1990 का दशक, बिहार में एक नारा गूंज रहा था- 'भूरा बाल साफ़ करो'। यह नारा लालू प्रसाद यादव का था। 'भू' से भूमिहार, 'रा' से राजपूत, 'बा' से ब्राह्मण और 'ल' से लाला, यानी कायस्थ। ये वे चार सवर्ण जातियां थीं, जिनका बिहार पर दशकों से दबदबा था, सत्ता पर भी और ज़मीन पर भी। लालू का M-Y समीकरण, यानी मुस्लिम-यादव गठबंधन, इस पुरानी सत्ता को सीधी चुनौती दे रहा था। इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा नुक़सान उस समुदाय को हुआ, जिसकी ताक़त बंदूक या जमीन में नहीं बल्कि कलम और दिमाग में थी। वह समुदाय था - कायस्थ।

 

इसी समुदाय ने देश को पहला राष्ट्रपति दिया, प्रधानमंत्री दिया और आजादी के बाद बिहार को पहला उप-मुख्यमंत्री दिया लेकिन आज वही कायस्थ बिहार की सियासत में हाशिए पर है। यह कैसे हुआ? किसने कलम के इन सिपाहियों को सत्ता से बाहर कर दिया और जो समुदाय कभी बिहार का 'भद्रलोक' कहलाता था, वह आज 'मूक दर्शक' क्यों बन गया है? आज हम जानेंगे बिहार के कायस्थों की कहानी। कलम से सत्ता तक और फिर सियासत में गुमनामी तक।

 

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कलम के कारीगर

 

पुराणों में एक कथा आती है। जब ब्रह्मा ने दुनिया बना ली तो यमराज ने उन से शिकायत की। कहा, 'प्रभु, मैं अकेला इतने सारे इंसानों के कर्मों का हिसाब कैसे रखूंगा? मेरी मदद के लिए कोई चाहिए।' ब्रह्मा ध्यान में चले गए। जब उनकी आंखें खुलीं तो उन्होंने अपने सामने एक दिव्य पुरुष को खड़ा पाया। उनके हाथ में कलम और दवात थी। ब्रह्मा ने कहा, 'तुम मेरी काया से जन्मे हो इसलिए आज से तुम कायस्थ कहलाओगे।' उनका नाम रखा गया चित्रगुप्त और उन्हें काम सौंपा गया इंसानों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने का।

 

पौराणिक कहानियों से इतर इतिहास पर आएं तो इतिहास में कायस्थ एक पढ़े-लिखे तबके के तौर पर उभरे, जो लिखने-पढ़ने और हिसाब-किताब में माहिर थे। गुप्त काल के पुराने शिलालेखों पर भी 'कायस्थ' शब्द एक बड़े पद, 'प्रथम-कायस्थ' यानी मुख्य अधिकारी के लिए मिलता है। कायस्थों की सबसे बड़ी ताकत भाषा पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी।

 

 

जब तुर्क और मुगल भारत आए तो राजकाज की भाषा फ़ारसी हो गई। कायस्थों ने बड़ी फुर्ती से फ़ारसी सीख ली और बादशाहों के 'मुंशी', 'क़ानूनगो' और दीवान बन गए। भारतीय पॉलिटिक्स पर कई किताबें लिखने वाले अमेरिकी राजनीतिशास्त्री पॉल ब्रास (Paul Brass) अपनी किताब 'Language, Religion and Politics in North India' में 1840 के दशक का एक दिलचस्प आंकड़ा देते हैं। आगरा के स्कूलों में जहां दूसरे हिन्दू छात्र हिंदी पढ़ रहे थे, वहीं कायस्थ छात्र लगभग पूरी तरह से फ़ारसी चुन रहे थे। एक समुदाय के उत्थान में भाषा के रोल का यह दिलचस्प उदाहरण है।

 

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कायस्थ समुदाय की कलम सिर्फ़ फ़ारसी तक ही नहीं रुकी। मुग़ल काल से लेकर ब्रिटिश राज तक, उत्तर भारत के प्रशासनिक कामकाज की एक और अहम लिपि थी - कैथी, जिसे कायथी या कायस्थी भी कहा जाता था। यह देवनागरी, फ़ारसी और स्थानीय बोलियों का एक मिला-जुला, तेज़ गति से लिखा जाने वाला रूप थी। रोज़ के हिसाब-किताब, चिट्ठी-पत्री और सरकारी काम इसी में होते थे। 1950 के दशक तक बिहार की अदालतों में इस लिपि का इस्तेमाल होता था। आज भी बिहार की अदालतों में पुराने ज़मीनी दस्तावेज़ कैथी में ही मिलते हैं, जिन्हें पढ़ने के लिए माहिर लोगों की ज़रूरत पड़ती है। इस लिपि पर पकड़ ने कायस्थों को प्रशासन और क़ानून की दुनिया का एक अहम हिस्सा बना दिया।

 

अकबर के नवरत्नों में से एक, राजा टोडरमल भी कायस्थ थे। जिन्हें 'दहसाला बंदोबस्त' के लिए जाना जाता है। इससे पहले हर साल की फ़सल के हिसाब से लगान तय होता था। टोडरमल एक नया सिस्टम लेकर आए। इसमें पिछले 10 साल की औसत पैदावार और औसत बाज़ार भाव के आधार पर लगान नक़द में तय कर दिया गया। इससे किसान और सल्तनत, दोनों को पता होता था कि कितना लगान देना है और कितनी आमदनी होगी। इस पूरी विशाल व्यवस्था को चलाने की ज़िम्मेदारी कायस्थों के कंधों पर थी। उनकी सेवाओं से ख़ुश होकर बादशाह उन्हें जागीरें और ज़मींदारियां इनाम में देते थे। इस तरह वे प्रशासक के साथ-साथ एक ताकतवर ज़मींदार वर्ग भी बन गए।

 

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भारतीय समाज में किसी समुदाय की स्थिति को समझने के लिए उसकी आर्थिक स्थिति के साथ साथ वर्ण व्यवस्था में उनकी जगह को भी समझना जरूरी है। कायस्थ वर्ण व्यवस्था में, कहां आते थे? यह एक पेचीदा सवाल है। कई पुराणों, जैसे पद्म पुराण और भविष्य पुराण में चित्रगुप्त को ब्रह्मा का पुत्र बताकर उन्हें एक तरह से ब्राह्मणों के बराबर का दर्जा दिया गया है। वहीं, स्कन्द पुराण में एक कहानी है कि परशुराम जब क्षत्रियों का संहार कर रहे थे, तब राजा चंद्रसेन के गर्भवती पत्नी ने एक ऋषि के यहां शरण ली। ऋषि ने बच्चे को बचाने के लिए परशुराम से वचन लिया कि यह बालक और इसके वंशज शस्त्र नहीं, बल्कि कलम उठाएंगे। इस तरह उन्हें 'क्षत्रिय' भी माना गया लेकिन ऐसे क्षत्रिय जिनका धर्म लिखना-पढ़ना था।

 

ब्रिटिश काल में कायस्थों की पहचान का मुद्दा कई बार उठा। अलग-अलग अदालती मामलों में। कलकत्ता हाई कोर्ट ने बंगाली कायस्थों को शूद्र माना, वहीं संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) में उन्हें 'द्विज' यानी 'ट्वाइस-बॉर्न' का दर्जा दिया गया। इस पहचान में समय के साथ बदलाव आया। 19वीं सदी के अंत तक बिहार में कायस्थों ने अपनी शिक्षा और आर्थिक तरक्की के दम पर 'शूद्र' की श्रेणी से निकलकर 'अपर कास्ट' का दर्जा हासिल कर लिया था। 1901 की जनगणना में उन्हें द्विज यानी 'ट्वाइस-बॉर्न' जातियों में गिना गया। कुल मिलाकर पैदाइश से ज़्यादा उनकी पहचान उनके काम से थी और उनका हथियार थी कलम।

बिहार के नए भद्रलोक

 

इसी हथियार यानी कलम के बल पर कायस्थ समुदाय   ने बदलते वक्त के साथ ख़ुद को ढाला। 18वीं सदी में जब अंग्रेज़ आए तो ताक़त की भाषा बदल गई। अब अंग्रेज़ी का दौर था। कायस्थों ने यहां भी मौक़ा देखा और बच्चों को मिशनरी स्कूलों में भेजना शुरू कर दिया। जब ईस्ट इंडिया कंपनी को राज चलाने के लिए पढ़े-लिखे 'बाबू' चाहिए थे, तो कायस्थ पहले से तैयार बैठे थे। कचहरी में वकील और जज, कलेक्टरी में क्लर्क और अफ़सर, हर जगह कायस्थ थे। इंडियन सिविल सर्विस में भी उनकी संख्या उनकी आबादी के अनुपात में कहीं ज़्यादा थी। इतिहासकार बी.बी. मिश्रा अपनी किताब में लिखते हैं कि 19वीं सदी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी में 59 बड़े भारतीय अफ़सर भर्ती हुए, जिनमें से 25 कायस्थ थे।

 

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अंग्रेज़ी शिक्षा और शहरी रहन-सहन ने उन्हें बिहार का नया 'भद्रलोक' बना दिया। शहरों में वह प्रशासन की रीढ़ थे और गांवों में उनकी पुरानी ज़मींदारी चल रही थी। इसी पढ़े-लिखे तबके ने बिहार को डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा जैसे बड़े नाम दिए, जिन्होंने बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाने की मुहिम छेड़ी और 1946 में संविधान सभा की पहली बैठक की अध्यक्षता भी की।

सत्ता का सुनहरा दौर

 

आज़ादी मिली तो दिल्ली से लेकर पटना तक कायस्थों का दबदबा कायम रहा। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और दूसरे प्रधानमंत्री, लाल बहादुर शास्त्री, दोनों कायस्थ समुदाय से थे। बिहार में डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा राज्य के पहले उप-मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री बने। बाद में कृष्ण बल्लभ सहाय भी इसी समुदाय से बिहार के मुख्यमंत्री बने।
 
सियासत के अलावा अफ़सर शाही में कायस्थों का बोलबाला था। 1950 और 60 के दशक के एक सर्वे के अनुसार, बिहार की कुल कायस्थ आबादी का लगभग 6.7% हिस्सा सरकारी नौकरियों में था, जो ब्राह्मणों (3.6%) और राजपूतों (3.8%) से लगभग दोगुना था। कलेक्टर से लेकर बाबू तक, हर जगह उनकी पकड़ थी। पटना यूनिवर्सिटी तो कायस्थों का गढ़ मानी जाती थी। इसी दौर में एक और कायस्थ, जयप्रकाश नारायण यानी जेपी, देश की राजनीति के लिए एक नैतिक आवाज़ बनकर उभरे।

 

कायस्थों की सत्ता पर पकड़ ढीली होनी शुरू हुई 1950 के दशक में। पहला झटका था ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून। इसने सवर्ण ज़मींदारों की आर्थिक कमर तोड़ दी। हज़ारों एकड़ ज़मीन हाथ से गई और गांवों में पुराना रौब कमज़ोर पड़ गया। उसी वक्त बिहार में एक और लहर उठ रही थी: पिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना। इसकी नींव 1933 में ही 'त्रिवेणी संघ' के साथ पड़ गई थी, जो यादव, कुर्मी और कोइरी जातियों का संगठन था।

 

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इस चेतना को आवाज़ दी राम मनोहर लोहिया ने जिनका नारा 'पिछड़ा पावें सौ में साठ' गांव-गांव गूंजा। बिहार में इस आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बने कर्पूरी ठाकुर। जब वह मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने शिक्षा में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता खत्म कर दी। इस एक फ़ैसले ने गांव के ग़रीब और पिछड़ों के लिए कॉलेज और नौकरी के दरवाज़े खोल दिए। यह सीधा हमला उस सिस्टम पर था, जहां अच्छी नौकरियों पर सवर्णों का कब्ज़ा था।

 

साल 1967, बिहार की राजनीति में एक बड़ा तूफ़ान आया। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पहली बार हारी और पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, जिसके मुख्यमंत्री भी एक कायस्थ, महामाया प्रसाद सिन्हा थे। सरकार ज़्यादा दिन नहीं चली लेकिन इतिहास बना गई। इसी दौर में बिहार को अपना पहला पिछड़ा वर्ग का मुख्यमंत्री (बी.पी. मंडल) और पहला अनुसूचित जाति का मुख्यमंत्री (भोला पासवान शास्त्री) मिला। ये कार्यकाल भले ही बहुत छोटे थे लेकिन इन्होंने उस मिथक को तोड़ दिया कि बिहार पर हमेशा सवर्ण ही राज करेंगे। यह एक संकेत था। कि अब सत्ता की चाबी सिर्फ सवर्णों की जेब में नहीं रहेगी।

 

जेपी आंदोलन ने इस चिंगारी को और हवा दी। इसे लीड करने वाले जयप्रकाश नारायण ख़ुद कायस्थ थे लेकिन उनकी छांव में नेताओं की जो नई फ़ौज तैयार हो रही थी, वह ज़्यादातर पिछड़ी जातियों से थी: लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान। विडंबना देखिए, एक कायस्थ महापुरुष ही उन नेताओं को बड़ा कर रहा था, जो आगे चलकर सवर्ण सत्ता की चूलें हिलाने वाले थे।

मंडल, M-Y और सियासी बेदख़ली

 

1990 में वी. पी. सिंह सरकार ने मंडल कमीशन लागू कर दिया। सरकारी नौकरियों में 27% OBC आरक्षण कायस्थों की प्रशासनिक सत्ता पर सीधा प्रहार था। इसी उथल-पुथल के बीच लालू प्रसाद यादव का उदय हुआ। वह मंडल के मसीहा और सवर्ण सत्ता के सबसे बड़े दुश्मन बनकर उभरे। उन्होंने बिहार की सियासत का नया गणित लिखा: M-Y समीकरण। मुस्लिम-यादव। यह एक ऐसा जोड़ था, जिसे जीतने के लिए सवर्णों के वोट नहीं चाहिए थे। रातों-रात कायस्थ सियासी बिसात से बाहर हो गए।

 

सबसे ज़्यादा नुक़सान उन्हीं का हुआ। भूमिहारों और राजपूतों के पास ज़मीन की ताक़त थी, संख्या बल था। वह सौदेबाज़ी कर सकते थे लेकिन कायस्थ? वे तो शहरों में बसे पढ़े-लिखे लोग थे, जिनकी आबादी कम थी। वोटों के इस नए खेल में उनकी कोई गिनती नहीं थी। वह किसी पार्टी के लिए 'वोट बैंक' नहीं थे।

 

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यह सिर्फ़ राजनीतिक बदलाव नहीं था, यह एक कल्चरल तख़्तापलट था। वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी किताब 'The Brothers Bihari' में लिखते हैं कि 1995 में जब लालू चुनाव जीते, तो अपने सरकारी घर के लॉन में सड़क के गवैयों के साथ नाच रहे थे, खैनी खा रहे थे। पुराना संभ्रांत वर्ग यह देखकर घृणा से भर गया। उनकी प्रतिक्रिया थी- 'एक मुख्यमंत्री सड़क के गवैयों के साथ नाच रहा है! छी! कितना सस्तापन है।' यह दो दुनिया का टकराव था। इसका असर सिर्फ़ सचिवालय पर नहीं, समाज पर भी पड़ा। 1980 तक पटना में चित्रगुप्त पूजा कायस्थों की ताक़त का बड़ा प्रदर्शन होता था लेकिन लालू के दौर में ये बस एक निजी त्योहार बनकर रह गया। पटना यूनिवर्सिटी, जो कायस्थों का गढ़ थी, अब आरक्षण और नई ताक़तों का केंद्र बन रही थी। कलम के सिपाही अपने ही क़िलों में बेगाने हो रहे थे।


जब सियासत के दरवाज़े बंद हुए, तो कायस्थों ने दूसरा रास्ता पकड़ा। शिक्षा का। इस बार मंज़िल बिहार से बाहर थी। यह 'ब्रेन ड्रेन' का दौर था। बिहार जाति सर्वेक्षण 2023 के मुताबिक, आज बिहार में कायस्थ आबादी सिर्फ़ 0.60% है। नंबर्स के गेम में पिछड़ने का असर राजनीति पर भी पड़ा है।  

 

संकर्षण ठाकुर के शब्दों में बिहार की राजनीति में कायस्थ  'साइलेंट ऑनलुकर', यानी मूक दर्शक हैं। चुनावी राजनीति की बात करें तो एक या दो दशक पहले तक यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे कद्दावर चेहरे हुआ करते थे लेकिन आज बिहार में कायस्थों की एकमात्र मज़बूत सीट पटना साहिब मानी जाती है, जहां से रविशंकर प्रसाद जीतते हैं।

 

यह कहानी सिर्फ़ एक जाति की हार-जीत की नहीं है। यह उस बदलाव की कहानी है, जहां सियासत का बही-खाता ही बदल गया। सदियों तक, कायस्थों ने कलम से तक़दीरें लिखीं। मुग़लों के फ़रमान लिखे, अंग्रेज़ों के क़ानून लिखे और आज़ाद भारत के पहले पन्ने लिखे लेकिन फिर दौर बदला। सियासत अब हिसाब-किताब से नहीं, गिनती से चलने लगी और वोटों की इस गिनती में कलम के ये सिपाही कम पड़ गए।