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मखाना पर सियासत भी, वादा भी, इरादा भी, फिर किसान परेशान क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्णिया दौरे पर हैं। वह राष्ट्रीय मखाना बोर्ड का उद्घाटन करने वाले हैं। मखाना किसानों पर सियासत हो रही है, काम कब होगा, पूरी कहानी।

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मखाना किसानों के साथ कांग्रेस नेता राहुल गांधी।। Photo Credit: PTI

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी, मखाना किसानों के हितों की बात हर कोई कर रहा है। बिहार कृषि प्रधान राज्य है, धान-गेंहू खूब उगाया जाता है लेकिन चर्चा सिर्फ मखाना किसानों की हो रही है। बिहार के मिथिला मखाना को जियोग्राफ़िकल इंडिकेशंस टैग भी हासिल हो चुका है। देश का 90 फीसदी मखाना, बिहार में ही पैदा होता है। मिथिलांचल के मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, सीतामढ़ी, अररिया, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज मखाने की खेती के लिए दुनियाभर में मशहूर हो रहे हैं। 


भारत अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा तक को मखाना बेचता है। भारत से हर साल करीब 600 टन मखाना निर्यात किया जाता है। केंद्रीय बजट 2025 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान किया था कि राष्ट्रीय मखाना बोर्ड बनाया जाएगा। बोर्ड बनन से किसानों तक नई तकनीक पहुंचेगी। फसल का प्रबंधन मजबूत होगा, मूल्य बढ़ेगा, मखाना के प्रसंस्करण पर काम होगा, जिसका सीधा लाभ, मखाना किसानों को मिलेगा। 

राष्ट्रीय मखाना बोर्ड का काम,बाजार, निर्यात और ब्रांड के विकास की सुविधा को दुरुस्त करना होगा। मखाना, मिथिलांचल की पहचान है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्णिया दौरे पर हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी, वोटर अधिकार यात्रा के दौरान मखाना किसानों से मिल चुके हैं, उनका दर्द जान चुके हैं। मखाना किसानों का सबसे बड़ा दुख यह है कि उन्हें मखाना उगाने के पैसे कम मिलते हैं, बिचौलिए बड़ा हिस्सा खा जाते हैं, कंपनियां कई गुना दाम पर मखाना बेचती हैं।

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मखाना किसानों का दुख क्या है?

राहुल गांधी, नेता विपक्ष, लोकसभा:-
बिहार दुनिया का 90 फीसदी मखाना उगाता है, मगर दिन-रात धूप-पानी में मेहनत करने वाले किसान-मजदूर मुनाफे का 1 प्रतिशत भी नहीं कमाते हैं। बड़े शहरों में 1000-2000 रुपए किलो बिकता है, मगर इन मेहनतकशों, पूरे उद्योग की नींव को, नाम मात्र का दाम मिलता है।  कौन हैं ये किसान-मजदूर? अतिपिछड़े, दलित, बहुजन। पूरी मेहनत इन 99 फीसदी बहुजनों की और फायदा यदा सिर्फ 1 प्रतिशत बिचौलियों का।

 

मखाना किसानों के साथ कांग्रेस नेता राहुल गांधी। (Photo Credit: RahulGandhi/X)

मखाना किसानों का यह दर्द काफी हद तक जायज है। मखाना किसानों को नहीं, बिचौलिए और कंपनियां, मखाना बेचकर किसानों से ज्यादा मुनाफा कमाती हैं। मखाने की खेती, मेहनत की खेती है, किसानों को उस तरह से लाभ नहीं मिलता है।  मिथिलांचल में मखाना की खेती वैज्ञानिक तरीक से होती है। बासुदेवपुर में साल 2002 में राष्ट्रीय मखाना शोध केंद्र है। बिहार में 120000 टन बीज मखाने का उत्पादन किया जाता है, जिससे 40,000 टन मखाने का लावा तैयार होता है। बेहतर उत्पादन के बाद भी किसानों की चुनौतियां कम नहीं हैं। 

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कैसे आप तक पहुंचता है मखाना?

  • मखाने की खेती तालाब में होती है। निचले खेते में भी मखाने की खेती की जा सकती है, जहां सालभर पानी लगा रहता हो। पहले पानी में मखाने के बीज डालते हैं, अंकुरण के बाद उन्हें रोपा जाता है। किसी भी जमीन पर, जहां 6 से 9 इंच तक पानी जमा हो सके, मखाना लगाया जा सकता है।

  • मखाने की खेती मार्च से अप्रैल के बीच में होता है। तालाब में इनके बीज बो दिए जाते हैं। करीब 4-5 महीने में पौधे बढ़ते हैं और फल तैयार होते हैं। फल तोड़कर बीज निकाले जाते हैं, जिन्हें सुखाकर मखाना बनाया जाता है। मखाने की खेती में खूब देखभाल करनी पड़ती है। कुछ लोग मखाने वाले तालाबों में मछली भी पालते हैं।  

  • मखाने के पेडो़ं में पानी में गहरे उतरकर किसान बीज निकालते हैं। मखाने के तालाब में उतरने वाले किसान कई जोखिम का सामना करते हैं। कांटे चुभते हैं, जोंक काटने का डर बना रहता है। मखाना का गुरिया कुछ जगहों पर 100 रुपये प्रति किलो बिकता है, कहीं 200 रुपये प्रति किलो। अगर अच्छी तरह तैयार है तो 250 रुपय प्रति किलो तक दाम लग जाता है। 

  • मखाने की प्रॉसेसिंग होती है। बीजों को धूप में सुखाया जाता है। इन्हें छांटा जाता है, एक तरह की आकार वाले बीज एक जगह पर रखे जाते हैं। चूल्हे पर लोहे के बर्तनों में उन्हें भरा जाता है। 3 किलो बीज से एक किलो मखाना बनता है। मखाना के लावा निकालने के लिए भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। मखाने की कीमत बाजारों में 900 रुपये प्रति किलो से लेकर 1500 रुपये प्रति किलो तक हो सकता है।

किन मुश्किलों से जूझते हैं किसान?

  • मखाने का फल कांटों और छिलकों से घिरा होता है, जिससे इसे निकालना और जुटाना कठिन होता है।
  • पानी से मखाना निकालते समय 20-25% मखाना छूट जाता है, छिलका उतारते समय भी इतना ही नुकसान होता है।
  • मखाना खेती पानी में होती है, किसानों को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें भी होने लगती हैं।
  • गहरे तालाबों में डूबने का डर रहता है, किसानों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की भी मांग होती है।
  • बीज जुटाने के लिए बार-बार गोता लगाना पड़ता है, मखाने की मजदूरी, कृषकों पर भारी पड़ती है। 

समस्या क्या है?

किसानों के पास मखाना रखने के लिए गोदाम नहीं हैं। यह मथिलांचल की समस्या है। जिन लोगों के पास स्टॉक ज्यादा स्टोर करने का विकल्प होता है, वे ही दाम तय कर पाते हैं। कुछ ठेकेदार और व्यापारी हैं, जिनके गोदाम में 20  से 30 हजार किलो मखाना आ जाता है। वे मखाना के लिए एमएसपी का विरोध करते हैं, उनका तर्क है कि अगर मखाना के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हुआ तो इससे बाजार प्रभावित होगा।

मखाना किसान। (AI Image। Photo Credit: Sora)

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मखाना किसान चाहते क्या हैं?

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य
  • मखाना बोर्ड की स्थापना
  • बिचौलियों से मुक्ति
  • सब्सिडी और वित्तीय सहायता
  • प्रशिक्षण और तकनीकी सहयोग
  • बेहतर भंडारण और प्रसंस्करण सुविधाएं
  • फसलों का बीमा कवर
  • जल प्रबंधन और सिंचाई सुविधाएं
  • जैविक खेती के लिए सरकारी मदद

बिहार के किसानों के लिए दिल्ली दूर है

सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे (SAS) और नेशनल स्टैटिकल ऑफिस (NSO) के आंकड़े बताते हैं भारतीय किसानों की कुल कमाई में बिहार निचले पांवदान पर खड़ा है। मेघालय के बाद सबसे ज्यादा कमाई पंजाब के किसान करते हैं। ऐसा नहीं है कि पंजाब की जमीन बेहद उपजाऊ है, बिहार में भी जमीनें बेहद उपजाऊ हैं, पंजाब का क्षेत्रफल सिर्फ 50,362 वर्ग किलोमीटर है, वहीं बिहार का क्षेत्रफल 94,163 वर्ग किलोमीटर है। बिहार ने APMC अधिनियम को साल 2006 में ही खत्म कर दिया था। बिहार में निजी क्रेता,सीधे किसानों से फसलें खरीदते हैं। बिहार में पंजाब की तरह मंडियां नहीं हैं। किसानों को अगर बाजार तक सीधी पहुंच मिले तो उनकी दशा सुधर सकती है। किसान, दिल्ली तक सीधी पहुंच चाहते हैं। 

किसानों के साथ धोखा कब होता है?

बिहार के बाजारों से उठा मखाना, देश के अलग-अलग राज्यों में जाता है। बिहार से बाहर के राज्यों में उसी मखाने में फ्लेवर एड करके, बेहतर पैकेजिंग करके, बिहार को ही मखाना बेचा जाता है। किसानों के पास से मखाना कम दाम में खरीदा जाता है, आम आदमी जब मखाना खरीदता है तो उसे ज्यादा खर्च करना पड़ता है। मखाना के खेतों में काम करने वाले मजदूरों को भी उचित मजदूरी नहीं मिलती है। 

मखाना के लिए क्या बेहतर किया जा सकता है?

  • शुरुआती स्तर पर आकार के हिसाब से उचित दाम मिले
  • लोगों को सस्ता कर्ज और स्टोरेज सुविधाएं मिले
  • बिचौलियों की निगरानी हो, उत्पाद के पारदर्शी रेट तय हों
  • ऑटोमैटिक पैकेजिंग मशीन कम्युनिटी स्तर पर लोगों को मुहैया कराए जाएं
  • बिहार के किसानों की पहुंच, दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों तक सीधी हो


राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र का काम क्या है?

राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र की माली हालत सुधारने की मांग अक्सर होती है। BBC ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि यह संस्थान सिर्फ 10 स्टाफ के सहारे चल रहा है।  एनआरसीएम, दरभंगा ने मई 2023 से, 2023-24 में 2.65 करोड़ और 2024-25 में 1.27 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इस केंद्र ने बिना कांटे वाले सिंघाड़ों के विकास के लिए खाम किया है। मखाना पॉपिंग और कई मशीनों को सुलभ बनाया है। 

मखाना बीज वॉशर, मखाना बीज ग्रेडर, मखाना बीज भूनने की मशीन, मखाना बीज पॉपिंग मशीन के लिए निर्माताओं को लाइसेंस भी दिया गया है। अब तक किसानों, कृषि विज्ञान केंद्रों और संगठनों को 15,824.1 किलोग्राम उपज वाले मखाना के बीज भी संस्थान की ओर से बांटे गए हैं। साल 2012 से 2023 के बीच, एनआरसीएम ने 3,000 से ज्यादा किसानों को मखाना की उन्नत खेती, प्रसंस्करण और विपणन तकनीकों पर प्रशिक्षण दिया है। इसे और आधुनिक बनाने की मांग समय-समय पर उठती रहती है।

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मखाना बोर्ड से होगा क्या, सरकार के तर्क क्या हैं?

केंद्र और राज्य सरकार का कहना है कि मखाना बोर्ड से बिहार की तस्वीर बदल सकती है-

  • मखाना की खेती को बढ़ावा मिल सकता है
  • आधुनिक मशीनरी और बीज उपलब्धता से उत्पादन बढ़ सकता है
  • किसानों को सही दाम, क्रेडिट कार्ड और फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन मिल सकता है
  • 50,000 से ज्यादा किसानों की आय दोगुनी हो सकती है
  • प्रसंस्करण संयंत्रों पर सरकार ध्यान देगी, मखाना की पैकेजिंग दुरुस्त होगी
  • किसानों को वैल्यू चेन में उचित हिस्सेदारी मिलेगी, बोर्ड उन्हें बेहतर मंच दे सकता है
  • ब्रांडिंग और वैश्विक बाजार तक पहुंच बढ़ेगी
  • मखाना का वैश्विक व्यापार 5,000 करोड़ रुपये का है, यह और बढ़ सकता है
  • उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों को भी फायदा मिल सकता है
  • लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा
  • इंफ्रास्ट्रक्चर, एयरपोर्ट और व्यापार पर सरकार ध्यान सकेगी 

मखाने का कारोबार कितना बड़ा है?

मखाना, पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो रहा है। मखाना को हार्मोनाइज्ड सिस्टम कोड भी अब मिल गया है। यह एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त नुमेरिकल कोड प्रणाली है। इसे वर्ल्ड कस्टम ऑर्गेनाइजेशन ने विकसित किया है। मखाना उद्योग का कारोबार बीते 10 वर्षों में तेजी से बढ़ा है। अब इसका कारोबार 5000 करोड़ से ज्यादा हो गया है। बिहार में करीब 35000 हेक्टेयर जमीन पर मखाने की खेती होती है। अब मखाने का उत्पादन 56,000 टन से ज्यादा हो गया है। बिहार सरकार एक'मखाना विकास योजना' भी चलाती है। मखाना को अब हेल्दी स्नैक्स के तौर पर लोग पहचान रहे हैं। इसे सुपरफूड का भी दर्जा मिल गया है। दुनिया से 50 से ज्यादा देशों में मखाने का निर्यात होता है। 

 

देश के चर्चित बोर्ड कौन से हैं?

  • टी बोर्ड, 1954
  • कॉफी बोर्ड, 1942
  • रबर बोर्ड, 1947
  • स्पाइसेस बोर्ड, 1987
  • टोबैको बोर्ड, 1976
  • नारियल विकास बोर्ड

जिन फसलों के लिए अलग से बोर्ड है, उनका हाल क्या है?

भारत में चाय, रबर, प्याज, मसाला, तंबाकू, गन्ना और जूट जैसी फसलों के लिए अलग बोर्ड है। प्याज से लेकर गन्ना तक के लिए अलग बोर्ड है, फिर भी किसान आए दिन परेशान रहते हैं। किसान बिचौलियो से परेशान हैं। अपनी फसलों के सही दाम न मिलने का मुद्दा किसान उठाते रहते हैं। 

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