्यू में शेषन ने कहा, ‘मैं भारत सरकार का नहीं भारत का इलेक्शन कमिश्नर हूं।’ शेषन के इन कदमों के बाद दिल्ली में एक ही चर्चा थी- यह नया चुनाव आयुक्त चाहता क्या है? पत्रकारों ने उनके सख़्त रवैये पर सवाल उठाए। एक पत्रकार ने पूछा, 'आप हर समय कोड़े का इस्तेमाल क्यों करना चाहते हैं?' शेषन ने जवाब में कहा, ‘मैं वही कर रहा हूं जो क़ानून मुझसे करवाना चाहता है। अगर आपको क़ानून नहीं पसंद तो उसे बदल दीजिए।’
जल्द ही शेषन की छवि एक बेखौफ़, अड़ियल और किसी की न सुनने वाले अफ़सर की बन गई। इन्हीं दिनों उनका एक एक जुमला भी मशहूर हुआ, 'I eat politicians for breakfast।' मैं नेताओं को नाश्ते में खाता हूं- और ये सिर्फ़ बातें नहीं थीं। इसका सबसे बड़ा सबूत तब मिला जब उनकी सीधी टक्कर क़ानून मंत्रालय से हुई। तत्कालीन विधि राज्य मंत्री, रंगराजन कुमारमंगलम ने इटावा उपचुनाव को टालने के लिए शेषन पर दबाव बनाने की कोशिश की। शेषन ने सीधा फ़ोन लगाया प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को और कहा, ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, आपके मंत्री ने मेरे काम में दख़ल दिया है। यह असंवैधानिक है, मैं चाहता हूं कि आपका मंत्रालय इसके लिए लिखित में माफ़ी मांगे।’
प्रधानमंत्री दफ़्तर में हड़कंप मच गया। एक अफ़सर एक मंत्री से माफ़ी मंगवा रहा था लेकिन शेषन अपनी बात पर अड़े थे। उसी दिन, विधि मंत्रालय के एक जॉइंट सेक्रेटरी को विधि सचिव की तरफ़ से एक चिट्ठी लेकर निर्वाचन सदन आना पड़ा। उस चिट्ठी में चुनाव आयोग के काम में दख़ल देने के लिए 'खेद' जताया गया था। यह एक अभूतपूर्व घटना थी। दिल्ली को संदेश मिल चुका था। यह 'बाबू' किसी से डरने वाला नहीं है।
उनका यह सख़्त रवैया सिर्फ़ नेताओं के लिए नहीं था। वह अफ़सरों को भी नहीं बख्शते थे। IAS अधिकारियों को उन्होंने 'पॉलिश की हुई कॉल गर्ल्स' तक कह डाला था, क्योंकि वह नेताओं और मंत्रियों के सामने झुक जाते हैं। एक बार उन्हें मसूरी की IAS एकेडमी में नए अफ़सरों को संबोधित करने के लिए बुलाया गया। शेषन पोडियम पर गए। सामने देश के भविष्य के कलेक्टर और सचिव बैठे थे। शेषन ने अपना भाषण एक लाइन से शुरू किया, ‘आपसे ज़्यादा तो एक पान वाला कमाता है।’
शेषन ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘अगर आप लोग इस सर्विस में पैसा कमाने आए हैं, तो आपने बहुत बड़ी ग़लती की है। आपकी असली कमाई यह पैसा नहीं है। आपकी असली कमाई है वह ताक़त जो इस देश का संविधान आपको देता है।’ यह बेबाकी एकेडमी के प्रशासन को इतनी नागवार गुज़री कि उस दिन के बाद उन्हें दोबारा कभी वहां लेक्चर देने के लिए नहीं बुलाया गया। इलेक्शन कमिश्नर बनने के कुछ ही समय में शेषन ने अपनी ज़मीन तैयार कर ली थी। उन्होंने सबको बता दिया था कि खेल के नियम बदल चुके हैं। अब वह एक ऐसी लड़ाई लड़ने जा रहे थे, जो भारत में चुनावों का चेहरा हमेशा के लिए बदलने वाली थी।
जब सिस्टम से हुई सीधी टक्कर
शेषन ने अपनी ताक़त और इरादे साफ़ कर दिए थे लेकिन अब वक़्त था असली लड़ाई का। यह लड़ाई थी चुनाव में पैसे, बाहुबल और फ़र्ज़ीवाड़े के ख़िलाफ़। उनका अपना पहला हथियार बनाया- Voter ID Card। उस दौर में फ़र्ज़ी वोटिंग, जिसे 'bogus voting' कहते हैं, एक आम बात थी। एक ही आदमी दस जगह वोट डाल आता था। बूथ कैप्चरिंग होती थी। शेषन ने इसका एक ही इलाज निकाला- फ़ोटो वाला पहचान पत्र। ऐलान होते ही देश की राजनीति में भूचाल आ गया। हर पार्टी के नेताओं ने इसका विरोध शुरू कर दिया। तर्क दिया गया कि भारत जैसे ग़रीब देश में यह बहुत खर्चीला काम है। यह हो ही नहीं सकता। पश्चिम बंगाल की ज्योति बसु सरकार ने इसका सबसे ज़्यादा विरोध किया।
शेषन डटे रहे। उन्होंने एक अल्टीमेटम जारी किया, ‘अगर 31 दिसंबर 1994 तक वोटर आईडी कार्ड नहीं बनाए गए, तो 1 जनवरी 1995 के बाद, मैं भारत में कोई चुनाव नहीं होने दूंगा।’ यह एक अभूतपूर्व घोषणा थी। एक अफ़सर देश की पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को रोकने की धमकी दे रहा था लेकिन यह तो सिर्फ़ एक मोर्चा था। शेषन को पता था कि असली दिक़्क़त कहीं और है। सरकारें चुनाव आयोग को स्वतंत्र रूप से काम करने नहीं दे रही थीं। निष्पक्ष चुनाव के लिए न तो पूरी सुरक्षा मिलती थी, न ही स्वतंत्र स्टाफ़।
2 अगस्त 1993। शेषन ने देश में होने वाले सभी चुनावों और उपचुनावों को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया। कहा, 'जब तक सरकार चुनाव आयोग को उसकी संवैधानिक ताक़त और स्वतंत्र स्टाफ़ नहीं देती, तब तक कोई वोट नहीं पड़ेगा।' आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और चुनाव आयोग के पास वह ताक़त आई, जो शेषन के बाद के दिनों में उसकी पहचान बनी। मुख्य चुनाव आयुक्त रहते हुए शेषन अपने कठोर फैसलों के लिए जाने गए।
राज्यपाल को देना पड़ा इस्तीफा
1993 में हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल गुलशेर अहमद पर आरोप लगा कि वह अपने बेटे के लिए चुनाव प्रचार कर रहे हैं। यह नियमों का उल्लंघन था। मामला शेषन तक पहुंचा। उन्होंने जांच की और राज्यपाल को दोषी पाया। शेषन ने सरकार को अल्टीमेटम दे दिया या तो राज्यपाल इस्तीफ़ा दें या उस राज्य का चुनाव रद्द कर दिया जाएगा। अंत में, राज्यपाल गुलशेर अहमद को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा।
जब शेषन ने पश्चिम बंगाल में राज्यसभा चुनाव स्थगित किए, तो इसका नतीजा यह हुआ कि कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी की राज्यसभा सदस्यता ख़त्म हो गई और उन्हें केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इस बात से बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर शेषन को 'पागल कुत्ता' कह डाला। शेषन के काम करने का तरीक़ा सबसे ज़्यादा दिखा बिहार में। 90 के दशक में बिहार में चुनाव का मतलब था- हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और धांधली। 1995 में विधानसभा चुनाव होने थे। शेषन ने बिहार को अपनी प्रयोगशाला बना लिया। उन्होंने चुनाव की तारीख़ एक बार नहीं, चार बार बदली ताकि सुरक्षा बलों की तैनाती ठीक से हो सके। उन्होंने बिहार के इतिहास में पहली बार चुनाव चार चरणों में करवाया। यह उस समय तक का बिहार का सबसे लंबा चुनाव था।
ऐसे कई उदाहरण हैं।
1993- उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव,- मऊ ज़िले की घोसी सीट। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता थे कल्पनाथ राय भाषण दे रहे थे। मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट शाम 5 बजे से लागू होना था लेकिन मंत्रीजी ने 5 बजे के बाद भी भाषण देना जारी रखा। यह खबर शेषन तक पहुंची। शेषन ने तुरंत ज़िलाधिकारी को फ़ोन मिलाकर भाषण रुकवाने को कहा। कुछ मिनट बाद शेषन ने दोबारा फ़ोन किया- 'भाषण रुका?' ज़िलाधिकारी ने बहाना बनाया, 'सर, कोशिश कर रहे हैं। भीड़ बहुत है।' शेषन समझ गए कि यह अधिकारी डर रहा है। वह फ़ोन पर गरजे, 'अगर तुम्हारी हिम्मत नहीं है, तो मैं अभी सेंट्रल फ़ोर्स भेजता हूं। वह तुम्हें और मंत्री जी, दोनों को मंच से उठाकर नीचे फेंक देगी और यह भी सुन लो, अगर मेरा आदेश नहीं माना गया तो मैं इस पूरी सीट का चुनाव रद्द कर दूंगा और तुम्हारी नौकरी तो जाएगी, वह अलग।'
अब ज़िलाधिकारी के पास कोई रास्ता नहीं बचा था। वह स्थानीय पुलिस बल के साथ मंच की तरफ़ भागा और बीच भाषण में अधिकारियों ने कल्पनाथ राय के हाथ से माइक छीन लिया और उसे बंद कर दिया। पूरे देश में यह ख़बर आग की तरह फैल गई। इतिहास में पहली बार, आचार संहिता तोड़ने पर किसी केंद्रीय मंत्री के ख़िलाफ़ ऐसी कार्रवाई हुई थी। शेषन ने एक लाइन खींच दी थी। नियम सबके लिए बराबर है- चाहे वह आम आदमी हो या केंद्र सरकार का मंत्री। शेषन का यह सख्ती सिर्फ़ नेताओं पर ही लागू नहीं होती थी। अधिकारियों पर भी जमकर बरसते थे। 1993 के उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान उनकी सख़्ती को देखते हुए एक रिटर्निंग ऑफिसर ने टिप्पणी की थी, 'We are at the mercy of a merciless man' यानी हम एक दयाहीन इंसान की दया पर निर्भर हैं।
सरकार से टकराव
शेषन के अड़ियल और कठोर रवैये के चलते वह सरकार की आँख में चुभने लगे थे। अक्टूबर 1993 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार एक अध्यादेश लेकर आई। चुनाव आयोग को एक सदस्यीय से तीन सदस्यीय बना दिया गया। M.S. गिल और G.V.G. कृष्णमूर्ति को नए चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्त कर दिया गया।
सरकार का तर्क था - चुनाव आयोग पर काम का बोझ बहुत ज़्यादा बढ़ गया है इसलिए, हम मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन का बोझ कम करने के लिए दो और आयुक्तों की नियुक्ति कर रहे हैं।
पत्रकारों ने शेषन से जब सरकार के इस तर्क के बाबत सवाल पूछा तो सेशन ने जवाब दिया- ‘मेरा काम का बोझ? वह तो बस सुबह 10 मिनट और शाम को 3 मिनट का है। बाक़ी समय तो मैं क्रॉसवर्ड पहेली हल करता हूं।’ शेषन और दो नए आयुक्तों के बीच कभी नहीं बनी। जब शेषन एक बार विदेश गए, तो उन्होंने अपना चार्ज अपने से वरिष्ठ दो नए आयुक्तों को देने के बजाय, एक जूनियर उपचुनाव आयुक्त डी. एस. बग्गा को सौंप दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। अदालत ने अंत में तीन सदस्यीय आयोग को मान्यता दी। सरकार ने शेषन के पर कतर दिए थे लेकिन तब तक, शेषन अपना काम कर चुके थे। उन्होंने एक सोई हुई संस्था को जगाकर देश की सबसे ताक़तवर संस्था बना दिया था।
टी. एन. शेषन। 1990 से 1996 तक, पूरे छह साल तक भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे। आज़ाद भारत के इतिहास में वह पहले CEC थे जिन्होंने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया। 1996 में उन्हें प्रतिष्ठित रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। रिटायरमेंट के बाद वह ख़ुद चुनावी मैदान में उतरे। 1997 में उन्होंने भारत के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें के.आर. नारायणन के हाथों हार का सामना करना पड़ा।
दो साल बाद, 1999 में कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा का टिकट दिया। गांधीनगर से। सामने थे भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता, लाल कृष्ण आडवाणी। हालांकि, नतीजा वही रहा। शेषन यह चुनाव भी हार गए। इसके बाद वह सार्वजनिक जीवन से धीरे-धीरे दूर हो गए। 10 नवंबर, 2019 को चेन्नई में अपने घर पर टी.एन. शेषन का निधन हो गया। वह 86 वर्ष के थे। उनके निधन पर एक और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त, H.S. Brahma ने कहा, '60 के दशक से लेकर 80 के दशक तक, चुनाव आयोग 'राम-भरोसे' चल रहा था। शेषन पहले CEC थे जिन्होंने वास्तव में आदर्श आचार संहिता और क़ानून के शासन को लागू किया।'
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