एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट-क्लार्क अपनी किताब 'स्पाय स्टोरीज: इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ द R.A.W. एंड द I.S.I' में एक ISI एजेंट का क़िस्सा बताते हैं। अशरफ़ एक छोटे शहर का पश्तून लड़का था। उसका सपना था एक सुरक्षित, पेंशन वाली सरकारी नौकरी। उसने एक सरकारी नौकरी का विज्ञापन देखा और अर्ज़ी दे दी। महीनों इंटरव्यू और बैकग्राउंड चेक चलते रहे। उसे तब तक अंदाज़ा नहीं था कि वह कहां जा रहा है। आख़िरकार उसे पता चला कि उसे पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी, ISI, के लिए चुना जा रहा था। शुरू में अशरफ़ भी उस मिथक पर यक़ीन करता था। जो बहुत से पाकिस्तानी मानते हैं- ISI- एक सर्वशक्तिमान, लगभग जादुई ताक़त - दुनिया की नंबर एक इंटेलिजेंस एजेंसी लेकिन यह सपना जल्द ही टूटने वाला था। ISI के अंदर रहते हुए अशरफ़ को ISI के कई ऐसे सवालों के जवाब पता चले, जो आगे चलकर उसका मोहभंग करने वाले थे।
 
मसलन ISI के एजेंट ख़ुद को भूत क्यों बुलाते हैं? ISI के 'घोस्ट स्कूल' में एजेंट्स की ट्रेनिंग कैसे होती है? ISI के दफ़्तरों को कोड नेम क्यों दिया जाता है? इन तमाम सवालों के जवाब जानेंगे इस एपिसोड में। साथ ही जानेंगे ISI के तौर तरीकों के बारे में। ISI कैसे बनी? 
इसके जासूस कैसे भर्ती होते हैं? ISI काम कैसे करती है? 

 

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ISI का जन्म और अयूब का दौर

 

साल 1947। मुल्क बंटा, सरहदें खिंच गईं। नफ़रत की आग में लाखों जले। इसी राख से पाकिस्तान ने अपनी हिफ़ाज़त के लिए एक ख़ुफ़िया ढाल बनाने की सोची। नाम रखा गया इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI)। साल था 1948, बनाने वाला एक अंग्रेज़ मेजर जनरल वॉल्टर कॉथॉर्न। मक़सद साफ़ था: नए दुश्मन हिंदुस्तान पर नज़र रखना। शुरुआत में ISI का काम तीनों सेनाओं- आर्मी, नेवी, एयरफोर्स - की ख़ुफ़िया जानकारी में तालमेल बिठाना था लेकिन पाकिस्तान की क़िस्मत में लोकतंत्र कम और फ़ौजी बूटों की धमक ज़्यादा लिखी थी। 1958 में जनरल अयूब ख़ान ने तख्तापलट किया। अब ISI उनकी ताक़त का औज़ार बन गई। ISI सिर्फ़ दुश्मन पर नहीं, अपने ही मुल्क के नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर भी नज़र रख रही थी। अयूब को सत्ता में बने रहने के लिए ISI की ज़रूरत थी और ISI को ताक़तवर बनने के लिए अयूब का सहारा। यह रिश्ता गहराता गया। लोग डरने लगे। कहने लगे- ये 'सरकार के अंदर सरकार' है।

 

 

1965 की जंग में ISI भारतीय सेना को कम आंकने के कारण नाकाम रही लेकिन इस हार ने उसे ख़त्म नहीं किया बल्कि और ख़तरनाक बना दिया। सबक़ सीखा गया - दुश्मन को अंदर से तोड़ने की हर मुमकिन कोशिश करो। ISI अब सिर्फ़ जानकारी इकट्ठा करने वाली एजेंसी नहीं रही। वह कोवर्ट ऑपरेशन्स यानी ख़ुफ़िया कार्रवाइयां करने वाली एक ताक़त बन चुकी थी।

ISI की ख़ुफ़िया ज़ुबान

 

ISI का हेडक्वार्टर इस्लामाबाद के आबपारा में है। बोगनवीलिया की बेलों के पीछे छिपा हुआ। लंबे हथियारों वाले खामोश गार्ड पहरा देते हैं लेकिन अंदर का आलम बिल्कुल अलग है। एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट-क्लार्क अपनी किताब में एक पूर्व ISI एजेंट- कोड नेम - मेजर इफ्तिख़ार के हवाले से बताते हैं- ISI शायद ही कभी अपना ज़िक्र सीधे तौर पर करती थी। सारे एजेंट एक अजीब, कोड वाली भाषा इस्तेमाल करते थे। वह खुद को 'भूत' (Ghosts) या 'फ़रिश्ते'(Angels) कहते थे। एजेंसी का नाम नहीं लिया जाता बल्कि उसे सिर्फ़ 'द अदर प्लेस'कहा जाता था।

 

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फील्ड अफसरों के लिए एजेंट्स नहीं 'द बॉयज' टर्म इस्तेमाल होता था। NY टाइम्स के पत्रकार डेक्लन वॉल्श ने पाकिस्तान पर एक किताब लिखी है 'द नाइन लाइव्स ऑफ़ पाकिस्तान।' इसमें वॉल्श लिखते हैं, 'आम पाकिस्तानियों के लिए ISI एक अजीब पहेली थी - कुछ लोग उसे बैक्टीरिया की तरह डर पैदा करने वाला मानते थे, कुछ एंटीबायोटिक की तरह ज़रूरी। लोग इसके बारे में फुसफुसाते थे लेकिन नाम लेने से कतराते थे। ISI के बारे में खुलकर बात करना लगभग मना था। ISI का पूर्व एजेंट मेजर इफ्तिख़ार जब पहली बार इस ख़ुफ़िया दुनिया में दाखिल हुआ, तो बाहरी दुनिया से इसका फ़र्क़ साफ़ था। ISI के ऑफिस में कोई साइनबोर्ड नहीं होता था। ना कमरों पर कोई नंबर नहीं। ना डिपार्टमेंट का कोई नाम। अंदर हवा में कोई गंध नहीं थी। लोग हॉल में ऐसे घूमते थे जैसे किसी कॉर्पोरेट कंपनी के कर्मचारी हों, जासूस नहीं। हर कोई सिर्फ़ पहले नाम का इस्तेमाल करता था। असली असाइनमेंट के बारे में तयशुदा जगहों के बाहर कोई बात नहीं होती थी। भर्ती होने वालों को क़सम खिलाते हुए अंगूठे का निशान लिया जाता था - राज़दारी पर फिंगरप्रिंट। यह सिर्फ़ एक एजेंसी नहीं थी। यह एक पहचान थी, जो राज़दारी की बुनियाद पर टिकी थी।'

 

क्वेटा जैसी जगहों पर दफ़्तर कोड नामों से चलते थे - ऑपरेशन्स के लिए 'सेक्शन 944', काउंटर-इंटेलिजेंस के लिए 'सेक्शन 9341' (जो विदेशी जासूसों पर नज़र रखता था), कश्मीर के लिए सेक्शन ‘25’ और सबसे ख़ुफ़िया 'सेक्शन 21' जिसे अफ़ग़ान तालिबान से डील करने के लिए बनाया गया था। ISI कोई एक अकेली इकाई नहीं, बल्कि कई हिस्सों में बंटा एक जटिल जाल है। हर हिस्से का अपना काम, अपना टारगेट। 

 

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JIX (ज्वाइंट इंटेलिजेंस डायरेक्ट्रेट): यह है ISI का दिमाग। सारे ऑपरेशन यहीं से प्लान होते हैं, सारी जानकारी यहीं जमा होती है और यहीं से हुक्म जारी होते हैं।

JIB (ज्वाइंट इंटेलिजेंस ब्यूरो): इसका ख़ास निशाना है - भारत। भारत के अंदर जासूसी करना, एजेंट भर्ती करना, ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना और भारत विरोधी गुटों को मदद देना, ये सब JIB की ज़िम्मेदारियां बताई जाती हैं। कश्मीर डेस्क, जो भारत के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है, इसी विंग का हिस्सा माना जाता है।

JCIB (ज्वाइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो): इसका काम है घर की हिफ़ाज़त। यानी पाकिस्तान के अंदर विदेशी जासूसों, ख़ासकर R&AW के एजेंटों, को पकड़ना और ISI के अपने राज़ महफ़ूज़ रखना।
JIN (ज्वाइंट इंटेलिजेंस नॉर्थ): यह विंग ख़ास तौर पर कश्मीर और अफ़ग़ानिस्तान बॉर्डर पर सक्रिय है। आतंकियों की घुसपैठ कराना, ट्रेनिंग कैंप चलाना और प्रॉक्सी वॉर को अंजाम देना - ये सब JIN के खाते में जाता है।
JSIB (ज्वाइंट सिग्नल इंटेलिजेंस ब्यूरो): ये हैं ISI के कान। दुश्मन की फ़ोन कॉल्स, वायरलेस मैसेज, ईमेल, इंटरनेट ट्रैफ़िक - सब पर नज़र रखना इनका काम है। इनके पास वह तकनीक है जो हज़ारों मील दूर की फुसफुसाहट भी पकड़ सकती है।
JIM (ज्वाइंट इंटेलिजेंस मिसलेनियस): यह विंग दुनिया के बाकी हिस्सों पर नज़र रखती है - मिडिल ईस्ट, यूरोप, अमेरिका। डिप्लोमैटिक मिशनों में ISI के एजेंट अक्सर इसी विंग के तहत काम करते हैं।
पॉलिटिकल विंग: यह ISI का वह चेहरा है जिसे पाकिस्तान के नेता सबसे ज़्यादा नापसंद करते हैं। इसका काम मुल्क की सियासत पर नज़र रखना, नेताओं की ख़रीद-फ़रोख़्त करना, चुनावों में दखल देना और ज़रूरत पड़ने पर तख़्तापलट में मदद करना है।
इन विंग्स के अलावा ISI के हज़ारों कर्मचारी, मुखबिर और एजेंट पूरे पाकिस्तान और दुनिया भर में फैले हुए हैं। 

ISI के जासूस कैसे तैयार होते हैं? 

 

ज़्यादातर एजेंट पाकिस्तानी सेना, नेवी या एयरफ़ोर्स से आते हैं। आर्मी इंटेलिजेंस (MI) के तजुर्बेकार अफ़सरों को तरजीह दी जाती है। हालांकि, युवाओं को भर्ती करने का अलग तरीका है। यह सफ़र मरी हिल्स में पाकिस्तान आर्मी के स्कूल ऑफ़ मिलिट्री इंटेलिजेंस, क्लिफ़डेन कैंप से शुरू होता है। एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट-क्लार्क की 'स्पाई स्टोरीज़' के अनुसार ISI के पास अपने ज़्यादातर फुल-टाइम ट्रेनर नहीं होते। वह सेना की परंपराओं पर निर्भर करती है: 'पाकिस्तान को बढ़ावा दो। भारत को तबाह करो।' यह उनका सीधा और क्रूर मिशन स्टेटमेंट है। 

 

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इफ्तिख़ार जैसे युवा ऑपरेटिव यहीं सब कुछ सीखते थे: एसेट यानी मुखबिर या एजेंट कैसे भर्ती करें। भीड़ में 'ब्रश-पास्ट' मीटिंग यानी चलते-फिरते गुप्त मुलाक़ात कैसे करें। बिना निशान छोड़े घरों में कैसे घुसें। पूरी नकली पहचान और कहानी कैसे बनाएं। हथियार चलाना, बम बनाना-डिफ्यूज़ करना, ताले तोड़ना, ख़ुफ़िया कोड बनाना-समझना, भेष बदलना, पीछा करना-छुड़ाना, जासूसी के उपकरण इस्तेमाल करना - ये सब ट्रेनिंग का हिस्सा है। दुश्मन देश (ख़ासकर भारत) की भाषाएं (हिंदी, पंजाबी, कश्मीरी), वहां का कल्चर, भूगोल, राजनीति, सेना की बनावट - हर चीज़ की बारीक जानकारी दी जाती है।

 

यह ट्रेनिंग सिर्फ़ फ़ौजियों तक सीमित नहीं होती। पाकिस्तान के शहरों और कस्बों में कई ख़ुफ़िया ट्रेनिंग सेंटर हैं, जिन्हें अक्सर आम स्कूल या संस्थान के रूप में छिपाया जाता है। इन्हें "घोस्ट स्कूल" कहा जाता है। युवाओं को बिना बताए चुना जाता है, उन्हें कभी पूरी तरह बताया नहीं जाता कि उनका असली मक़सद क्या है। लेवी और क्लार्क की किताब के अनुसार, ISI ट्रेनिंग में इस्लाम का इस्तेमाल भी होता है। मौलवी सिखाते हैं कि कैसे क़ुरान की आयतों का हवाला देकर जासूसी और धोखे को 'जिहाद' का हिस्सा बताया जा सकता है। यह सिखाया जाता है कि मुल्क और इस्लाम के लिए जासूसी करना न सिर्फ़ जायज़ है, बल्कि एक फ़र्ज़ है।

 

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ट्रेनिंग पूरी होने के बाद रंगरूटों को फील्ड पर उतारा जाता है। नकली पहचान के साथ बाज़ारों, यूनिवर्सिटी, मॉल में। जहां वे 'डेड ड्रॉप' यानी गुप्त रूप से जानकारी के आदान-प्रदान की प्रैक्टिस करते हैं। कई बार परीक्षा भी होती है। शुरुआत में हमने आपको अशरफ़ की कहानी बताई थी। लेवी और क्लार्क की किताब में अशरफ़ बताता है- ट्रेनिंग के दौरान कभी-कभी इंस्ट्रक्टर उन्हें बिना पैसे या पहचान पत्र के बेस से मीलों दूर छोड़ देते थे। उन्हें अपनी सूझबूझ से वापस पहुंचना होता था। एक बार अशरफ़ और उसके साथी सड़क किनारे सामान बेचने वाले का भेष बनाए हुए थे। उन्हें असली पुलिस ने पकड़ लिया और रिश्वत मांगी। आदेश था कि कवर नहीं तोड़ना है। उन्हें असली जेल हुई और मार भी पड़ी। बाद में एक ISI इंस्ट्रक्टर ने चुपके से उनकी रिहाई का इंतज़ाम किया। 

ये जासूस आगे चलकर काम क्या करते हैं? कुछ उदाहरणों से समझिए


डेक्लन वॉल्श की किताब 'द नाइन लाइव्स ऑफ़ पाकिस्तान' के अनुसार, क्वेटा- बलूचिस्तान का यह शहर जासूसी और साज़िशों का गढ़ माना जाता है। यहां ISI की काउंटर-इंटेलिजेंस यूनिट, 'सेक्शन 9341', विदेशी जासूसों, खासकर CIA एजेंटों पर नज़र रखने के लिए पुराने लेकिन असरदार तरीक़े इस्तेमाल करती थी। पत्रकार डेक्लन वॉल्श बताते हैं कि जब वह क्वेटा के सेरेना होटल में ठहरे, तो ISI अफ़सर वेटर बनकर लॉबी में मंडराते रहते थे। देर रात बगल के कमरों से दीवारों के ज़रिए बातें सुनने की कोशिश करते थे। होटल मैनेजमेंट मजबूर था। 2006 में एक विदेशी पत्रकार इसी होटल के कमरे में हमला हुआ था। 2012 में जब वॉल्श पाकिस्तान में थे, उनकी लगातार निगरानी होती थी। कम से कम चार लोग लगातार उनका पीछा कर रहे थे। रात में इस्लामाबाद के ISI दफ़्तर से उनके ईमेल इंटरसेप्ट किए जा रहे थे। वॉल्श को बाद में पता चला कि होटल लॉबी में गर्मजोशी से मिलने वाला अब्दुल्ला नाम का पुलिस इंस्पेक्टर असल में एक अंडरकवर ISI अफ़सर था, जो पूरी निगरानी को ऑपरेट कर रहा था। टीम ने एक स्थानीय कंप्यूटर साइंस लेक्चरर को भी काम पर लगाया था ताकि जब वॉल्श पुलिस चीफ़ का इंटरव्यू ले रहे हों, तो वह उनकी कार की पिछली सीट पर बैठकर वॉल्श के लैपटॉप की एन्क्रिप्शन तोड़ने की कोशिश करे!

 

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सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं, CIA एजेंट भी निशाने पर थे। 'जॉर्ज' नाम का एक CIA अफ़सर कथित तौर पर आतंकवाद विरोधी सहयोग के लिए क्वेटा आया लेकिन ISI ने उस पर कड़ी नज़र रखी। उसका फ़ोन टैप किया गया, कार का पीछा किया गया, सेफ़ हाउस में उसकी मुलाक़ातों की निगरानी हुई। ISI के लोग चौराहों पर भिखारी बनकर भी टारगेट पर नज़र रखते थे। मीट बेचने वाले, टैक्सी ड्राइवर और दूसरे आम दिखने वाले नागरिक अक्सर इस निगरानी नेटवर्क का हिस्सा होते थे। ये लो-टेक तरीक़े मॉडर्न जासूसी तकनीक के ख़िलाफ़ भी हैरान करने वाले रूप से कारगर साबित होते थे। क्वेटा में जासूसी की दुनिया ऐसी ही थी - जहां सबसे पुराने तरीक़े अक्सर सबसे नई तकनीक को मात दे देते थे।

आवाज़ दबा देना 

 

ISI कहने को दुनिया के नंबर 1 ख़ुफ़िया एजेंसी है। हो भी क्यों ना। हर देश में ख़ुफ़िया एजेंसी होती हैं। देश के दुश्मनों से लड़ने के लिए लेकिन ISI का तरीका दूसरा है। ISI पाकिस्तान से बाहर जितनी एक्टिव रहती है। उससे ज़्यादा पाकिस्तान के लोगों को उसका क़हर सहना पड़ता है। कुछ देर पहले हमने ISI एजेंट अशरफ़ का जिक्र किया था। एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट-क्लार्क अपनी किताब में बताते हैं कि अशरफ़ ने ISI का एजेंट रहते हुए कई चीजें देखीं, मसलन उसने बेसमेंट की गुप्त जेलों में बंदियों को महीनों अंधेरे में सड़ते देखा। बिना इलाज के मरते देखा। उसने सुना कि कैसे कुछ क़ैदियों को पहाड़ों पर ले जाकर मार दिया जाता है।

 

उसने ISI अफसरों को बंदियों के परिवारों और व्यापारियों से रिश्वत लेते देखा। बॉर्डर पर तस्करी में हिस्सा लेते देखा। अशरफ़ ख़ुद एक पश्तून था। उसने देखा कि ISI में पंजाबियों का दबदबा था जबकि बलूचों-पश्तून लड़कों को छोटे-मोटे काम पकड़ाकर किनारे लगा दिया जाता था। अशरफ़ ने बताया कि 90 के दशक से ही ISI आम पश्तूनों को कुचल रही थी जबकि अफ़ग़ान तालिबान को समर्थन दे रही थी।

 

ISI के हेडक्वार्टर में प्रतिबंधित आतंकी गुटों के लीडर मीटिंग के लिए आते थे। अशरफ़ बताता है कि आतंकी सरगना बेरोकटोक ऑफिस में घुसते थे और वहीं सारी प्लानिंग होती थी। इन्हीं तमाम कारणों के चलते अशरफ़ ने ISI छोड़ दी लेकिन ISI ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंत में वह जान बचाकर विदेश भाग गया। ISI कैसे अपने ही लोगों को निशाना बनाती है। इसका बड़ा उदाहरण हैं अस्मा जहांगीर। 

 

मई 2011 में ओसामा बिन लादेन ऐबटाबाद में मारा गया। यह पाकिस्तानी फ़ौज और ISI के लिए बड़ी शर्मिंदगी थी। इस बात पर उन्हें घर के अंदर भी विरोध सहना पड़ा। मानवाधिकार वकील अस्मा जहांगीर ने तीखी आलोचना की। उन्होंने जनरलों को "ख़तरनाक और निकम्मे" कहा और आरोप लगाया कि इन्हें शामियाने सजाने से फुर्सत नहीं है।

 

मई 2012 में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी CIA को खबर मिली कि ISI ऑपरेटिव अस्मा को "ख़त्म" करने की साज़िश रच रहे थे। अस्मा अक्सर भारत आती रहती थीं। ISI का प्लान था कि इंडिया के किसी फंक्शन के दौरान अपने ऑपरेटिव से उन्हें मरवा दें। जब यह बात सामने आई, अस्मा ने डरने की बजाय टीवी पर आकर इस साज़िश का पर्दाफ़ाश कर दिया। बाद में स्नोडेन लीक्स से इस ख़बर की पुष्टि भी हुई। आम लोगों को ISI द्वारा निशाना बनाए जाने के ऐसे कई उदाहरण हैं लेकिन ISI की असली ताक़त सत्ता के कंट्रोल से आती है।

 
तानाशाही वाले देशों में अक्सर पब्लिक को बोलने का अधिकार नहीं होता। पाकिस्तान में ऐसा नहीं है। आम जानता जमकर गाली दे सकती है लेकिन सिर्फ़ राजनेताओं को। ISI और आर्मी के लिए वहां एक अलग शब्द इस्तेमाल होता है - एस्टेब्लिसमेंट। यह एस्टेब्लिशमेंट ही पाकिस्तान में असली ताक़त है और यह ताक़त बरकरार कैसे रखी जाती है। ISI के बल पर।
 
कौन प्रधानमंत्री बनेगा, कौन नहीं, इसमें ISI का दखल माना जाता है। फ़ौजी हुकूमतों (अयूब, ज़िया, मुशर्रफ़) में तो ISI सीधे तौर पर सियासी विरोधियों को दबाती थी लेकिन लोकतांत्रिक सरकारों में भी ISI का असर कम नहीं हुआ है। इमरान ख़ान के हश्र से हम सभी वाक़िफ़ हैं। इमरान के पतन की शुरुआत ही वहीं से हुई थी जब उन्होंने ISI के चीफ के नियुक्ति का विरोध करना शुरू किया था। इससे पहले 1990 के दशक में बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ़, कई बार ISI पर पार्टी तोड़ने और उनके ख़िलाफ़ साज़िश रचने के आरोप लगा चुके हैं। "स्पाय स्टोीज" बताती है कि कैसे 1990 के दशक में ISI ने भुट्टो की पार्टी के ख़िलाफ़ दूसरी पार्टियों को करोड़ों रुपये बांटे और मीडिया में उनके ख़िलाफ़ कैंपेन चलाया। मुशर्रफ़ के दौर में नवाज़ शरीफ़ को हटाकर जेल में डाला गया और फिर सऊदी अरब निर्वासित कर दिया गया। पाकिस्तान की इंटरनल पॉलिटिक्स के बाद अब भारत के मामले में ISI का रोल समझते हैं। 

भारत vs ISI

 

भारत हमेशा से ISI का मुख्य निशाना रहा है। उसे कमज़ोर करने के लिए ISI ने दशकों तक प्रॉक्सी वॉर यानी आतंकी गुटों का सहारा लिया। 1980 के दशक में जब पंजाब ख़ालिस्तान की आग में जल रहा था, ISI पर सिख अलगाववादियों को हथियार, ट्रेनिंग और पैसा देने के आरोप लगे। मक़सद था भारत को एक और मोर्चे पर उलझाना और कमज़ोर करना। 1989 में ISI ने हिज़्बुल मुजाहिदीन को खड़ा किया, हथियार दिए, पैसा दिया। जब HM कमज़ोर पड़ने लगा तो ISI ने लश्कर ए तैयबा और जैश ए मोहम्मद जैसे आतंकी गुटों को कश्मीर में ज़्यादा सक्रिय कर दिया। ये ज़्यादा कट्टर और ख़तरनाक माने जाते थे। हाफ़िज़ सईद (LeT) और मसूद अज़हर (JeM) ISI के ख़ास मोहरे बन गए।

 

कंधार विमान अपहरण, भारत की संसद पर हमला, मुंबई में 26/11 अटैक, पठानकोट एयरबेस अटैक ,पुलवामा (2019) पिछले तीन दशक में भारत में हुए तमाम आतंकी हमलों में ISI समर्थित गुटों LeT और JeM का हाथ था। आतंकी हमले करने के अलावा ISI एजेंट्स भारत में मुखबिरी का काम भी करते हैं। इंटरनेट युग में इसके लिए हनी ट्रैप का इस्तेमाल ज़्यादा होने लगा है। इसी साल यानी 2025 मार्च की घटना है। UP ATS ने फिरोजाबाद की आर्डिनेंस फैक्ट्री के एक कर्मचारी को गिरफ्तार किया। आरोप था कि यह शख्स नेहा नाम की एक लड़की को गुप्त जानकारी पहुंचा रहा था। जो असल में ISI की ऑपरेटिव थी। एक इकलौता केस नहीं है।
 
2024 में UP ATS ने ही मॉस्को एंबेसी में काम करने वाले एक भारतीय कर्मचारी को पकड़ा जब वह अपने गांव आया हुआ था। पूजा नाम की लड़की ने इस कर्मचारी से फेसबुक पर बात की, दोस्ती हुई और धीरे-धीरे वह ख़ुफ़िया जानकारी पूजा को देने लगा। गेस करना आसान है कि पूजा भी नकली नाम था और असल में लड़की ISI ऑपरेटिव थी। पिछले सालों में ATS 125 ऐसी लड़कियों की पहचान कर चुका है, जिन पर ISI ऑपरेटिव होने का शक था और फेसबुक में इनमें से हर किसी की फ़्रेंड लिस्ट में कोई ना कोई आर्मी ऑफिसर मौजूद था। 

हनी ट्रैपिंग होती कैसे है?

 

IB के पूर्व ऑफिसर बालकृष्ण कामथ, टाइम्स ऑफ़ इंडिया से बातचीत में बताते हैं, 'ISI VoIP प्रोटोकॉल का इस्तेमाल करती है। जिनसे फ़ोन पर बात करने में कंट्री कोड नहीं पता चलता। थाईलैंड, श्रीलंका, इंडोनेशिया से ये कॉल किए जाते हैं।' ISI एजेंट्स सोशल मीडिया प्रोफाइल पर नज़र रखते है। वे लगभग 10 से 15 लोगों को चुनते हैं और उनकी शिक्षा और जानकारी के अनुसार, एजेंटों को सौंपते हैं ताकि बातचीत में आसानी रहे। कामथ के अनुसार, शिकार से रिएक्शन आने में महीनों लग सकते हैं। शक से बचने के लिए, वे अक्सर थाईलैंड या यूरोप जैसे देशों में काम करने का दावा करते हैं।
 
पांच साल पहले, एक IAF ग्रुप कैप्टन फेसबुक पर हनी ट्रैप का शिकार हो गया था। एक नकली महिला प्रोफाइल, महिमा पटेल ने उससे पूछा था कि वह कैसे यकीन करे कि वह असली ग्रुप कैप्टन है। अपने पद की पहचान साबित करने के लिए, उसने गोपनीय जानकारी लीक कर दी थी। ISI के हनी ट्रैप्स में सिर्फ़ मर्द ही नहीं महिलाएं भी फंसती हैं। 2010 में, इस्लामाबाद में भारतीय दूतावास में काम करने वाली IFS अधिकारी माधुरी गुप्ता के साथ ऐसा ही हुआ। एक ISI एजेंट ने झांसा देकर उनसे ख़ुफ़िया जानकारी उगलवा ली थी।

 

ISI भारत के लिए हमेशा चुनौती रहा है और पाकिस्तान के साथ किसी भी मसले पर डील करते समय ISI का रोल काफ़ी अहम रहता है क्योंकि यह सिर्फ़ एक ख़ुफ़िया एजेंसी नहीं, बल्कि एक ऐसी ताक़त है जिसने पाकिस्तान की सियासत, समाज और बाहरी दुनिया से उसके रिश्तों को अपनी मुट्ठी में जकड़ा हुआ है।