बिहार की सियासत में एक समाज है, जिसकी आबादी तो महज़ 3 परसेंट के आस-पास है लेकिन हर चुनाव से पहले पटना से लेकर दिल्ली तक, इस समाज के समीकरणों पर बहुत चर्चा होती है। नाम है- भूमिहार। एक ज़माना था जब बिहार की राजनीति और भूमिहार, एक दूसरे के पर्याय हुआ करते थे लेकिन आज इनकी सियासी ताक़त की चर्चा इनके बिखराव और बेचैनी की वजह से होती है।

 

इस विरोधाभास को समझने के लिए, साल 1950 में चलते हैं। देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ज़मींदारी उन्मूलन कानून को लेकर हिचक रहे थे। उन्हें डर था कि ज़मींदार, जो कांग्रेस के बड़े मददगार थे, वे नाराज़ हो जाएंगे। तब बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने एक ऐसा फ़ैसला लिया जिसने सबको चौंका दिया। उन्होंने अपनी ही जाति के बड़े-बड़े ज़मींदारों और राजाओं के खिलाफ़ जाकर बिहार में देश का पहला ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून पास कर दिया। यह एक भूमिहार नेता का अपनी ही ताक़तवर जाति के खिलाफ़ एक ऐतिहासिक क़दम था लेकिन फिर 90 का दशक आते-आते ऐसा क्या हुआ कि 'बिहार के निर्माता' कहे जाने वाले इसी समाज को अपनी ही ज़मीन पर बंदूक उठानी पड़ गई? परशुराम का वंशज होने का दावा करने वाली इस जाति के हाथों में कलम और ज़मीन की जगह हथियार कैसे आ गए और कैसे कांग्रेस की रीढ़ माना जाने वाला ये समाज, आज हिंदुत्व की सियासत में अपनी नई जगह तलाश रहा है?

पहचान की पहेली

 

भूमिहार कौन हैं? क्या वे ब्राह्मण हैं, राजपूत हैं या फिर कोई और जाति? यह एक ऐसा सवाल है जो दशकों से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की सियासत और समाज में गूंजता रहा है। इसी एक सवाल ने बड़ी-बड़ी बहसें खड़ी की हैं और कई बार सामाजिक तनाव भी पैदा किया है। जब इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश की जाती है तो भूमिहार समाज से जुड़ा इतिहास और उनके नेता एक ही दावा पेश करते हैं कि वे 'अयाचक' ब्राह्मण हैं। अब यह 'अयाचक' परंपरा क्या है?

 

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इस दावे को समझने के लिए, स्वामी सहजानंद सरस्वती अपनी किताब 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तर' में ब्राह्मणों के छह कर्मों, यानी 'षट्कर्म' का ज़िक्र करते हैं। वह समझाते हैं कि इन छह कर्मों में से तीन धर्म के लिए थे - यज्ञ करना, वेदों का अध्ययन करना और दान देना और बाकी तीन कर्म—यज्ञ करवाना, वेद पढ़ाना और दान लेना (प्रतिग्रह)—ये सिर्फ़ जीविका यानी पेट पालने के साधन थे। भूमिहारों की पहचान इसी दूसरे हिस्से को त्यागने से जुड़ी है। उन्होंने दान और दक्षिणा पर जीने के बजाय ज़मीन और किसानी को अपनी जीविका बनाया। 
भूमिहारों को जमींदारी से जोड़कर भी देखा जाता है। इनकी पहचान ज़मीन से कैसे जुड़ी?

 

 

भूमिहार समाज अपनी इस पहचान की जड़ें योद्धा ऋषि परशुराम की पौराणिक कथा से जोड़ता है। मान्यता है कि भगवान विष्णु के छठे अवतार, परशुराम ने क्षत्रिय राजाओं को हराकर उनकी ज़मीन अपने ब्राह्मण अनुयायियों को सौंप दी, ताकि वह उसकी रक्षा कर सकें और उस पर खेती कर अपना जीवन चला सकें। इसी मान्यता ने उन्हें एक ज़मींदार-योद्धा की पहचान दी। उनका 'भूमिहार' नाम भी इसी इतिहास की तरफ़ इशारा करता है। अनुराग शर्मा अपनी किताब 'Brahmins Who Refused to Beg' में समझाते हैं कि यह दो शब्दों से बना है - 'भूमि' और 'हार' (यानी धारण करने वाला या मालिक)। पुराने ज़माने में 'भूम' एक ऐसी ख़ास ज़मींदारी को कहते थे जो अक्सर सैनिक सेवा या किसी इलाक़े की हिफ़ाज़त करने के बदले दी जाती थी तो जो ब्राह्मण ऐसी ज़मीनों के मालिक बने, वे 'भूमिहार ब्राह्मण' कहलाए। इसी वजह से फ्रांसिस बुकानन जैसे ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें 'मिलिट्री ब्राह्मण' कहा तो मेगस्थनीज जैसे यूनानी राजदूत ने भी लिखा कि मगध के कुछ ब्राह्मण ज़रूरत पड़ने पर हथियार उठा लेते थे और बड़ी बहादुरी से लड़ते थे लेकिन इस दावे के साथ-साथ कुछ विवादित कहानियां भी हमेशा चलती रहीं।

 

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डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री जैसे इतिहासकारों का मानना था कि मौर्य काल में जब मगध बौद्ध धर्म का बड़ा केंद्र था, तब कई ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। सदियों बाद, जब हिंदू परंपरा के राजाओं का रसूख बढ़ा तो ये लोग वापस अपने पुराने धर्म में लौटे। इनकी इसी 'घरवापसी' की वजह से ब्राह्मणों में एक तबके ने इन्हें पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया और उन्हें 'बाभन' या 'भूमिहार ब्राह्मण' जैसी अलग पहचान दे दी गई तो इस तरह भूमिहार समाज की कहानी, ज़मीन पर अधिकार और पुरोहिती के त्याग की कहानी बन जाती है। एक ऐसी पहचान जिसमें शास्त्र और शस्त्र, दोनों की झलक मिलती है। यह पहचान जितनी सीधी दिखती है, उतनी ही पेचीदा भी है लेकिन यह तो सिर्फ़ पहचान की बुनियाद थी। इस पहचान को कागज़ पर और समाज में मनवाने के लिए उन्हें एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी।

पहचान की लड़ाई 

 

अपनी 'अयाचक ब्राह्मण' वाली पहचान के बावजूद, भूमिहारों को इसे समाज और सरकार से मनवाने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। इस लड़ाई का मैदान बना ब्रिटिश राज की जनगणना। अंग्रेज़ अपनी 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत भारत की हर जाति को एक सामाजिक सीढ़ी में ऊपर-नीचे फ़िट कर रहे थे।

 

इसकी सबसे बड़ी चोट भूमिहारों को 1857 की क्रांति के बाद लगी। अनुराग शर्मा अपनी किताब 'Brahmins Who Refused to Beg' में लिखते हैं कि क्रांति के दौरान बेतिया, हथवा और टिकारी जैसी बड़ी भूमिहार रियासतों के राजाओं ने या तो अंग्रेज़ों का साथ दिया या फिर तटस्थ बने रहे लेकिन अंग्रेज़ इस बात से नाराज़ थे कि 1857 की बग़ावत की पहली चिंगारी एक भूमिहार सिपाही, मंगल पांडे ने ही सुलगाई थी।

शायद इसी का बदला लेने के लिए, जब 1865 में अंग्रेज़ों ने जातियों की पहली लिस्ट बनाई तो उसमें ब्राह्मणों को पहले और राजपूतों को दूसरे नंबर पर रखा और भूमिहारों को तीसरे पायदान पर धकेल दिया गया। इस कदम को भूमिहार समाज ने अपने लिए एक बड़े झटके के तौर पर देखा। जब 1881 की आधिकारिक जनगणना में भी यही दोहराया गया तो पूरे समाज में गुस्सा फैल गया।

 

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इसी के ख़िलाफ़ एक बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ। 1889 में बनारस के महाराजा प्रभु नारायण सिंह के नेतृत्व में 'अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा'का गठन हुआ। इसका सिर्फ़ एक मक़सद था- जनगणना में भूमिहारों को ब्राह्मण का दर्जा दिलवाना। इस लड़ाई में उन्हें एक और मोर्चे पर लड़ना पड़ रहा था। पारंपरिक पुरोहिती करने वाले ब्राह्मण, जो 'याचक' कहलाते थे, वे भूमिहारों के दावे का कड़ा विरोध कर रहे थे। इसी दौर में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपनी क़लम उठाई। उन्होंने 1916 में 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' नाम की एक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने शास्त्रों का हवाला देकर साबित किया कि पुरोहिती करना या दान लेना ब्राह्मण होने की शर्त नहीं है। सालों के संघर्ष और सामाजिक दबाव के बाद, आख़िरकार अंग्रेज़ी हुकूमत झुकी। 1911 की जनगणना में, संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) में उन्हें ब्राह्मणों के साथ गिना गया और बिहार में उन्हें ब्राह्मणों के बराबर का दर्जा दिया गया।

 

यह तो थी बाहरी दुनिया से अपनी पहचान मनवाने की लड़ाई लेकिन इस समाज के भीतर का ढांचा कैसा है? इनके अपने नियम-क़ानून क्या हैं जो इन्हें दूसरे ब्राह्मणों से अलग भी बनाते हैं? इसका जवाब इनकी विवाह परंपरा में छिपा है। अनुराग शर्मा अपनी किताब में बताते हैं कि भूमिहार समाज में शादी-ब्याह के लिए दोहरी व्यवस्था काम करती है - एक 'गोत्र' और दूसरी 'मूल'। 'गोत्र' तो वही है जो ज़्यादातर ब्राह्मणों में होता है, यानी किसी वैदिक ऋषि के नाम से चला वंश, जैसे कश्यप, भारद्वाज या शांडिल्य लेकिन 'मूल' इनकी अपनी अनूठी व्यवस्था है। 'मूल' का मतलब है आपके ख़ानदान का शुरुआती गांव। यह भूमिहारों के लिए गोत्र से भी ज़्यादा मायने रखता है। अनुराग शर्मा लिखते हैं कि इस समाज में एक ही गोत्र में शादी फिर भी हो सकती है लेकिन एक ही 'मूल' में शादी करना पूरी तरह से वर्जित है। एक लड़का न तो अपने पिता के 'मूल' की लड़की से शादी कर सकता है और न ही मां 'मूल' की लड़की से। यह व्यवस्था दिखाती है कि उन्होंने अपनी सामाजिक शुद्धता को बनाए रखने के लिए कितने कड़े और जटिल नियम बनाए।

बाहुबली राजा 

 

भूमिहार समाज के इतिहास में देखें तो इस समाज में ऐसे कई राजा और योद्धा हुए, जिनके किस्से आज भी सुनाए जाते हैं। सबसे दिलचस्प किस्सा है बनारस के राजा चैत सिंह का। साल था 1781, अंग्रेज़ी हुकूमत तेज़ी से फैल रही थी और गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स को अपनी लड़ाइयों के लिए पैसे चाहिए थे। उसने राजा चैत सिंह से भारी-भरकम रक़म और सैनिक मदद की मांग की। चैत सिंह ने साफ़ इनकार कर दिया। इस इनकार से तिलमिलाया हुआ हेस्टिंग्स, उन्हें सबक़ सिखाने के लिए ख़ुद बनारस पहुंच गया। 17 अगस्त, 1781 की सुबह, जब राजा चैत सिंह अपने शिवाला महल में पूजा-पाठ के लिए मौजूद थे तो हेस्टिंग्स ने दो अंग्रेज़ अफ़सरों, लेफ्टिनेंट स्कॉट और लेफ्टिनेंट साइम्स को 200 सिपाहियों के साथ उन्हें गिरफ़्तार करने भेज दिया लेकिन यह हेस्टिंग्स की सबसे बड़ी भूल साबित हुई। जैसे ही अंग्रेज़ सिपाहियों ने महल में घुसने की कोशिश की, राजा के मुट्ठी भर सैनिकों और बनारस के आम लोगों ने उन पर हमला बोल दिया। वह लड़ाई इतनी भयानक थी कि दोनों अंग्रेज़ अफ़सरों समेत 200 से ज़्यादा सिपाही मौक़े पर ही मारे गए।

 

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अपने राजा के अपमान की ख़बर शहर में आग की तरह फैली। गुस्साई भीड़ ने अंग्रेज़ों के ठिकानों पर हमला कर दिया। हालात इतने बिगड़ गए कि वॉरेन हेस्टिंग्स को अपनी जान बचाकर चुनार के क़िले की तरफ़ भागना पड़ा। कहते हैं, वह इतनी बुरी तरह घबराया हुआ था कि उसकी हालत पर काशी में एक कहावत ही बन गई - 'घोड़े पर हौदा, हाथी पर जीन, ऐसे भागा वॉरेन हेस्टिंग।'

 

यह अकेली कहानी नहीं है। जब हिंदुस्तान पर मुग़लों का राज था, तब भी इस समाज के राजा बड़ी लड़ाइयों में हिस्सा ले रहे थे। साल 1527 में, जब मेवाड़ के राणा सांगा ने बाबर के ख़िलाफ़ खानवा की मशहूर लड़ाई लड़ी, तो उनकी राजपूत सेना को सबसे बड़ी मदद एक भूमिहार राजा ने दी थी। अनुराग शर्मा अपनी किताब में लिखते हैं कि पहारगढ़ रियासत के राजा कामदेव मिश्र ने न सिर्फ़ राणा सांगा का साथ दिया, बल्कि अपनी 11,000 सैनिकों की टुकड़ी भी उनकी मदद के लिए भेजी। यहां तक कि बाबर ने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में भी राणा सांगा और मेदिनी राय जैसे बड़े नामों के साथ राजा कामदेव का ज़िक्र किया है और फिर आता है वह नाम, जिसे पूरा देश जानता है - मंगल पांडे। ये कुछ किस्से हैं जो बताते हैं कि भूमिहार समाज का इतिहास सिर्फ़ ज़मीन और किसानी का नहीं, बल्कि शस्त्र और स्वाभिमान का भी रहा है लेकिन जंग सिर्फ़ मैदान में नहीं लड़ी जाती। बीसवीं सदी में एक नई जंग शुरू हुई - विचारों की, ज़मीन के हक़ की और किसानों की।

20वीं सदी और भूमिहार 

 

बीसवीं सदी की शुरुआत में भूमिहार समाज ने दो ऐसे कद्दावर नेता पैदा किए, जिनकी राहें एक-दूसरे से बिलकुल जुदा थीं। एक की पहचान संन्यासी के गेरुए वस्त्र से थी, तो दूसरे की पहचान सत्ता के गलियारों से। एक ने किसानों के हक़ के लिए अपनी ही जाति के ज़मींदारों से लोहा लिया, तो दूसरे ने मुख्यमंत्री बनकर उसी ज़मींदार समाज की सियासत को बुलंदी पर पहुँचाया। यह कहानी है स्वामी सहजानंद सरस्वती और डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की। कहानी की शुरुआत उस संन्यासी से होती है, जिसका नाम था नौरंग राय। ग़ाज़ीपुर के एक साधारण भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मे नौरंग राय, स्वामी अच्युतानंद से दीक्षा लेने के बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती बन गए। शुरुआत में उन्होंने 'भूमिहार ब्राह्मण महासभा' के मंच से अपनी जाति के सम्मान के लिए आवाज़ उठाई। उन्होंने 1916 में 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तार’ नाम की किताब भी लिखी, जिसमें उन्होंने पुरोहिती और दान-दक्षिणा को ब्राह्मण होने की शर्त मानने से इनकार कर दिया।

 

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जल्द ही स्वामी सहजानंद को यह एहसास हो गया कि उनकी जाति के बड़े-बड़े ज़मींदार और राजे-रजवाड़े, किसानों पर बेइंतहा ज़ुल्म कर रहे हैं। अनिकेत नंदन और आर. संतोष ने दिसंबर 2020 में जर्नल ऑफ़ हिस्टोरिकल सोशियोलॉजी में छपे अपने रिसर्च पेपर, 'Associational Structures and Beyond' में लिखा है कि महासभा के भीतर ही ज़मींदार नेताओं और सहजानंद सरस्वती के बीच टकराव बढ़ने लगा। भूमिहार ज़मींदार नहीं चाहते थे कि सरस्वती किसानों के हक़ की बात करें। इसी वैचारिक टकराव के बाद, सहजानंद सरस्वती ने अपनी जाति की राजनीति से मुंह मोड़ लिया और किसानों के हक़ को ही अपने जीवन का मिशन बना लिया।

 

1929 में उन्होंने 'बिहार प्रांतीय किसान सभा' की नींव रखी। यह संगठन इतना बड़ा हुआ कि 1935 तक यह भारत का सबसे बड़ा प्रांतीय किसान संगठन बन चुका था। 1936 में जब लखनऊ में 'अखिल भारतीय किसान सभा' बनी तो स्वामी सहजानंद को ही उसका पहला अध्यक्ष चुना गया।

 

उनका सबसे बड़ा और ऐतिहासिक आंदोलन था 1937-38 का 'बकाश्त आंदोलन'। 'बकाश्त' उस ज़मीन को कहते थे जिस पर किसान पुश्तों से खेती तो करते थे लेकिन उनका मालिकाना हक़ नहीं था। ज़मींदार जब चाहते, उन्हें बेदख़ल कर देते। स्वामी जी ने इसी अन्याय के ख़िलाफ़ किसानों को एकजुट किया और एक ऐसा आंदोलन छेड़ा, जिसके दबाव में आकर आख़िरकार 'बिहार टेनेंसी ऐक्ट' पास हुआ और किसानों को उनकी ज़मीन पर हक़ मिला। मज़े की बात यह थी कि जिन ज़मींदारों के ख़िलाफ़ यह लड़ाई लड़ी जा रही थी, उनमें से ज़्यादातर भूमिहार ही थे। वक्त के साथ सहजानंद सरस्वती का क़द इतना बड़ा हो गया था कि सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें 'भारत के किसान आंदोलन का निर्विवाद नेता' कहा था।

 

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एक तरफ़ स्वामी सहजानंद ज़मीन के हक़ के लिए ज़मींदारों से लड़ रहे थे तो दूसरी तरफ़, उन्हीं के समाज का एक और बड़ा नेता आज़ाद भारत में उसी ज़मीन की सियासत की सबसे मज़बूत कड़ी बन रहा था। यह थे डॉ. श्री कृष्ण सिन्हा, 'श्री बाबू'। जब अंग्रेज़ों ने प्रांतीय सरकारें बनाईं, तब श्रीकृष्ण सिन्हा बिहार के दूसरे प्रधानमंत्री बने। आज़ादी के बाद जब बिहार बना तो श्री बाबू उसके पहले मुख्यमंत्री बने और 1961 तक इस पद पर बने रहे। उन्हें 'आधुनिक बिहार का निर्माता' कहा जाता है क्योंकि बरौनी रिफाइनरी से लेकर बोकारो स्टील प्लांट तक, बिहार के ज़्यादातर बड़े कारखानों की नींव उन्हीं के दौर में रखी गई। नीतीश कुमार जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो यही कहा जाता था कि श्री बाबू के बाद कोई कायदे का लीडर आया है। यह अपने आप में बहुत बड़ा कॉम्प्लिमेंट था और एक दिलचस्प कॉमेंट भी कि बिहार अपने पहले सीएम के जूतों में समाने वाले पांव इतनी मुश्किल से क्यों खोज पाता है।
 
खैर, समसामयिक राजनीति अलिफ लैला का विषय नहीं है, तो चलिए हम इतिहास की तरफ ही लौट जाएं। श्री बाबू के दौर में भूमिहार समाज सत्ता के शिखर पर था। अनिकेत नंदन और आर. संतोष बताते हैं कि 1957 के विधानसभा चुनाव में सबसे ज़्यादा 16.5% विधायक भूमिहार जाति के ही थे लेकिन श्री बाबू ने भी अपनी जाति के ज़मींदारों को एक बड़ा झटका दिया। जब देश में ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून पर बहस चल रही थी तो उन्होंने बिना किसी हिचक के बिहार में इसे लागू कर दिया। यह एक भूमिहार मुख्यमंत्री का अपनी ही जाति के ताक़तवर ज़मींदारों के हितों के ख़िलाफ़ एक बड़ा फ़ैसला था।

स्वामी सहजानंद और श्री बाबू- एक ही समाज से दो बड़े नेता। एक वह जो किसानों के लिए अपनी ही जाति के ज़मींदारों से टकरा गया और दूसरा वह जो उसी ज़मींदार समाज का सबसे बड़ा नेता होते हुए भी, ज़मींदारी को ख़त्म करने वाला क़ानून ले आया। यह विरोधाभास ही भूमिहार राजनीति की सबसे बड़ी कमज़ोरी थी और सबसे बड़ी ताक़त भी थी लेकिन यही ताक़त 70 का दशक आते-आते एक बड़ी चुनौती का सामना करने वाली थी।

ज़मीन, मंडल और बंदूक

 

श्री बाबू का सुनहरा दौर हमेशा नहीं रहने वाला था। 1970 का दशक आते-आते बिहार की ज़मीन पर बदलाव की आहट सुनाई देने लगी थी। श्री बाबू के बाद भी कांग्रेस का राज तो था लेकिन अब उसकी ज़मीन खिसक रही थी। बिहार की राजनीति तीन बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही थी और इन तीनों की सबसे ज़्यादा तपिश भूमिहार समाज को ही महसूस हो रही थी। ये चुनौतियाँ थीं - ज़मीन, मंडल और बंदूक।

पहली चुनौती आई ज़मीन से। साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से एक आंदोलन शुरू हुआ, जिसने पूरे देश के ग़रीब और भूमिहीन किसानों को एक नई आवाज़ दी। यह नक्सलवाद की आग जल्द ही बिहार के गांवों में भी पहुंच गई। अनिकेत नंदन और आर। संतोष अपने रिसर्च पेपर में बताते हैं कि बिहार में ज़मीन पर कब्ज़ा और सामाजिक हैसियत, सीधे-सीधे जाति से जुड़ी हुई थी। एक तरफ़ ऊंची जाति के ज़मींदार थे तो दूसरी तरफ़ दलित और पिछड़ी जातियों के भूमिहीन मज़दूर। नक्सली संगठनों ने इन्हीं मज़दूरों को लामबंद करना शुरू कर दिया। वे ज़मींदारों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने लगे, उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करने लगे और मज़दूरी बढ़ाने के लिए हिंसक आंदोलन करने लगे क्योंकि बिहार में भूमिहार सबसे बड़े और ताक़तवर ज़मींदारों में से थे इसलिए नक्सली आंदोलन का सबसे पहला और सीधा निशाना वही बने। यह उनकी ज़मीन और सामाजिक दबदबे पर पहला बड़ा हमला था।

 

दूसरी चुनौती आई सियासत के गलियारों से। बिहार में अब तक पिछड़ी जातियों के नेता एकजुट होकर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगने लगे थे। इसकी पहली झलक 1967 में ही दिख गई थी, जब बिहार में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, जिसमें कई पिछड़े नेता शामिल थे। हालांकि, यह सरकार ज़्यादा दिन नहीं चली लेकिन इसने भविष्य की राजनीति का इशारा दे दिया था। फिर आया 1990 का साल। यह वह साल था जिसने बिहार की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। केंद्र में वी. पी. सिंह (V.P. Singh) की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू कर दीं। इसके तहत पिछड़ी जातियों (OBCs) को सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण मिल गया। भूमिहार समाज के नौजवानों को लगा कि यह उनकी शिक्षा और नौकरियों पर सीधा हमला है। इसके ख़िलाफ़ पूरे बिहार में सवर्ण छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन किए।

 

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इसी मंडल आंदोलन की लहर पर सवार होकर, बिहार में एक नए नेता का उदय हुआ - लालू प्रसाद यादव। 1990 में वह बिहार के मुख्यमंत्री बने और इसी के साथ दशकों से चला आ रहा सवर्णों, ख़ासकर भूमिहारों का राजनीतिक दबदबा ख़त्म हो गया। सत्ता का केंद्र अब पिछड़ी जातियों, ख़ासकर यादवों की तरफ़ शिफ़्ट हो गया था। उस दौर को कई जानकार 'यादवीकरण' का दौर भी कहते हैं, जब सरकारी तंत्र में यादवों को हर तरह से फ़ायदा पहुंचाया गया। अब भूमिहार समाज ने खुद को चौतरफ़ा घिरा महसूस किया। एक तरफ़ नक्सली ज़मीन और समाज में उनके प्रभुत्व को चुनौती दे रहे थे, दूसरी तरफ़ मंडल कमीशन के चलते उनके लिए उपलब्ध नौकरियों की संख्या नीचे आ गई और तीसरी तरफ़ सोशल जस्टिस की पॉलिटिक्स ने उन्हें राजनीति की दुनिया में एक छोटा प्लेयर बनाकर रख दिया। चौतरफ़ा हमले ने समाज में एक ऐसी बेचैनी और असुरक्षा पैदा की कि जवाब देने के लिए कुछ लोगों ने कलम और हल की जगह बंदूक उठा ली।

रणवीर सेना की कहानी

 

90 के दशक में जब भूमिहार समाज को लगा कि ज़मीन, सियासत और नौकरियां, सब कुछ उनके हाथ से फिसल रहा है तो इसी बेचैनी और गुस्से के माहौल से एक ऐसी कहानी ने जन्म लिया, जिसने पूरे बिहार को हिलाकर रख दिया। यह कहानी थी जातिगत सेनाओं की।


अनिकेत नंदन और आर. संतोष अपनी रिसर्च पेपर में बताते हैं कि उस दौर में पिछड़ी और दलित जातियों की तरफ़ से नक्सली संगठन ज़मींदारों को निशाना बना रहे थे, तो जवाब में सवर्ण जातियों ने भी अपनी निजी सेनाएं बनानी शुरू कर दीं लेकिन इन सभी सेनाओं में सबसे ज़्यादा क्रूर और संगठित थी भूमिहारों की रणवीर सेना।

 

रणवीर सेना का गठन 1994 में भोजपुर ज़िले के बेलाउर गांव में हुआ। इसका नाम 19वीं सदी के एक स्थानीय भूमिहार योद्धा, रणवीर चौधरी, के नाम पर रखा गया था। इस संगठन का मक़सद साफ़ था - नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव को रोकना और 'भूमिहारों के सम्मान' की रक्षा करना। जल्द ही इस सेना की कमान आ गई ब्रह्मेश्वर सिंह के हाथों में, जिन्हें लोग 'मुखिया जी' के नाम से जानने लगे। रणवीर सेना ने अपनी हिंसक कार्रवाइयों को सही ठहराने के लिए परशुराम की 'योद्धा ब्राह्मण' वाली छवि का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि जब व्यवस्था और सरकार उनकी रक्षा करने में नाकाम हो गई है तो उन्हें अपने सम्मान के लिए ख़ुद हथियार उठाने का हक़ है। इस सोच को उस दौर के कई भूमिहारों का समर्थन भी मिला क्योंकि उन्हें लगता था कि नक्सली सिर्फ़ दलितों और पिछड़ों के नाम पर भूमिहारों को ही निशाना बना रहे हैं।

 

इसके बाद जो हुआ, वह बिहार के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। रणवीर सेना ने मध्य बिहार के गांवों में हत्याओं और नरसंहारों का एक ऐसा सिलसिला शुरू किया, जो सालों तक चलता रहा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 1995 से 2000 के बीच रणवीर सेना ने 27 बड़े नरसंहार किए, जिनमें 260 से ज़्यादा लोग मारे गए, जिनमें ज़्यादातर दलित और पिछड़ी जातियों के मज़दूर थे। इनमें सबसे भयानक था 1996 का बथानी टोला नरसंहार, जहां 21 दलितों, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे, को बेरहमी से मार दिया गया और फिर 1997 का लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार, जहां 60 से ज़्यादा दलितों की हत्या कर दी गई।

 

यह हिंसा एकतरफा नहीं थी। जवाब में नक्सली संगठन भी भूमिहारों के गांवों को निशाना बनाने लगे। 1999 में जहानाबाद के सेनारी गांव में 35 भूमिहारों का नरसंहार इसी खूनी सिलसिले की एक कड़ी थी। बिहार के गांव जातिगत हिंसा की आग में जल रहे थे लेकिन हर सिक्के का दूसरा पहलू भी होता है। ऐसा नहीं था कि पूरा का पूरा भूमिहार समाज इस हिंसा का समर्थक था। 1997 में 39 पढ़े-लिखे और प्रतिष्ठित भूमिहारों, जिनमें प्रोफ़ेसर, टीचर और पत्रकार शामिल थे, ने एक पर्चा छपवाकर रणवीर सेना की राजनीति की खुलकर निंदा की। इससे पता चलता है कि समाज के भीतर भी इस हिंसा को लेकर एक मत नहीं था।

रणवीर सेना का दबदबा 2000 के बाद कम होने लगा। केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने और बिहार में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद, रणवीर सेना पर सरकारी शिकंजा कसने लगा। 2002 में ब्रह्मेश्वर मुखिया की गिरफ़्तारी के साथ ही रणवीर सेना का लगभग अंत हो गया।


रणवीर सेना का उदय और पतन, बता रहा था कि बंदूक से ज़मीन और सम्मान नहीं बचाया जा सकता तो अब भूमिहारों को एक नए राजनीतिक सहारे की ज़रूरत थी।

नया राजनीतिक घर

 

रणवीर सेना के दौर ने भूमिहार समाज को एक बात तो साफ़-साफ़ समझा दी थी कि बंदूक के दम पर खोई हुई सियासी ज़मीन वापस नहीं पाई जा सकती। कांग्रेस अब उनका घर रहा नहीं था और लालू यादव की राजनीति उनके हितों के ठीक उलट थी। उन्हें एक नए राजनीतिक सहारे की ज़रूरत थी। एक ऐसा सहारा जो उनके सम्मान को भी लौटाए और उन्हें सत्ता के खेल में वापस भी लाए। यहां भूमिहारों का साथ दिया टाइमिंग ने। यह 90 के दशक का वही दौर था जब देश में हिंदुत्व की राजनीति तेज़ी से उभर रही थी। राम मंदिर आंदोलन और मंडल कमीशन के विरोध ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) को सवर्णों की स्वाभाविक पसंद बना दिया था। अनिकेत नंदन और आर. संतोष अपने रिसर्च पेपर में लिखते हैं कि भूमिहारों के लिए बीजेपी के साथ जाना एक सोचा-समझा क़दम था। इसकी कई वजहें थीं।

 

पहली, बीजेपी मंडल कमीशन के आरक्षण का विरोध कर रही थी और भूमिहार भी आरक्षण को अपने लिए एक बड़े ख़तरे के तौर पर देख रहे थे। दूसरी, बिहार में लालू यादव का मज़बूत मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण था। इस समीकरण के सामने ख़ुद को अकेला पा रहे भूमिहारों को बीजेपी ही एकमात्र ताक़तवर विकल्प नज़र आ रही थी और तीसरी और सबसे बड़ी वजह थी उनकी अपनी पहचान। वह ख़ुद को ब्राह्मण और धर्म का रक्षक मानते थे इसलिए हिंदुत्व की विचारधारा उन्हें स्वाभाविक रूप से आकर्षित कर रही थी। उस दौर में भूमिहारों के संगठनों में एक नारा ख़ूब गूंजता था - 'जो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।'

 

यहां एक बड़ा सवाल था। जो जाति कुछ साल पहले तक अपनी जातीय श्रेष्ठता के लिए हिंसक संघर्ष कर रही थी, वह अब 'हिंदू एकता' के नाम पर पिछड़ी और दलित जातियों के साथ एक ही मंच पर कैसे आ सकती थी? इसका जवाब समाजशास्त्रियों ने 'जाति के सांस्कृतीकरण' के सिद्धांत में ढूंढा। इसका मतलब यह था कि अब जाति की पहचान ऊंच-नीच के बजाय, 'सांस्कृतिक भिन्नता' के तौर पर पेश की जाने लगी। भूमिहारों ने ख़ुद को ज़मींदारों की छवि से निकालकर 'हिंदू धर्म के रक्षक' और सांस्कृतिक अगुआ के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया। इस नई पहचान के साथ उन्हें पिछड़ी जातियों के साथ मंच साझा करने में कोई दिक़्क़त नहीं थी क्योंकि अब लड़ाई जातियों के बीच नहीं, बल्कि हिंदू बनाम 'अन्य' की बनाई जा रही थी। इस राजनीतिक बदलाव का असर ज़मीन पर भी साफ़ दिखा। CSDS-लोकनीति के सर्वे बताते हैं कि साल 2000 में जहां 43% भूमिहार बीजेपी को वोट देते थे, वहीं 2014 तक यह आंकड़ा बढ़कर 69% हो गया।

बदलते भूमिहार 

 

रणवीर सेना के दौर की हिंसा और लालू यादव की राजनीति के विरोध ने भूमिहारों को भारतीय जनता पार्टी (BJP) का सहारा लेने पर मजबूर तो कर दिया लेकिन यहां एक नया सवाल खड़ा था। क्या इस नए राजनीतिक घर में उन्हें वह पुराना रुतबा वापस मिला, जो कभी कांग्रेस के राज में हुआ करता था? इसका कोई सीधा जवाब नहीं है। बीजेपी की राजनीति का आधार 'हिंदू एकता' है, जिसमें उसे अगड़ों के साथ-साथ पिछड़ों और दलितों का भी वोट चाहिए। इस समीकरण में भूमिहार एक ज़रूरी हिस्सा तो हैं लेकिन अकेले सत्ता की चाबी नहीं हैं। यही उनकी नई राजनीतिक चिंता है। वह एक मज़बूत वोट बैंक हैं लेकिन अब 'किंगमेकर' वाली हैसियत नहीं रही।

 

इस बदलती सियासत के साथ-साथ, भूमिहार समाज के अंदर भी एक बड़ा बदलाव आ रहा था। 90 के दशक के बाद खेती-किसानी अब पहले जैसा मुनाफ़े का सौदा नहीं रही थी। अनिकेत नंदन और आर. संतोष अपने रिसर्च पेपर में बताते हैं कि इसी दौर में भूमिहार समाज के नौजवानों ने बड़ी संख्या में गांवों से शहरों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया। ज़मीन की ताक़त घट रही थी, इसलिए अब शिक्षा और नौकरियों के ज़रिए एक नया रास्ता तलाशा जा रहा था।

 

इसका नतीजा यह हुआ कि आज बिहार के शहरों में एक नया भूमिहार मध्य-वर्ग खड़ा हो गया है। यह वह पीढ़ी है जो अपनी पहचान ज़मींदारी से नहीं बल्कि अपनी डॉक्टरी, वकालत और अफ़सरी से बनाती है। उनके पुराने सामाजिक रसूख और शिक्षा पर ज़ोर ने उन्हें इस नए दौर में भी आगे रहने में मदद की। इस नए मध्य-वर्ग ने अपनी जाति को मज़बूत करने के लिए नए तरीक़े भी ईजाद किए हैं। अब पारंपरिक जातिगत सभाओं के साथ-साथ, शहरों में नए 'प्रोफेशनल' संगठन बन रहे हैं। जैसे भूमिहार वकीलों का अपना एक समूह है तो डॉक्टरों की अपनी एक एसोसिएशन। ये संगठन ऊपर से तो सामाजिक काम करते हैं जैसे मुफ़्त मेडिकल कैंप लगाना या ग़रीब बच्चों को स्कॉलरशिप देना लेकिन इनका असली मक़सद है अपने समाज के लोगों का एक मज़बूत नेटवर्क बनाना।

 

इसका एक दिलचस्प उदाहरण पटना में भूमिहारों द्वारा चलाए जा रहे निजी स्कूल हैं। अनिकेत नंदन और आर. संतोष के रिसर्च पेपर (2017) में संत गांधी हायर सेकेंडरी स्कूल के संस्थापक विजय कुमार सिंह का एक इंटरव्यू है, जिसमें वह कहते हैं, 'मेरा स्कूल एक तरफ़ छात्रों को ज्ञान देता है, तो दूसरी तरफ़ उन काबिल भूमिहारों को रोज़गार देता है जिन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिली। हमारा लक्ष्य भूमिहारों का एक ऐसा नेटवर्क बनाना है जो न सिर्फ़ अपने परिवार, बल्कि अपने समाज के भी काम आए।'

 

यह तरीका है अपने लोगों को सिस्टम के भीतर ताक़तवर बनाने का। समाजशास्त्री इसे 'अवसरों का भंडारण' कहते हैं तो आख़िर में भूमिहारों की कहानी आज कहां खड़ी है? उनकी पहचान अब ज़मीन की पुरानी हनक और बाहुबल से आगे निकलकर, एक नए दौर में पहुंच चुकी है। उनकी लड़ाई अब अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने, उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने और शहरों में अपनी पकड़ मज़बूत करने की है। उनकी राजनीतिक ताक़त अब पहले की तरह एकतरफ़ा नहीं रही लेकिन उनका सामाजिक और प्रोफेशनल नेटवर्क आज भी बेहद मज़बूत है। बिहार की राजनीति में भले ही वह अब अकेले किंगमेकर न हों लेकिन उनकी 3 परसेंट की आबादी और संगठित समाज आज भी इतना ताक़तवर है कि कोई भी राजनीतिक दल उन्हें नज़रअंदाज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकता।