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आदिवासियों का वह नायक, जो उनके उद्धार के लिए बन गया 'गुरु जी'

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को उनके प्रशंसक गुरुजी के नाम से भी बुलाते थे। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत संथाल प्रमंडल से ही शुरू की थी। कैसे उनका सफर शुरू हुआ, कैसे वे सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे, आइए जानते हैं कहानी।

Shibu Soren

झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन। (फाइल फोटो)

आदिवासी परिवार में पैदा हुआ एक लड़का, जिसके पिता की भू माफिया हत्या कर देते हैं। वह साहूकारों, जमीन माफियाओं, गुंडों और शराब के अवैध कारोबारियों से लोहा लेता हुआ, एक दिन 'दिशोम गुरु' बन जाता है। एक बंद पड़े राजनीतिक आंदोलन को हवा देकर पार्टी बनाता है, मुख्यमंत्री बनता है। उसकी कहानी में वह सबकुछ है जो किसी फिल्म में हो सकता है। समाज बदलने की अकुलाहट, बागी तेवर, अपनों के लिए संग्राम छेड़ने का हौसला और उसी सिलसिले में कुछ अवांक्षित घटनाओं-अपराधों में नाम आ जाना। जेल वैसे ही जाना, जैसे कभी महात्मा गांधी गए हों। एक सफल राजनेता, जिसने अपनी अगली पीढ़ी को विरासत सौंप दी थी। विरासत जिले मिली थी, वह कोई और नहीं झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन हैं और बात जिनकी हो रही है, वह कोई और नहीं, झारखंड के तीसरे मुख्यमंत्री शिबू सोरेन थे। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। सोमवार सुबह 8.56 पर दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। 


शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को बिहार के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था। तब बिहार का विभाजन नहीं हुआ था। शिबू सोरेन उन नेताओं में से एक रहे हैं, जिनकी वजह से झारखंड राज्य, बिहार से अलग हो पाया। संस्कृति, संसाधन और जनजातीय संरचना में बिहार से बिलकुल अलग झारखंड का बिहार में संयुक्त रूप से रहना, शिबू सोरेन को रास नहीं आता था। शायद यही वजह रही कि उन्होंने जिस अलग झारखंड की कल्पना अपने साथियों के साथ की थी, वह पूरी भी हुई। 

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पहले चुनाव से सीएम तक, ऐसी है शिबू सोरेन की कहानी 

शिबू सोरेन ने अपना संसदीय चुनाव साल 1977 में लड़ा। इस चुनाव में उनकी हार हुई। वे पहली बार 1980 में सासंद चुने गए। सांसद बनने के बाद वे लगातार अलग राज्य की राजनीति करते रहे। साल 2000 में उनका सपना पूरा हुआ और वे झारखंड के बड़े नेताओं में शुमार हो गए। शिबू सोरेन का राजनीति सफर बहुत दिलचस्प है। वे अभी झारखंड मुक्ति मोर्चा की ओर से राज्यसभा सांसद हैं और अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। वह साल 2005 में सिर्फ 10 दिन के लिए झारखंड के तीसरे मुख्यमंत्री बने थे।

2 मार्च से 12 मार्च तक उनका कार्यकाल रहा था। दूसरी बार हेमंत सोरेन साल 27 अगस्त 2008 को मुख्यमंत्री बने थे। यह कार्यकाल 145 दिनों तक चला। 19 जनवरी 2009 को उनकी सरकार गिर गई। 19 जनवरी 2009 से 430 दिसंबर 2009 तक झारखंड में राष्ट्रपति शासन रहा। 30 दिसंबर 2009 से लेकर 1 जून 2010 तक, 153 दिनों के लिए फिर वे सत्ता में आए। मुख्यमंत्री के तौर पर यह उनका अंतिम कार्यकाल साबित हुआ। इसके बाद उनके बेटे ने सियासी विरासत संभाली और पहली बार मुख्यमंत्री 2013 में बने।

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संसद से विधानसभा तक, सफल रहा है सफर

शिबु सोरेन की संसद में भी मजबूत उपस्थिति थी। वे दुमका संसदीय सीट से 12 बार चुनाव लड़ चुके हैं। शिबू सोरेन पहली बार साल 1980 में इस संसदीय सीट से चुनाव जीते थे। फिर 1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 तक के चुनावों में वे जीतते रहे। वे दो बार राज्यसभा भी जा चुके थे। वह तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे।

 

केंद्रीय मंत्रालय से देना पड़ा था इस्तीफा  

शिबू सोरेन दो बार केंद्रीय मंत्री बने। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 में वह साल 2004 में कोयला मंत्री बने थे। उनका नाम चिरुडीह नरसंहार में आ गया था। उन पर सहयोगी दल ने ही इस्तीफे का दबाव बनाया और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। वे 1 महीने तक जेल में बंद रहे। वे एक बार फिर कोयला मंत्री बना दिए गए, क्योंकि उनके पास संख्या बल था। 

 

कैसा रहा शुरुआती संघर्ष? 

शिबू सोरेन एक दिन में यहां तक नहीं पहुंचे थे। जब उनकी उम्र 18 साल थी, तभी उन्होंने संथाल नवयुवक संघ की स्थापना कर ली थी। साल 1972 तक वे बंगाली मार्क्सवादी ट्रेड यूनियन नेता एके रॉय और कुर्मी-महतो जाति के नेता बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। इस पार्टी का मकसद ही साफ था कि अलग झारखंड। बिहार को झारखंड के कब्जे से मुक्त कराना।

आदिवासियों के लिए शिबू सोरेन ने किया क्या है?

शिबू सोरेन, इस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बन गए। उन्होंने झारखंड के लोगों को उनकी जमीनों पर हक दिलाना शुरू किया। आदिवासियों को खेती के लायक जमीनों पर कब्जा देना शुरू किया। उन्होंने संथाल समाज की महाजनी प्रथा को बंद कराया। उन्होंने शराबबंदी अभियान चलाया। वे नेता के तौर पर साल-दर-साल स्थापित होते गए। वे अपनी अदालत लगाते और लोगों को मौके पर न्याय देते। एक तरफ वे महाजनी प्रथा के खिलाफ अभियान चला रहे थे, दूसरी तरफ उनके पिता सोबरन सोरेन की किसी ने हत्या कर दी थी।

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कैसे बने दिशोम गुरु? 

पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन, धनबाद के टुंडी में एक स्कूल खोलकर आदिवासी बच्चों को पढ़ाने लगे। उन्हें इसी वजह से लोग दिशोम गुरु या गुरु जी कहते हैं। वे सामाजिक आंदोलन करते थे। वे अपने घर पर अदालत लगाते थे और उन वर्गों के साथ न्याय करते थे, जिनके साथ अन्याय हुआ है। उनकी बातों को झारखंड के लोग आज भी मानते हैं। उन्हें उनके समर्थक गुरुजी ही बुलाते थे।

कैसी थी शिबू सोरेन की निजी जिंदगी? 

शिबू सोरेन की पत्नी का नाम रूपी है। उनकी तीन संताने हुईं, दुर्गा, हेमंत और बसंत। उनकी बेटी का नाम अंजली है। हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। दुर्गा सोरेन की रहस्यमय परिस्थितियों में साल 2009 में मौत हो गई थी। वे भी 1995 से लेकर 2005 तक विधायक रहे थे। दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन, बीजेपी में हैं। बसंत सोरेन झारखंड युवा मोर्चा के अध्यक्ष हैं। वे दुमका से विधायक हैं।  

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कभी जेल, कभी जमानत, वर्षों तक परेशान रहे शिबू सोरेन

28 नवंबर 2006 को शिबू सोरेन, अपने निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या के केस में दोषी पाए गए थे। उनसे तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा मांग लिया था। 5 दिसंबर 2006 को उन्हें कोर्ट उम्रकैद की सजा सुनाई गई। उन पर नरसंहार से जुड़े एक केस में भी मुकदमा चला। 25 जून 2007 को दुमका जेल से आते वक्त उनकी गाड़ी पर हमला हुआ था। सौभाग्य से वह बच गए थे। दिल्ली हाई कोर्ट ने 23 अगस्त 2007 को निचली अदालत के फैसले पर रोक लगा दिया था। उन्हें बरी कर दिया गया था। वह अपने खिलाफ दर्ज ज्यादातर आपराधिक मामलो में कोर्ट से बरी हो चुके थे। अब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 81 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। 

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