6 सितंबर, 1965। रात का अंधेरा और गोलियों की लगातार आवाज। सामने थी इच्छोगिल नहर – लाहौर शहर की रखवाली करती एक मजबूत दीवार। इसे पार करना बहुत जोखिम भरा था। नहर का पानी तेज था और दूसरी तरफ दुश्मन मजबूत पोजीशन में बैठा था।


4 सिख बटालियन के सूबेदार अजीत सिंह ने अपने साथियों को देखा। हुक्म साफ था - नहर पार करनी है और सामने दिख रहे बरकी गांव पर कब्जा करना है। हिम्मत करके अजीत सिंह सबसे पहले नहर के ठंडे पानी में उतरे। तैरकर दूसरी तरफ पहुंचे। दुश्मन की मशीन गन लगातार गोलियां बरसा रही थी। उन्होंने अपनी स्टेन गन संभाली और अकेले ही दुश्मन के बंकर की तरफ बढ़े। दुश्मन हैरान रह गया। कुछ ही पलों में वह बंकर शांत हो चुका था।

 

यह देखकर बाकी जवानों का हौसला बढ़ा। वे भी नहर पार करके आ गए। फिर आमने-सामने की लड़ाई शुरू हुई। संगीनें निकल आईं। दुश्मन ज्यादा देर टिक नहीं सका। बरकी गांव अब भारत के कब्जे में था। यहां से लाहौर शहर की रोशनियां सिर्फ 8 मील दूर नजर आ रही थीं।

 

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बरकी पर कब्जे के साथ लाहौर की तरफ पहला बड़ा कदम बढ़ चुका था। अगले कुछ दिनों में भारतीय सेना ने वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद शायद पाकिस्तान को भी नहीं थी। सेना लाहौर शहर के दरवाजे पर थी लेकिन यहां से कहानी एक जटिल मोड़ लेने वाली थी।

1965 युद्ध में भारतीय फौज कैसे लाहौर तक पहुंची और फिर लौट क्यों आई? जानेंगे आज के इस लेख में। 


1965: ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम
 
साल 196 में पाकिस्तान को यह गलतफहमी हो गई थी कि 1962 में चीन से मिली हार के बाद भारत बहुत कमजोर हो चुका है। साथ ही, उन्हें यह भी लगता था कि कश्मीर के लोग भारत से अलग होकर पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते हैं। इसी सोच के साथ पाकिस्तान ने अपना पहला कदम उठाया। अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने चोरी-छिपे ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया। हजारों पाकिस्तानी सैनिकों को घुसपैठियों के भेष में कश्मीर में भेजा गया। उनका मकसद था कश्मीर में अंदर ही अंदर बगावत भड़काना और फिर मौके का फायदा उठाकर उस पर कब्जा कर लेना लेकिन पाकिस्तान का यह दांव उल्टा पड़ गया। कश्मीर के आम लोगों ने इन घुसपैठियों का साथ देने के बजाय भारतीय सेना को उनकी मौजूदगी की खबर दे दी। सेना ने तुरंत कार्रवाई करके इस घुसपैठ को नाकाम करना शुरू कर दिया।

 

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जब ऑपरेशन जिब्राल्टर फेल होता दिखा, तो पाकिस्तान और बौखला गया। अब उन्होंने खुलकर हमला करने की ठानी। 1 सितंबर 1965 को पाकिस्तानी सेना ने टैंकों और तोपों के साथ जम्मू के पास अखनूर सेक्टर पर जोरदार हमला बोल दिया। इस हमले को नाम दिया गया ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम। उनका सीधा इरादा था अखनूर पर कब्जा करके कश्मीर को भारत से जोड़ने वाली सप्लाई लाइन को काट देना। अगर पाकिस्तान इसमें कामयाब हो जाता, तो कश्मीर को भारत के हाथ से निकल जाने का खतरा था।

 

अब भारत के सामने एक बड़ी चुनौती थी। कश्मीर को हर हाल में बचाना था। प्रधानमंत्री थे लाल बहादुर शास्त्री लेकिन सेना के शीर्ष नेतृत्व में इस बात पर मतभेद था कि जवाब कैसे दिया जाए। तत्कालीन आर्मी चीफ जनरल जे.एन. चौधरी चाहते थे कि पाकिस्तानी हमले का सामना अखनूर के आसपास ही किया जाए लेकिन वेस्टर्न कमांड के प्रमुख, लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह की सोच अलग थी।

 

शिव कुणाल वर्मा अपनी किताब '1965: अ वेस्टर्न सनराइज' में बताते हैं, 'जनरल हरबख्श सिंह का मानना था कि पाकिस्तान को रोकने का सबसे प्रभावी तरीका पलटवार करना है - सीधा पंजाब से, लाहौर की तरफ।' कहा जाता है कि जब जनरल चौधरी इसे लेकर हिचकिचा रहे थे तो जनरल हरबख्श ने प्रधानमंत्री शास्त्री से सीधे बात करने की अनुमति तक मांगी। आखिरकार, जनरल हरबख्श सिंह की रणनीति को हरी झंडी मिली। 3 सितंबर को उन्हें पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने की अनुमति मिल गई।

 

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प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी सेना को कार्रवाई की छूट दी। दुश्मन को उसी के तरीके से जवाब देने का आदेश दिया गया। मकसद साफ था - पाकिस्तान पर इतना दबाव बनाओ कि वह कश्मीर से अपनी फौजें हटाने पर मजबूर हो जाए और इस बड़े जवाबी हमले का मुख्य निशाना चुना गया - लाहौर। 6 सितंबर, 1965 की सुबह होते ही भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पार की और लाहौर की ओर बढ़ना शुरू कर दिया। इस कदम ने दुनिया को चौंका दिया। किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि भारत इतना बड़ा कदम उठाएगा। जंग का एक नया मैदान खुल चुका था – लाहौर का मैदान।

लाहौर चलो! 

 

6 सितंबर 1965 की सुबह। भारतीय सेना की ग्यारह कोर (XI Corps) – जिसमें हजारों सैनिक, टैंक और तोपें शामिल थीं – तीन मुख्य रास्तों से लाहौर की ओर बढ़ी। मुख्य हमला अमृतसर-लाहौर ग्रैंड ट्रंक (GT) रोड पर था। योजना सीधी थी: तेजी से आगे बढ़ो, दुश्मन को संभलने का मौका मत दो। पाकिस्तानी सेना इस हमले के लिए तैयार नहीं थी। उनका सारा ध्यान कश्मीर पर था। जब भारतीय टैंक और जवान अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके उनकी जमीन पर दाखिल हुए तो वे हैरान रह गए। शुरुआती कुछ घंटों में भारतीय सेना को तेजी से बढ़त मिली। कई पाकिस्तानी चौकियां या तो खाली मिलीं या वहां मौजूद सैनिकों ने थोड़ा बहुत ही प्रतिरोध किया। 5 और 6 सितंबर की रात को ही भारतीय सेना बॉर्डर लांघकर लाहौर के एयरपोर्ट के काफी नजदीक तक पहुंच गई थी। लगा कि लाहौर बस कुछ ही दूर है लेकिन लाहौर शहर से ठीक पहले खड़ी थी एक बड़ी रुकावट – इच्छोगिल नहर। यह कोई मामूली नहर नहीं थी बल्कि पाकिस्तान द्वारा भारत से अपनी सुरक्षा के लिए खास तौर पर बनाई गई एक विशाल रक्षा पंक्ति थी। करीब 15 फीट गहरी और 120 फीट चौड़ी। यह नहर भारत-पाकिस्तान सीमा के करीब-करीब समानांतर बहती हुई लाहौर को सुरक्षा कवच की तरह घेरे हुए थी। इसके पश्चिमी किनारे (लाहौर की तरफ) मजबूत कंक्रीट के बंकर थे, जिनमें मशीन गनें और टैंकों को निशाना बनाने वाले हथियार लगे थे। अपनी इसी मजबूती के कारण इसे कई बार 'पाकिस्तान की बर्लिन वॉल' भी कहा गया – एक ऐसी रुकावट जिसे पार करना बहुत मुश्किल समझा जाता था।

 

मगर भारतीय सैनिकों के हौसले बुलंद थे। GT रोड पर 3 जाट बटालियन ने दुश्मन को चौंकाते हुए सुबह-सुबह ही नहर के एक पुल पर कब्जा किया और उसे पार कर लिया। वहीं, 4 सिख बटालियन ने खालड़ा-बरकी मोर्चे पर बरकी गांव के पास नहर पार की और दुश्मन पर हमला कर दिया। कुछ ही घंटों के अंदर भारतीय सेना कई जगहों पर इच्छोगिल नहर के पार पहुंच चुकी थी। दुश्मन के खेमे में हड़कंप था। लाहौर शहर में खतरे के सायरन बजने लगे।

 

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हालांकि, यह शुरुआती कामयाबी ज्यादा देर कायम नहीं रही। पाकिस्तानी सेना अब शुरुआती झटके से उबर चुकी थी और उसने पलटवार करना शुरू कर दिया। उनके लड़ाकू विमानों ने भारतीय ठिकानों पर बम बरसाने शुरू कर दिए। नहर पार कर चुकी भारतीय टुकड़ियों पर दुश्मन का दबाव बढ़ने लगा। खास तौर पर GT रोड पर, जहां 3 जाट बटालियन ने नहर पार की थी, दुश्मन के जोरदार हमले के कारण उन्हें वापस नहर के पूर्वी किनारे पर लौटना पड़ा। बरकी में भी हालात मुश्किल होने लगे थे।

 

लाहौर का रास्ता खुलता तो दिख रहा था लेकिन इच्छोगिल नहर एक बड़ी बाधा साबित हो रही थी। अब लड़ाई इस नहर पर कब्जा करने और उसे बनाए रखने की थी। जंग का शायद सबसे मुश्किल दौर अब शुरू होने वाला था, जिसका केंद्र था- GT रोड पर स्थित डोगराई।


डोगराई की लड़ाई 

 

6 सितंबर को डोगराई पर मिली शुरुआती कामयाबी ज्यादा देर नहीं टिकी। दुश्मन के दबाव में 3 जाट बटालियन को इच्छोगिल नहर के पूर्वी किनारे पर वापस लौटना पड़ा। GT रोड पर लाहौर जाने का रास्ता फिर से बंद हो गया। डोगराई अब पाकिस्तानी सेना के कब्जे में था और वे जानते थे कि भारतीय सेना इसे वापस लेने जरूर आएगी। इसलिए उन्होंने अगले दो हफ्तों में डोगराई को एक मजबूत किले में बदल दिया – नई खाइयां खोदी गईं, बंकर मजबूत किए गए, कंटीले तारों की बाड़ें लगा दी गईं और अतिरिक्त सैनिक तैनात कर दिए गए।
इधर भारतीय खेमे में भी बेचैनी थी। 3 जाट बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर, लेफ्टिनेंट कर्नल डेसमंड हेड, डोगराई को वापस जीतने के लिए दृढ़ थे। हायडे अपनी दिलेरी और अपने जवानों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर लड़ने के लिए जाने जाते थे। वह सिर्फ योजना बनाने वाले कमांडर नहीं थे, बल्कि जंग के मैदान में आगे रहने वाले लीडर थे। उन्होंने अपने अफसरों से कहा था, 'अगर तुम सब भाग भी गए, तब भी मैं जंग के मैदान में अकेला खड़ा रहूंगा।'


 
इसी बीच, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जंग रोकने का दबाव बढ़ रहा था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद दोनों देशों से लगातार लड़ाई रोकने की अपील कर रहा था। 20 सितंबर तक यह लगभग साफ हो गया था कि जल्द ही युद्ध विराम लागू हो सकता है। हेड और उनके सीनियर्स जानते थे कि अगर डोगराई को वापस लेना है तो अब ज्यादा समय नहीं बचा है। युद्ध विराम से पहले GT रोड पर कब्जा करना रणनीतिक रूप से जरूरी था।

 

तुरंत फैसला लिया गया। 21 सितंबर की रात को ही डोगराई पर फिर से हमला किया जाएगा। यह एक बेहद खतरनाक मिशन था। दुश्मन तैयार था, मजबूत किलेबंदी में। रात के अंधेरे में हमला करना था, जिसमें गलती की गुंजाइश नहीं थी लेकिन 3 जाट के जवानों के हौसले बुलंद थे।

 

21 सितंबर की आधी रात के बाद, करीब डेढ़ बजे, हमला शुरू हुआ। भारतीय तोपों ने डोगराई पर गोले बरसाने शुरू किए। फिर अंधेरे में 3 जाट के जवान 'जाट बलवान, जय भगवान!' के नारे के साथ दुश्मन पर टूट पड़े। कर्नल हेड खुद अपने जवानों के साथ आगे बढ़ रहे थे, उनका जोश बढ़ा रहे थे।

 

डोगराई की वह रात बेहद मुश्किल थी। लड़ाई जल्द ही बंदूकों और गोलियों से आगे बढ़कर हाथापाई तक पहुंच गई। दुश्मन अपनी खाइयों और बंकरों से जमकर मुकाबला कर रहा था। उन्हें वहां से निकालने के लिए भारतीय जवानों को खाइयों में उतरना पड़ा। धूल, धुएं, बारूद की गंध और खून-पसीने के बीच संगीनें चमक उठीं। हर तरफ शोर और अफरातफरी थी। जवान इंच-इंच जमीन के लिए लड़ रहे थे। कई जवान इस हाथापाई में बुरी तरह घायल हुए, किसी के कपड़े फट गए, कोई धूल और मिट्टी में सन गया पर इरादे नहीं बदले।


ब्रिगेडियर हायडे ने बाद में बताया, 'दुश्मन खाई से लड़ रहा था। उनके पास खाई से निकलने की कोई वजह नहीं थी और हमारे लिए जरूरी था कि हम उन्हें खाइयों से बाहर निकालें।' यह काम भारतीय जवानों ने अपनी जान पर खेलकर किया।

 

पूरी रात यह भीषण संघर्ष चलता रहा। सुबह का उजाला होते-होते, 22 सितंबर को करीब 5:30 बजे, डोगराई एक बार फिर भारतीय सेना के कब्जे में था। दुश्मन कमजोर पड़ चुका था। 3 जाट ने पाकिस्तानी कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल गोलवाला समेत 108 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बना लिया। पाकिस्तान के 300 से ज्यादा सैनिक इस लड़ाई में मारे गए। भारत ने भी अपने 86 सैनिक खो दिए जबकि कई अन्य घायल हुए। थके हुए, धूल में सने लेकिन जीत के जज्बे से भरे भारतीय जवान अब डोगराई की जमीन पर खड़े थे।

 

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डोगराई की यह जीत एक बड़ी कामयाबी थी। इसने GT रोड पर इच्छोगिल नहर के पार भारत का नियंत्रण स्थापित कर दिया। पाकिस्तानी सेना का मनोबल काफी गिर चुका था। अगले एक दिन तक भारतीय सेना डोगराई से लाहौर शहर पर तोपों से गोले बरसाती रही। लाहौर शहर अब बिल्कुल सामने था।

 

लाहौर के दरवाजे पर भारतीय सेना
 
22 सितंबर 1965 की सुबह। डोगराई पर भारतीय सेना का नियंत्रण था। GT रोड पर इच्छोगिल नहर का सबसे महत्वपूर्ण पुल अब भारत के कब्जे में था। यहां से लाहौर शहर बस कुछ ही किलोमीटर दूर था। भारतीय सैनिक इतने करीब थे कि उन्हें लाहौर के बाहरी इलाके, जैसे बाटापुर, साफ नजर आ रहे थे। जीत के बाद अगले करीब 24 घंटे भारतीय तोपखाने ने डोगराई से लाहौर शहर के ऊपर गोले बरसाए। शहर में खलबली मची हुई थी। रिपोर्ट्स बताती हैं कि लाहौर में लोग डर के मारे शहर छोड़कर भागने लगे थे। पाकिस्तानी हुक्मरानों की चिंता बढ़ गई थी।

 

भारतीय फौज लाहौर के दरवाजे पर खड़ी थी। कमांडरों के बीच संदेशों का आदान-प्रदान तेज हो गया था। आगे बढ़ना है या रुकना है? कई जवान और जूनियर अफसर आगे बढ़ना चाहते थे। उन्हें लग रहा था कि बस एक और प्रयास करने की जरूरत है। किस्से सुनाए जाते हैं कि कुछ सैनिक इतने उत्साहित थे कि वे लाहौर जाकर चाय पीने की बातें कर रहे थे लेकिन फिर सेना आगे क्यों नहीं बढ़ी? और युद्धविराम क्यों स्वीकार किया गया? ये सवाल आज भी पूछे जाते हैं। इसके पीछे कई वजहें थीं। एक तो जीती हुई जगहों को सुरक्षित रखने और सप्लाई लाइन बनाए रखने की चुनौती। दूसरा, शहर के अंदर लड़ाई का खतरा और तीसरा, अंतरराष्ट्रीय दबाव और युद्धविराम की संभावना।

 

युद्ध विराम को लेकर एक महत्वपूर्ण वाकया 20 सितंबर के आसपास का बताया जाता है। शिव कुणाल वर्मा '1965: अ वेस्टर्न सनराइज' में लिखते हैं कि प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आर्मी चीफ जनरल चौधरी से पूछा, 'अगर युद्ध कुछ दिन और चले तो क्या भारत को एक उल्लेखनीय जीत मिल सकती है?' 

 

कथित तौर पर जनरल चौधरी का जवाब था कि आर्मी के पास गोला-बारूद खत्म हो रहा है, इसलिए अब और जंग लड़ पाना मुमकिन नहीं होगा। उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि भारत को संघर्ष विराम का प्रस्ताव मान लेना चाहिए। हालांकि, वर्मा और अन्य कई विश्लेषक बताते हैं कि बाद में यह बात सामने आई कि भारतीय सेना के गोला-बारूद का केवल 14 से 20 प्रतिशत ही इस्तेमाल हुआ था।

 

अंत में हुआ यह कि आखिरकार, 22 सितंबर की दोपहर को भारत ने युद्ध विराम स्वीकार कर लिया। पाकिस्तान ने भी अगले दिन हामी भर दी। 23 सितंबर, 1965 को दोपहर 3 बजे से युद्ध विराम लागू हो गया। भारतीय सेना जहां तक पहुंची थी, वहीं रुक गई। गोलियां चलना बंद हो गईं। सैनिकों के मन में मिली-जुली भावनाएं थीं – जंग खत्म होने की राहत भी थी और शायद लाहौर तक न पहुंच पाने का मलाल भी।

 

इसके बाद कूटनीति का दौर चला। सोवियत संघ की मध्यस्थता में जनवरी 1966 में ताशकंद में ताशकंद समझौता हुआ। भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान इस बात पर राजी हुए कि सेनाएं 5 अगस्त 1965 वाली स्थिति पर लौट जाएंगी।


इसका मतलब था कि भारत को डोगराई और हाजी पीर दर्रे जैसे जीते हुए इलाके पाकिस्तान को लौटाने पड़े। इस समझौते पर भारत में काफी सवाल उठे और दुखद रूप से, ताशकंद में ही समझौते के कुछ घंटों बाद प्रधानमंत्री शास्त्री का निधन हो गया।

 

1965 युद्ध के बाद का एक क़िस्सा है। युद्ध के बाद दिल्ली के सिख समुदाय ने बंगला साहिब गुरुद्वारे में प्रधानमंत्री शास्त्री और जनरल हरबख्श को सम्मानित किया। समुदाय ने शास्त्री को एक बड़ी तलवार भेंट की। शास्त्री ने वह तलवार तुरंत अपने बगल में बैठे जनरल हरबख्श सिंह को थमा दी और कहा, 'मैं तो धोती वाला आदमी हूँ, तलवार का क्या करूंगा? ये उसके लिए है जिसने जंग जीती है।'