आजादी से 10 बरस पहले की बात है। बिहार की राजधानी पटना स्थित सदाकत आश्रम में कांग्रेस नेताओं की बैठकी थी और सामने खड़ा था वह नेता जो देश का पहला राष्ट्रपति होने वाला था। नाम राजेंद्र प्रसाद। राजेंद्र प्रसाद गांधी का एक निर्देश सुनाने वाले थे। निर्देश यह कि बिहार प्रांत के प्रधानमंत्री पद के लिए अनुग्रह नारायण सिंह को चुना जाए। राजेंद्र प्रसाद ने बिहार कांग्रेस के नेताओं को गांधी की इच्छा बताई लेकिन विधायकों के एक गुट को यह बात रास नहीं आई। विरोध का स्वर उठा और उठा एक नाम। उस शख्स का नाम जो अनुग्रह नारायण का दोस्त था। वह नाम जो गांधी के कहे का अनुसरण करता था लेकिन सिर्फ नाम भर नहीं था। नाम के साथ था बिहार की राजनीति का एक तुरुप का इक्का। ऐसा इक्का जिसके बग़ैर बिहार और बिहार की राजनीति की बात पूरी नहीं होती। यानी कि कास्ट इक्वेशन। अनुग्रह राजपूत समुदाय से आते थे। दूसरे गुट ने जिस नेता का नाम आगे बढ़ाया, वह भूमिहार समुदाय से थे। ब्राह्मणों का सपोर्ट भी हासिल था। गांधी की बात पर जाति का यही समीकरण भारी पड़ गया और भूमिहार समुदाय से आने वाला वह नेता आजादी से पहले बिहार का प्रधानमंत्री बन गया और देश ने जब आजादी की सुबह देखी तो बिहार का मुख्यमंत्री और अपने आखिरी सांस तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा रहा।
भारत की तवारिख़ में आज़ादी के पहले दशक में बिहार में सिर्फ मुख्यमंत्री नहीं बन रहे थे। जाति के खांचे में सिर्फ राजपूत बनाम भूमिहार की लड़ाई नहीं हो रही थी। बल्कि देवघर मंदिर में दलितों के प्रवेश की लड़ाई भी लड़ी गई और भूमि सुधार अधिनियम लागू होने से एक नए राजनैतिक वर्ग का उदय भी हुआ और कुछ ऐसा भी हो रहा था जो बिहार की राजनीति में कर्पुरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं को एक मज़बूत पिलर की तरह स्थापित करने वाला था। जातिगत राजनीति के ऐसे बीज डाले जा रहे थे जिसने आने वाले वक़्त में एक बड़े बरगद का रूप ले लिया।
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मगध साम्राज्य की इस किस्त में पढ़िए कहानी पचास के दशक की। राजनीतिक उठा-पटक से लेकर सामाजिक बदलाव तक की। जातिगत गुटबाजी के बीजरोपण से पॉलिटिकल मर्डर के शुरुआत की। पढ़िए हर वह किस्सा जो पचास के दशक में बिहार की माटी में एक बीज की तरह पड़ा। फिर एक बरगद बनकर पूरे बिहार में पसर गया। कुछ बरगदों ने बिहार को छांव दी तो कुछ की जड़ें सूबे की जमीन पर एक अवरोध बनकर उभरीं।
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जब बंगाल से अलग होकर बना बिहार
इस कहानी की शुरुआत करेंगे लेकिन सबसे पहले GK टाइप के दो प्वाइंट्स जान लीजिए। पहला, 1912 से पहले बिहार ग्रेटर बंगाल प्रांत का हिस्सा था। 1912 में विभाजन हुआ और बिहार प्रांत बना। दूसरा प्वाइंट 24 साल बाद 1936 में एक बार फिर बिहार का विभाजन हुआ और एक नया राज्य बन गया ओडिशा।
हालांकि, पचास के दशक में एक बार बिहार के एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व के सवाल पर बहस हुई। एक प्रस्ताव पर विचार होने लगा। प्रस्ताव यह कि बिहार और पश्चिम बंगाल को मिलाकर एक संयुक्त प्रांत बना दिया जाए। बात तो यहां तक पहुंच गई थी कि संयुक्त प्रांत में श्रीकृष्ण सिंह और डॉ. बिधान चंद्र रॉय को थोड़े-थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। डॉ. बिधान बंगाल के पहले मुख्यमंत्री थे। इस प्रस्ताव के पीछे तर्क दिया गया कि दोनों राज्यों के संसाधन और आधुनिकता से संयुक्त प्रांत के विकास को बढ़ावा मिलेगा लेकिन केंद्र की नेहरू सरकार और बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया।
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'The Republic of Bihar' में एन अरविंद दास लिखते हैं, 'केंद्र सरकार उस वक्त बॉम्बे और मद्रास के विकास को सब्सिडी देने जैसी घोर भेदभावपूर्ण आर्थिक प्रथाओं में लगी हुई थी। बिहार और बंगाल की संयुक्त आर्थिक ताकत के बारे में उत्साहित नहीं थी। दूसरी ओर, CPI की बंगाल यूनिट, जो अंततः चुनावी जीत के जरिए राज्य में सत्ता पर नजर गड़ाए हुए थी, ने संयुक्त प्रांत में अपनी ताकत कमजोर होते देख ली।' नतीजा यह हुआ कि बिहार और बंगाल अलग-अलग राज्य बने रहे और श्रीकृष्ण आजादी की सुबह तक बिहार प्रांत के प्रधानमंत्री
बने तो रहे लेकिन पहली बार उन्हें ये कुर्सी हासिल करने के लिए ख़ूब तिकड़म करना पड़ा था। चलिए तमाम तिकड़मों और कुर्सी के लिए छीन-झपटी की क़िस्सेबाज़ी शुरू करते हैं।
जब गांधी पर भारी पड़ी जाति की सियासत
बिहार विभाजन से ठीक पहले बरतानिया हुकूमत ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 लागू किया। जिसके तहत देश भर में चुनाव कराए गए। राज्यों में सरकारें बनीं। बिहार में भी चुनाव हुआ। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन कांग्रेस नेतृत्व दोराहे पर खड़ा था। उलझन थी कि सरकार बनानी चाहिए या सत्ता से बाहर रहते हुए अंग्रेजों का विरोध करते रहना चाहिए। चर्चाओं का दौर चला और फिर पार्टी ने सरकार बनाने का फैसला कर लिया।
अब है कहानी में एक ट्विस्ट क्योंकि सरकार बनाने के बाद कांग्रेस को तय करना था कि सरकार का मुखिया यानी बिहार का प्रधानमंत्री कौन होगा? आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रही कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं के सामने यह अपनी तरह का पहला सवाल था। यह ऐसा वक़्त था जब गांधी पार्टी के मार्गदर्शक थे। हर रणनीति पर आख़िरी मुहर गांधी की ही लग रही थी। ज़ाहिर है यहां भी ऐसा ही होने की उम्मीद थी। बिहार कांग्रेस के विधायकों की मीटिंग से पहले गांधी ने राजेंद्र प्रसाद को आदेश दिया कि प्रधानमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह को बनाया जाए। अनुग्रह नारायण और श्रीकृष्ण सिंह एक साथ गांधी द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों में शामिल थे। दोनों की बनती भी थी लेकिन अब एक ऐसा मंज़र तैयार हो चुका था जिसके बाद इस रिश्ते में कुछ ख़लल पड़ने वाली थी।
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इस मंजर में एक आश्रम है। सदाकत आश्रम। बिहार में कांग्रेस का मुख्यालय। आश्रम में बिहार में जीत हासिल करने वाले कांग्रेस के विधायक मौजूद हैं। सामने राजेंद्र प्रसाद खड़े हैं। हाथ में एक चिट्ठी है। जिसपर गांधी का आदेश लिखा है। राजेंद्र बाबू ने गांधी के आदेश से सभी को अवगत कराया लेकिन चिट्ठी का आख़िरी वाक्य ख़त्म होते-होते वह हुआ जिसकी उम्मीद ख़ुद राजेंद्र बाबू को भी नहीं थी। गांधी की इच्छा का विरोध शुरू हो गया। उस जमाने में वकील और कांग्रेस के नेता रहे सर गणेश दत्त ने अनुग्रह नारायण सिंह का विरोध करते हुए श्रीकृष्ण सिंह के नाम का प्रस्ताव रख दिया। बड़े गांधीवादी और किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। सपोर्ट दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह ने भी किया। बात अब जातिगत खेमेबाज़ी तक पहुंच चुकी थी। अनुग्रह नारायण सिंह राजपूत। जिन्हें कायस्थ जाति से आने वाले राजेंद्र प्रसाद और उनके गुट का समर्थन हासिल था। दूसरी और श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार। उन्हें भूमिहार जाति के दूसरे विधायकों का समर्थन हासिल था। साथ में था ब्राह्मण गुट का समर्थन क्योंकि पीछे दरभंगा महाराज खड़े थे।
इसी मोड़ पर बिहार की राजनीति में वह बीज पड़ गया जो बाद में जाकर एक बरगद की तरह फैल गया। जातिगत राजनीति के बीज। राजपूत बनाम भूमिहार की राजनीति शुरू हो गई थी और अंत में पलड़ा भारी दिखा श्रीकृष्ण सिंह का। गांधी के आदेश की अवहेलना हुई और बिहार के प्रधानमंत्री बन गए श्रीकृष्ण सिंह। 1937 से 1939 तक वह प्रधानमंत्री के पद पर रहे। याद कीजिए इतिहास की किताबों में हमने पढ़ रखा है कि 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ था। दूसरे विश्वयुद्ध में बगैर भारतीयों की सहमति के भारत को शामिल करने के विरोध में सभी प्रांतों के प्रधानमंत्रियों ने इस्तीफ़ा दे दिया। श्रीबाबू ने भी इस्तीफ़ा दिया और फिर 1946 में दोबारा इस कुर्सी पर बैठे। सन 47 में जब देश आजाद हुआ तो वही बिहार के पहले मुख्यमंत्री बी बन गए।
इस क़िस्से से पता चलता है कि बिहार में जातिगत गुटों के वर्चस्व के बूते राजनीति को अपने तईं बदल देने की रवायत पचास के दशक में ही शुरू हो चुकी थी और यह राजनीति बाद के दशक में ख़ूब चमकी भी। खैर श्रीकृष्ण सिंह कुर्सी पर बैठ तो गए लेकिन जातिगत अदावत शुरू हो गई।
भूमिहार राज की सरकार?
श्रीकृष्ण सिंह के मुख्यमंत्री बनते ही बिहार कांग्रेस में दो गुट बन गए। एक श्रीकृष्ण सिंह का गुट, दूसरा अनुग्रह नारायण सिंह का। इसके साथ ही बिहार की राजनीति और कांग्रेस में राजपूत और भूमिहार नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई का दौर शुरू हो गया। दोनों गुटों ने मिलकर कायस्थ नेताओं की सियासी ताक़त खत्म कर दी और ब्राह्मण समुदाय के नेता इन दो लॉबियों के पीछे ही लामबंद होते चले गए। इसकी झलकियां 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में टिकट बंटवारे के दौरान देखने को मिली। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की किताब ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ में एक क़िस्सा मिलता है।
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टिकट बंटवारे से पहले श्रीकृष्ण गुट ने कृष्ण बल्लभ सहाय को अपना प्रतिनिधि बना दिया। केबी सहाय ने अनुग्रह नारायण के साथ बैठकर पटना और छोटा नागपुर के प्रतिनिधियों के उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार कर दी। लिस्ट जारी होते ही श्रीकृष्ण गुट ने हल्ला काट दिया। मामला ऐसा उलझा कि जवाहरलाल नेहरू को इंटरफेयर करना पड़ा। नेहरू ने दोनों नेताओं को दिल्ली बुलाया। मीटिंग हुई लेकिन झगड़ा खत्म नहीं हुआ। टिकट बंटवारे के सवाल पर पटना के सिन्हा लाइब्रेरी में कांग्रेसियों की एक और बैठक बुलाई गई। लाइब्रेरी के अंदर बैठक चल रही थी और बाहर नारेबाज़ी। भागवत झा आजाद के नेतृत्व में पंडित विनोदानंद झा के खिलाफ भद्दे नारे लगाए जा रहे थे। अंत में सरदार पटेल बीच में पड़े और टकराव की गर्मी पर कुछ पानी डाला लेकिन टिकट जारी होने के बाद 30 से ज्यादा कांग्रेसियों ने बाग़ी होकर निर्दलीय चुनाव लड़ा।
चुनाव हुआ और तमाम पंचायतों के बावजूद कांग्रेस पार्टी को जीत मिल गई और यह तय हो गया कि मुख्यमंत्री के नाम को लेकर अब और छीछालेदर होने वाली है। छीछालेदर शुरू होता देख नेहरू ने बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष लक्ष्मीनारायण सुधांशु को दिल्ली तलब किया। नेहरू ने सुधांशु को लगभग आदेश के स्वर में कहा कि जब श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण में मेलजोल नहीं हो सकता तो आप ही नेता बन जाइए और मंत्रिमंडल का गठन कर लीजिए। इस आदेश के साथ जगजीवन राम को भी बिहार रवाना किया गया। जगजीवन राम पटना पहुंचे और दोनों नेताओं के बीच मेल-मिलाप का नाटक रचा गया ताकि किसी भी तरह मंत्रिमंडल का गठन हो जाए। ज़ाहिर है मुख्यमंत्री की कुर्सी श्रीकृष्ण को ही मिली।
मंत्रिमंडल के गठन में जातीय समीकरण का उतना ही ख़्याल रखा गया जितना कि आज के दौर में रखा जाता है। हालांकि आज के दौर में कोई नेता अपनी ही पार्टी के ऐसे रवैये पर सवाल नहीं उठाता लेकिन तब कांग्रेस के ही विधायक राम विनोद सिंह ने विधानसभा में कहा, 'कांग्रेस संस्था और यहां तक कि मंत्रिमंडल का गठन भी जातीयता के आधार पर हुआ है।'
अनुग्रह नारायण के बेटे ने लगाया झगड़ा?
बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट में उस दौर को करीब से देखने वाले सीपीएम नेता गणेश शंकर विद्यार्थी मानते हैं कि शुरुआती दौर में तो दोनों नेताओं के बीच कोई टकराव नहीं था लेकिन 1957 में खुलकर यह सब दिखने लगा। विद्यार्थी कहते हैं, '1957 में संकट आया। केबी सहाय के लोगों ने दोनों के बीच विभेद डालना शुरू कर दिया था। इस विभेद की बागडोर अनुग्रह बाबू के बेटे सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने संभाली। अनुग्रह बाबू श्रीबाबू के ख़िलाफ़ बिल्कुल खड़ा नहीं होना चाहते थे। इसमें मुख्य भूमिका उनके बेटे की ही रही।'
1957 के ही चुनाव का एक किस्सा इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और बिहार की राजनीति पर तीन किताबें लिख चुके संतोष सिंह सुनाते हैं, '1957 के चुनाव में सीएम पोस्ट के लिए अनुग्रह बाबू कांग्रेस में श्रीबाबू के खिलाफ लड़ते हैं। एक बहुत सुंदर वाकया है। श्रीबाबू अपने आवास पर बैठकर कुछ किताब पढ़ रहे थे। तभी कुछ लोग आए और पूछे कि अरे श्रीबाबू वोट देने नहीं जाइएगा तो श्रीबाबू कहते हैं कि अगर मुझे अपने ही वोट से जीतना है तो लानत है ऐसी विक्ट्री पर। इसी दौरान अनुग्रह बाबू कहते हैं कि अरे श्रीबाबू जीतना तो आपको ही है। हम लोग तो बस लड़ गए हैं चुनाव। तो श्रीबाबू कहते हैं, देखिए अनुग्रह बाबू अगर मैं हार गया तो राजनीति छोड़कर संन्यास ले लूंगा।' नतीजों ने अनुग्रह नारायण की बात सही साबित की और श्रीकृष्ण सिंह के सामने राजनीति से संन्यास लेने की नौबत नहीं आई।
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लेकिन क्या इन दोनों नेताओं के बीच जाति की वजह से मतभेद था और दोनों गुटबाज़ी कर रहे थे? संतोष सिंह कहते हैं, '1937 से लेकर आज़ादी से पहले तक कांग्रेस के स्ट्रक्चर में कायस्थों का डॉमिनेशन था। लेकिन बाद के वर्षों में कांग्रेस में भूमिहार और राजपूत नेता उभरकर सामने आए और इसी कड़ी में कांग्रेस में दो कैंप बनते हैं। श्रीबाबू का कैंप और अनुग्रह बाबू का कैंप। ओबीसी नेताओं ने अपनी सुविधा के मुताबिक़ दोनों अपरकास्ट कैंप्स को पकड़ लिया था।'
1952 का चुनाव आजाद भारत का पहला चुनाव था। एक नया-नवेला अनुभव लेकिन पार्टी की अंदरूनी भिड़ंत से लेकर विरोधी नेताओं की बयानबाज़ी को देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि यह पहला चुनाव था। कई मौकों पर आज का दौर भी इस मामले में पीछे ही दिखने लगता है। एक बानगी देखिए। चुनाव प्रचार के दौरान एक सभा में सोशलिस्ट पार्टी के नेता जयप्रकाश नारायण ने बयान दे दिया, 'कांग्रेस को वोट देना भठियारों को वोट देने जैसा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पंडित जी (नेहरू) भी बिहार के कांग्रेसियों को भठियारा कहते हैं। और इन्हीं भठियारों को वोट देने की अपील भी करते हैं।' भठियारा बिहार में एक पिछड़ी जाति है। जिसे गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है तो समझिए कि उस दौर में भी जेपी जैसे नेता इस शब्दावली के साथ विरोधियों पर हमला कर रहे थे। हालांकि, इन सब के बावजूद बिहार में सोशलिस्टों के हाथ कुछ ख़ास नहीं आया।
कांग्रेस की अंदरूनी कलह
बहरहाल लौटते हैं कांग्रेस की अंदरूनी रस्साकसी पर। राजपूत समुदाय से आने वाले नेता अनुग्रह नारायण को उनके गुट के नेता लगातार भड़का रहे थे कि श्रीकृष्ण सिंह अपनी सरकार में भूमिहारी कर रहे हैं। यानी सिर्फ भूमिहारों को बढ़ावा दे रहे हैं। आग में घी का काम कर दिया जयप्रकाश नारायण की एक चिट्ठी ने। जेपी ने श्रीबाबू को लिखी एक चिट्ठी में कहा, 'आपकी सरकार को लोग भूमिहार राज कहते हैं।' संतोष सिंह बताते हैं, 'जेपी और श्रीबाबू में नहीं बनती थी। जेपी चाहते थे कि सत्ता में नहीं रहते हुए भी उनकी बात मानी जाए। जेपी का रिकमेंडेशन जब नहीं माना गया तो उन्होंने यह चिट्ठी लिखी और कहा कि आपकी सरकार भूमिहार राज हो गई।'
एक चिट्ठी तो तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी श्रीकृष्ण सिंह को लिखी थी। संतोष सिंह अपनी किताब 'Ruled or Misruled' में इस चिट्ठी का ज़िक्र करते हैं। जिसमें नेहरू ने श्रीकृष्ण को लिखा, 'बिहार में अलग-अलग जातियों के बीच सांप्रदायिक भावना काफी बढ़ गई है और यह धारणा है कि नियुक्तियां आदि काफी हद तक इसी भावना से संचालित होती हैं। पोस्टिंग और ट्रांसफर भी काफी हद तक इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं।'
सवाल है कि नेहरू या जेपी की चिट्ठी में ऐसे आरोप क्यों लग रहे थे? दरअसल, 1957 के बिहार चुनाव में कांग्रेस के दो बड़े नेता चुनाव हार गए। केबी सहाय और महेश प्रसाद सिन्हा लेकिन कांग्रेस को जीत मिली। कांग्रेस ने सरकार बनाई। सीएम एक बार फिर बने श्रीबाबू। श्रीबाबू ने अपनी सरकार में महेश प्रसाद सिन्हा को खादी बोर्ड का चेयरमैन बनाया। दूसरी ओर केबी सहाय को कोई पद नहीं मिला। सहाय कायस्थ जाति से आने वाले नेता थे जबकि महेश सिन्हा भूमिहार थे। यही वह मोमेंट था जिसके बाद जेपी ने चिट्ठी लिखकर श्रीकृष्ण सिंह की सरकार को भूमिहार राज कह दिया लेकिन श्रीकृष्ण सिंह पर इस आरोप का कोई ख़ास असर नहीं हुआ। उन्हें लगा कि जेपी उनके विरोधियों की भाषा इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि उनकी कायस्थ जाति के नेता केबी सहाय को सरकार में कोई भूमिका नहीं दी गई।
केबी सहाय के पोते राजेश सहाय एक ब्लॉग में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि इन बहसों की वजह से श्रीबाबू और केबी सहाय के बीच खाई बढ़ जाने की ख़बरें चलने लगी थीं। इसे खत्म करने के लिए केबी सहाय को 'दी सर्चलाइट' अख़बार में एक लंबा लेख लिखना पड़ा। जिसके बाद स्थिति ठीक हुई। एक लाइन की जानकारी यहीं ले लीजिए कि केबी सहाय आगे चलकर 1963 में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने। इन दो के बीच तो पैच-अप हो गया लेकिन अनुग्रह बाबू के साथ अभी सुलह बाकी थी और सुलह के लिए एक घनघोर थिएट्रिकल ड्रामा होना था।
1957 में सीएम बनने के बाद पटना के 4 देशरत्न मार्ग स्थित आवास पर श्रीबाबू कुर्सी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे। तभी एक गाड़ी आवास के भीतर प्रवेश करती है। गाड़ी में अनुग्रह बाबू बैठे थे। वह गाड़ी से उतरकर श्रीबाबू की ओर बढ़े। दोनों नजदीक आए और कचकचाकर एक-दूसरे को गले लगा लिया। दोनों ख़ूब रोए। संतोष सिंह बताते हैं कि इसके बाद श्रीबाबू ने अनुग्रह नारायण से कहा, 'अनुग्रह बाबू जो होना था वह हुआ लेकिन अब आप देख लीजिए कि कैबिनेट कैसे बनाना है।'
ऐसा लगता है कि यह भावुक भरत मिलाप सिर्फ इस वजह से हुई कि लोगों का यकीन एक मुहावरे पर बना रहे- अंत भला तो सब भला क्योंकि कुछ ही महीने बाद कैलेंडर पर 5 जुलाई की तारीख़ लग गई और पूर्ण विराम लग गया अनुग्रह नारायण सिंह की कहानी पर। बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट में अनुग्रह बाबू के पोते निखिल जो दिल्ली पुलिस कमिश्नर और राज्यपाल रह चुके हैं, का बयान मिलता है। निखिल कहते हैं, 'जब मेरे बाबा का जुलाई 1957 में निधन हुआ तो अपने घर पर श्रीबाबू को फूट-फूट कर रोते देखा है। मेरी मां को जैसे बाप किसी बेटी को गोद में बैठाकर समझाता है, वैसे मैंने समझाते देखा है। उन दिनों आज की तरह कैमरे का बोलबाला नहीं था इसलिए वह तस्वीरें अछूती रह गईं, नहीं तो आज की तारीख़ में वे तस्वीरें एपिक होतीं।'
कैमरे का बोलबाला होता तो तस्वीरें उस वक़्त की भी एपिक ही होतीं जब श्रीकृष्ण सिंह दलित सुमदाय के लोगों को लेकर बाबा वैद्यनाथ के मंदिर में पूजा करने पहुंच गए थे और विरोध कर रहे पंडा-पुरोहित हज़ार धमकियों के बावजूद कुछ कर नहीं पाए थे। तस्वीरें भले ना हों लेकिन वह एपिक कहानी तो इतिहास में दर्ज है ही।
वैद्यनाथ मंदिर में दलितों का प्रवेश
यहां एक बार फिर गांधी का ज़िक्र होगा और उनके शिष्य आचार्य विनोबा भावे का। आजादी के आंदोलन के दौरान ही गांधी लगातार छूआछूत को खत्म करने की बात कह रहे थे। अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा था और विनोबा भावे भी इस अभियान में शामिल थे। गांधी की ही तरह विनोबा भी दलित समुदाय के लोगों को हरिजन कहते थे। साल 1953 के अक्टूबर महीने में भावे बिहार के गांवों में घूम रहे थे। भूदान अभियान चल रहा था। इसी दौरान सितंबर, 1953 के आख़िरी दिनों में वह देवघर जिला पहुंचे। जहां सदियों पुराना बैद्यनाथ मंदिर है। 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक इस स्थान का हिंदू धर्म में ख़ास महत्व है। देवघर अब झारखंड में पड़ता है।
ख़ैर, भावे देवघर पहुंचे तो उन्हें पता चला कि बैद्यनाथ मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। यानी कानून भले भारत की जनता को बराबरी का अधिकार दे चुका था लेकिन दकियानूसी परंपराएं अब भी चल रही थीं। 5 अक्टूबर, 1953 को टाइम मैगज़ीन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भावे ने बैद्यनाथ धाम में प्रार्थना सभा के दौरान कहा, 'सेवा और भगवान की भक्ति के सवाल पर कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।' शाम के वक्त भावे अपने अनुयायियों के साथ जिनमें दलित भी शामिल थे, बैद्यनाथ मंदिर में प्रवेश करने लगे। मंदिर में प्रवेश से पहले ही क़रीब 50 पंडों ने लाठी-डंडों के साथ भावे और उनके अनुयायियों पर हमला कर दिया। टाइम की रिपोर्ट बताती है कि इस हमले में कई लोग घायल हुए और विनोबा भावे को भी कई चोटें आईं।
ख़बर पूरे देश में जंगल में लगी आग की तरह पसर गई और इस आग की तपिश बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह तक भी पहुंचीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद इस हमले पर तिलमिला उठे। श्रीबाबू की लानत-मलामत होने लगी कि उनके सीएम रहते एक बुजुर्ग गांधीवादी पर ऐसा हमला हुआ। श्रीबाबू ने इसे चुनौती की तरह लिया। पहले कार्रवाई की और फिर एक एलान। कार्रवाई के तहत हमले के 12 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और एलान यह कि एक हफ्ते के भीतर दलितों के साथ श्रीकृष्ण सिंह ख़ुद मंदिर में प्रवेश करेंगे।
श्रीबाबू के एलान पर मंदिर के पंडे-पुरोहित भड़क उठे। उनका विरोध शुरू हो गया और न सिर्फ समाज में बल्कि कांग्रेस पार्टी में भी। देवघर के पंडे तो श्रीबाबू के गांव माऊर पहुंच गए। गांव-घर के लोगों को समझाने लगे कि उनका लड़का अपने मुख्यमंत्री पद का ग़लत इस्तेमाल करके धर्म भ्रष्ट कर रहा है लेकिन ये सारे तिकड़म किसी काम न आए। टाइम मैगज़ीन की रिपोर्ट में लिखा मिलता है, 'जब सैकड़ों दलितों को अपने साथ लेकर श्रीकृष्ण सिंह पहुंचे तो कुछ पंडे चुपचाप खड़े थे तो कुछ नाक-भौंहे सिकोड़ रहे थे लेकिन क्या मजाल कि कोई दरवाज़े के सामने आकर खड़ा हो जाए।'
बिहार में श्रीकृष्ण सिंह के इस फैसले का क्या असर हुआ? संतोष सिंह समझाते हैं, 'उस एक निर्णय का असर बिहार के भविष्य पर बहुत बाद तक पड़ा। जीतन राम मांझी जैसे नेता सीएम बने जो श्रीबाबू को याद करते हैं या फिर पटना के महावीर मंदिर में दलित पुजारी की नियुक्ति की घटना को भी याद किया जा सकता है।' ट्रिविया के तौर पर महावीर मंदिर का मामला यहां बता देते हैं। 1993 का साल था। बिहार स्टेट बोर्ड ऑफ रिलीजियस ट्रस्ट के अध्यक्ष थे आचार्य किशोर कुणाल। किशोर गुजरात काडर के 1972 बैच के IPS अधिकारी थे और 1989 से 1996 के बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन विशेष कार्य अधिकारी (OSD) के तौर पर विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद आंदोलन समन्वय समिति के बीच आधिकारिक मध्यस्थ थे। इन्हीं आचार्य किशोर कुणाल के नेतृत्व में पटना स्थित महावीर मंदिर में पहली बार एक दलित व्यक्ति को पुजारी नियुक्त किया गया।
देवघर मंदिर में दलितों का प्रवेश सामाजिक न्याय की जमीन में बोया गया पहला बीज नहीं था। सिन्हा और उनकी सरकार पचास के दशक से ही इस दिशा में काम कर रही थी। इसी का नतीजा था कि सिन्हा के नेतृत्व में बिहार देश का पहला राज्य बना जिसने भूमि सुधार अधिनियम को लागू किया।
वित्त मंत्री को मार डालने की वह साजिश
श्रीकृष्ण सिंह के मुख्यमंत्री बनने से बहुत पहले से ही प्रांत में भूमि सुधार के लिए आंदोलन चल रहे थे। स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसान सभा जैसे संगठन इस आंदोलन के अगुवा थे। बिहार कांग्रेस के भीतर भी जमींदारी उन्मूलन, जोताईदार किसानों के काश्तकारी अधिकार और कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की मांगें उठ रही थीं। नतीजा यह हुआ कि आजादी के ठीक बाद बनी श्रीकृष्ण सिंह की सरकार में राजस्व मंत्री केबी सहाय ने 1948 में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम पेश किया।
यह बिल पेश होने से पहले एक खूनी खेल खेला गया। भूमि सुधार अधिनियम का विरोध राजनीतिक हलकों में होने लगा था। विरोध में उठ रही आवाज़ों में कितने रसूखदार शामिल थे इसका अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और दरभंगा महाराज भी इस बिल के पक्ष में नहीं थे। चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह, जो बाद में अविभाजित पंजाब और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी बने, ने विधानमंडल में बिल का विरोध किया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने तो बिल के विरोध में रेवेन्यू मिनिस्टर केबी सहाय को भला-बुरा सुनाते हुए चिट्ठी तक लिख दी। ज़मींदारों ने आंदोलन के जरिए अपनी बात किसानों के बड़े नेताओं ने सरदार पटेल तक पहुचाने की कोशिश की लेकिन ये सारी कवायदें उस लोकतांत्रिक सांचे में थीं जो तीन बरस पहले ही भारत के हिस्से आई थी। यह सांचा तब टूट गया जब केबी सहाय को ट्रक से कुचलकर मार डालने की कोशिश हुई। 'The Republic of Bihar' नाम की किताब में एन अरविंद दास लिखते हैं, 'जमींदारी उन्मूलन बिल पेश करने के फाइनल ऐक्ट को एक क्लाइमेक्स मिल गया। बिल पेश किए जाने से कुछ दिन पहले केबी सहाय को ट्रक से कुचल दिया गया। कथित तौर पर इस ट्रक को रामगढ़ के राजा ने हायर किया था। जो न सिर्फ इस बिल का विरोध कर रहे थे बल्कि सहाय के साथ लंबे अरसे से तकरार पाले हुए थे।' हालांकि इस हादसे में सहाय की जान बच गई।
जान तो बच गई लेकिन एक सवाल भी पैदा हो गया कि अब यह बिल पेश कौन करेगा? वित्त मत्री अनुग्रह नारायण सिंह ख़ुद एक जमींदार थे तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार समाज से आते थे तो वह भी इससे हिचकने लगे। यह तय नहीं हो पाया था कि बिल पेश कौन करेगा। बिल का विरोध करने वाले खुश थे क्योंकि उन्हें लगा कि यह बला टल जाएगी। उन दिनों बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी रांची था। रांची में ही असेंबली बैठी। विजिटर्स गैलरी में स्वामी सहजानंद सरस्वती बैठे थे। बिल पेश करने का वक्त आया तो कांग्रेस सरकार के मंत्री खड़े होने वाले थे यह बताने के लिए उनके राजस्व मंत्री एक हादसे में घायल हो चुके हैं लेकिन तभी केबी सहाय की फिल्मी एंट्री होती है। शरीर पर जगह-जगह बैंडेज लगे थे और वह ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे लेकिन केबी सहाय पहुंचे और उन्होंने फिल्मी अंदाज़ में ही जमींदारी उन्मूलन बिल पेश किया।
इस पेशगी के साथ ही विवाद शुरू हो गया। वजह? जमींदारों को दिख रहा था कि सालों से जमीन पर बनी हुई उनकी मठाधीशी को सरकार खत्म करने वाली है। दिलचस्प यह था कि श्रीकृष्ण उसी भूमिहार समुदाय के नेता थे जो बड़े स्तर पर जमींदार थे। पार्टी के भीतर और बाहर हो रहे विरोध के बावजूद सिन्हा की सरकार क़रीब दो साल बाद भूमि सुधार अधिनियम ले आई और बिहार पूरे देश में ये काम करने वाला पहला राज्य बना।
न्यूज़लॉन्ड्री पर एक आर्टिकल में आनंद वर्धन लिखते हैं, 'भले ही भूमि सुधारों के क्रियान्वयन में कई बाधाएं आईं और वे सीमित ही रहे लेकिन सामाजिक सत्ता के नए अंकगणित और उसकी राजनीतिक आकांक्षाओं पर इसके महत्वपूर्ण प्रभाव पड़े।' इसी की देन थी कि यादव, कुर्मी और कोइरी जैसी जातियां एक नए राजनीतिक वर्ग के तौर पर मज़बूती से उभरकर सामने आईं। जिसकी परिणति यह हुई कि बिहार को कोई दलित और ओबीसी वर्ग से आने वाले मुख्यमंत्री मिले और बिहार में सामाजिक न्याय की बयार चली। हालांकि, उस दौर में सिर्फ सामाजिक न्याय का ही बीज नहीं पड़ा बल्कि उन घटनाओं की भी शुरुआत हुई जिसकी दलदल में बिहार बुरी तरह फंस गया। एक बानगी देखिए।
बिहार का पहला पॉलिटिकल मर्डर
तारीख़ 28 मार्च, 1947। जगह बिहार का फतुहा। पटना से 30 किलोमीटर दूर। तीन अनजान लोगों ने बख्तियारपुर-पटना रोड पर एक गाड़ी रोक दी। गाड़ी में बिहार प्रांत कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और अपने दौर के बड़े मज़दूर नेता प्रोफेसर अब्दुल बारी सिद्दीकी और मज़दूर नेता साधन गुप्ता बैठे थे। ये दोनों धनबाद से पटना लौट रहे थे। गाड़ी रोकने के साथ ही राइफल के बट से गुप्ता पर हमला हो गया। इसके बाद प्रो. अब्दुल बारी पर कई राउंड फायरिंग झोंकी गई। प्रोफेसर की मौत हो गई। आजादी के मुहाने पर खड़े देश में यह एक सनसनीखेज़ पॉलिटिकल मर्डर था। 29 मार्च, 1947 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ हत्या के तीनों आरोपियों के तार INA से जुड़े थे। हालांकि, इस मामले में कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई और ना ही पता चल सका कि यह हत्या किसके इशारे पर हुई थी लेकिन एक बात साफ़ है कि जिस बिहार में अस्सी-नब्बे के दशक में पॉलिटिकल हत्याओं खूंखार दौर अपने चरम पर पहुंचने वाला था उसकी शुरुआत सन 1947 में ही हो गई थी।
बाद में प्रोफेसर बारी की याद में कोइलवर के ब्रिज का नाम अब्दुल बारी ब्रिज रखा गया। पटना में गांधी चौक को गांधी मैदान से जोड़ने वाली सड़क का नाम उन्हीं के नाम पर बारी पथ रखा गया।
किस्सा दरभंगा महाराज का
शुरुआत में ही हमने आपको एक क़िस्सा सुनाया कि कैसे दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह की बैकिंग ने बिहार के प्रधानमंत्री और फिर मुख्यमंत्री पद के लिए श्रीकृष्ण सिंह की दावेदारी मज़बूत की। अब यहां क़िस्सा पढ़िए कि जब दरभंगा महाराज ने बिहार में एक एयरलाइंस की शुरुआत की थी।
1950 के दशक में दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह ने कमर्शियल फ्लाइट की शुरुआत की। नाम रखा गया दरभंगा एयरलाइंस। हालांकि, दरभंगा में एयरपोर्ट की नींव गांधी के प्रथम बिहार आगमन के साल यानी 1917 में ही महाराजा रामेश्वर सिंह ने रख दी थी। दरभंगा राज के पास डकोटा विमान हुआ करता था जिसे आजादी के बाद भारत की पहली सरकार को दान कर दिया गया।
दरभंगा एयरलाइंस के इतिहास में एक प्लेन क्रैश की भी कहानी जुड़ी है। तारीख़ 1 मार्च, 1954। दरभंगा एयरलाइंस की VT-DEM रजिस्ट्रेशन नंबर का विमान कोलकाता के दमदम एयरपोर्ट से टेकऑफ के वक्त क्रैश हो गया। यह विमान पश्चिम बंगाल के ही बालुरघाट जाने के लिए रवाना उड़ान भर रहा था। विमान में सवार 8 लोगों में से 5 की मौत हो गई। आठ साल बाद 24 मई, 1962 को इसी एविएशन का एक और विमान क्रैश हो गया। यह हादसा राजशाही शहर में हुआ जो कि अब बांग्लादेश में है। जांच में पता चला कि दोनों ही विमानों के इंजन में गड़बड़ी थी। नतीजा यह हुआ कि दरभंगा एयरलाइंस कंपनी पर ताला जड़ दिया गया।
1950 के बाद दरभंगा महाराज ने अपने बेड़े से एक विमान बीजू पटनायक की एविएशन कंपनी कलिंगा एयरवेज को बेच दिया था लेकिन ऐसा लगता है कि दरभंगा एयरलाइंस पर हादसों का साया मंडरा रहा था। 30 अगस्त, 1955 को दरभंगा राज से खरीदा गया यह विमान भी एक हादसे के दौरान फट गया।
दिलचस्प किस्सा है कि दूसरे विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद अमेरिका ने अपने सेना के विमानों की नीलामी रखी। दरभंगा महाराज के पास अकूत संपत्ति थी। उन्होंने इस नीलामी में हिस्सा लेने का फैसला लिया और नीलामी के दौरान दरभंगा राजपरिवार ने कुल चार विमान खरीदे। जिनमें से तीन विमानों के क्रैश हो जाने की कहानी अभी हमने सुनाई। एक विमान जो बच गया था उसे आज की तारीख़ में कर्नाटक के बेलगाम एयरबेस स्थित म्यूजियम में रखा गया है।
पचास के दशक में बिहार ने क़रीब-क़रीब सब कुछ देखा। खुद को बनते हुए, एक ही समय पर जातिगत भेदभाव को खत्म करने की दिशा में काम और राजनीति में जातिगत गुटबंदी से कुर्सी पर बैठे रहने की जद्दोजहद भी। भूमिहीनों के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम भी तो किसानों की रैली पर पुलिस की लाठियां भी। बिहार की राजनीति का लगभग सबसे स्थायी दौर और भविष्य की राजनीति के गर्त में जाने का बीजवपन भी लेकिन बिहार ने इस दौर में जो कुछ भी देखा वह अगले यानी 60 के दशक में अपना दूसरा ही रूप दिखाने वाले थे। कई-कई मौकों पर ठीक उलट घटनाएं होने वाली थीं। 2 साल के भीतर चार-चार मुख्यमंत्री बनने वाले थे लेकिन यह सब कुछ हम यहां नहीं बताएंगे। बल्कि मगध साम्राज्य की अगली खेप में लेकर आप तक हाज़िर होंगे।