अमेरिका और चीन के बीच जबरदस्त टेंशन है। जिस तरह से नीलामी में बोली लगती है, उसी तरह से अमरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक-दूसरे पर टैरिफ की दरें बढ़ा रहे हैं। इससे दोनों के बीच ट्रेड वॉर छिड़ गया है। ट्रंप ने टैरिफ से दुनिया के कई देशों को कुछ महीनों की रियायत तो दे दी है लेकिन चीन को इससे कोई छूट नहीं मिली है।
ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका और चीन ने एक-दूसरे पर टैरिफ की दरें कई गुना तक बढ़ा दी हैं। अमेरिका ने चीनी इम्पोर्ट पर 145% तक टैरिफ लगा दिया है। बदले में चीन ने भी अमेरिका से आने वाले सामान पर टैरिफ को बढ़ाकर 125% कर दिया है। इससे दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच 'कारोबारी जंग' शुरू हो गई है।
हालांकि, ट्रंप के इस टैरिफ अटैक के पीछे चीन के कथित 'करंसी मैनिपुलेशन' का खेल भी माना जा रहा है। पिछले साल ही दिसंबर में ट्रंप सरकार के ट्रेड एडवाइजर पीटर नैवारो ने कहा था कि नई सरकार चीन के 'करंसी मैनिपुलेशन' के खेल को पसंद नहीं करेगा। उन्होंने कहा था, 'करंसी को मैनिपुलेट करने का चीन का इतिहास बहुत पुराना है।' हालांकि, चीन के दूतावास ने नैवारो के इस दावे को खारिज करते हुए कहा था कि चीन करंसी के 'डिवैल्यूएशन' पर भरोसा नहीं करता।
इतना ही नहीं, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल के दौरान भी चीन पर कई बार 'जानबूझकर' अपनी करंसी कमजोर करने का आरोप लगाया था। 2019 में अमेरिकी सरकार ने चीन पर 'करंसी मैनिपुलेटर' का लेबल भी लगा दिया था। 1994 के बाद यह पहली बार था, जब अमेरिका ने चीन पर इस तरह की कार्रवाई की थी।
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क्या है यह करंसी मैनिपुलेशन?
आमतौर पर किसी भी देश की करंसी तब कमजोर होती है, जब उसका विदेशी मुद्रा भंडार कम होता जाता है। मगर कई बार जानबूझकर भी करंसी को कमजोर किया जाता है, इसे ही 'करंसी मैनिपुलेशन' कहा जाता है। ऐसा ब्याज दरों में बदलाव करके या फिर किसी दूसरे तरीकों से अपनी करंसी को जानबूझकर कमजोर कर दिया जाता है।
मगर इससे होता क्या है? इसका जवाब है कि इससे निर्यात (एक्सपोर्ट) बढ़ता है क्योंकि कमजोर करंसी के कारण दूसरे देशों के लिए सामान खरीदना सस्ता हो जाता है। हालांकि, आयात (इम्पोर्ट) घटता है, क्योंकि दूसरे देश से सामान खरीदना महंगा हो जाता है।
मगर फिर भी दोनों ही स्थितियों में फायदा करंसी मैनिपुलेट करने वाले देश को ही होता है। क्योंकि निर्यात बढ़ने से विदेशी मुद्रा आती है, रोजगार बढ़ता है, मैनुफैक्चरिंग बढ़ती है और आखिरकार जीडीपी में भी बढ़ोतरी होती है। दूसरी तरफ, आयात घटने से स्वदेशी सामान सस्ता होता है तो लोग विदेशी की बजाय स्वदेशी सामान ज्यादा खरीदते हैं।
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चीन पर क्यों लगते हैं ऐसे आरोप?
चीन पर कई बार करंसी मैनिपुलेट करने के आरोप लगते रहे हैं। सबसे पहले 90 के दशक में अमेरिका ने चीन पर इसका आरोप लगाया था। दरअसल, 90 के दशक में चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए निर्यात का मॉडल अपनाया। इसके लिए उसने अपनी करंसी को कमजोर करना शुरू किया।
1991 में अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़कर 12.7 अरब डॉलर हो गया। इसके बाद 1992 में अमेरिका ने चीन को 'करंसी मैनिपुलेटर' घोषित कर दिया। इस दौरान जब चीन पर दबाव बढ़ा, तो उसने अमेरिका के साथ बातचीत अपनी नीतियों में बदलाव किया और करंसी को मजबूत किया। तब चीन आज की तरह इतनी मजबूत अर्थव्यवस्था नहीं हुआ करता था और वह अमेरिका के आगे झुक गया। आखिरकार 1994 में अमेरिका ने चीन से यह लेबल हटाया।
साल 2001 में चीन विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बना। इसके बाद उसका निर्यात और तेजी से बढ़ा। साल 2010 में अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया कि चीन की करंसी युआन 40% तक कमजोर हो गई है, जिस कारण उसको निर्यात पर 40% की छूट मिल रही है।
2005 से 2014 के बीच चीन के पास 4 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा जमा हो गए। इससे युआन मजबूत होने लगा। इसके बाद चीन ने डॉलर खर्च करना शुरू किया। 2019 तक चीन के पास 3 ट्रिलियन डॉलर ही बचे। यह वो समय था, जब अमेरिका में ट्रंप की सरकार थी और उन्होंने चीन पर 'करंसी मैनिपुलेट' करने का आरोप लगाया। उस समय अमेरिका का चीन के साथ व्यापार 300 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। अगस्त 2019 में अमेरिका ने एक बार फिर 'करंसी मैनिपुलेटर' घोषित किया।
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इससे कैसे होता है सारा खेल?
मान लीजिए कि 1 डॉलर की कीमत 100 युआन के बराबर है। अगर चीन में बनी एक टीशर्ट की कीमत 1000 युआन है तो अमेरिका में इसकी कीमत होगी 10 डॉलर। ऐसी स्थिति में अगर अमेरिकी कंपनी की टीशर्ट की कीमत भी 10 डॉलर है तो लोग चीन की टीशर्ट कम खरीदेंगे।
ऐसे में चीन की करंसी कमजोर होकर 1 डॉलर की कीमत 200 युआन पहुंच जाती है। तब ऐसी स्थिति में चीन की टीशर्ट की कीमत 5 डॉलर हो जाएगी। ऐसे में अमेरिका में लोग अमेरिकी टीशर्ट की बजाय चीनी टीशर्ट खरीदना ज्यादा पसंद करेंगे, क्योंकि वह सस्ती है।
इसी तरह से, अमेरिका में बनी 10 डॉलर की टीशर्ट की कीमत में 1000 युआन होगी। मगर जब युआन कमजोर होगा तो इसी टीशर्ट की कीमत 2000 युआन तक पहुंच जाएगी। ऐसी स्थिति में चीनी लोग अमेरिकी टीशर्ट की बजाय अपने देश बनी टीशर्ट ही खरीदेंगे। कुल मिलाकर दोनों ही स्थितियों में चीन की जेब गर्म होती रहेगी।
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अमेरिका को अब क्या है दिक्कत?
अमेरिका की परेशानी की सबसे बड़ी वजह चीन के साथ होने वाला व्यापार घाटा है।
अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2024 में चीन और अमेरिका के बीच 582.4 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था। अमेरिका ने चीन को 143.5 अरब डॉलर का एक्सपोर्ट किया था। 2023 की तुलना में इसमें 2.9 फीसदी की गिरावट आई थी। दूसरी तरफ, अमेरिका ने चीन से 438.9 अरब डॉलर का इम्पोर्ट किया था, जो 2023 की तुलना में 2.8 फीसदी ज्यादा था। इस तरह से चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 295.4 अरब डॉलर कहा रहा। 2023 के मुकाबले 2024 में चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 5.8 फीसदी बढ़ गया।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि टैरिफ लगाकर वे व्यापार घाटा कम करना चाहते हैं। उनका तर्क है कि जब टैरिफ बढ़ेगा तो इससे अमेरिका को फायदा होगा। टैरिफ से बचने के लिए विदेशी कंपनियां अमेरिका में ही मैनुफैक्चरिंग करेंगी।
खैर, अब ट्रंप और जिनपिंग की जिद अब ऐसे मोड़ पर आ गई है, जिसने दुनिया को एक नई 'कारोबारी जंग' की तरफ धकेल दिया है। ट्रंप ने भी साफ कर दिया है कि अब गेंद चीन के पाले में है।