सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडरों को आरक्षण देने के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हो रही देरी पर निराशा जताई है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले पर सरकार को फैसले के अनुसार नीतिगत निर्णय लेना होगा। शीर्ष अदालत ने 2014 के एक फैसले में निर्देश दिया था कि सरकारी नौकरी में आरक्षण के लिए ट्रांसजेंडर को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग (SEBC) के रूप में माना जाए। सरकार ने इस फैसले के बाद ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 लागू किया जिसके बाद इन्हें कानूनी पहचान मिली। इस कानून के अंतर्गत सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। इस फैसले के बाद कोशिश यही रही कि इन्हें आम नागरिकों की तरह समान अधिकार मिलें। इन सब के बावजूद क्या वास्तव में ट्रांसजेंडर की स्थिति देश में बदली है, इसे जानना भी जरूरी है।
15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर को तीसरे जेंडर के रूप में मान्यता दी थी। 'राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य मामले' में कोर्ट ने कहा कि अपने लिंग की पहचान करने और गरिमा के साथ जीना संवैधानिक अधिकार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस फैसले में कोर्ट ने कहा, 'हम केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश देते हैं कि ट्रांसजेंडरों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के रूप में मानने के लिए कदम उठाएं। देश के शिक्षण संस्थानों में एडमिशन और सरकारी नौकरियों में सभी तरह के आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाए जिससे उनका जीवन थोड़ा आसान हो।'
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अभी का मामला
सुप्रीम कोर्ट ने दो ट्रांसजेंडरों की दायर याचिका पर सुनवाई की। इस याचिका में 2014 फैसले के हिसाब से NEET-PG परीक्षा में आरक्षण की मांग की गई थी। कोर्ट ने सभी राज्यों से हलफनामा दाखिल करने को कहा है जिन्होंने इस मामले पर अभी तक कोई भी हलफनामा दाखिल नहीं किया है। कोर्ट ने पूछा है कि हलफनामे में बताना होगा कि ट्रांसजेंडर के लिए कानून को कब तक लागू करेंगे।
केंद्र का कानून
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र सरकार ने कानून बनाया जिसके तहत ट्रांसजेंडर को कई कानूनी अधिकार दिए गए। इस अधिनियम के अंतर्गत ट्रांसजेंडर को अपना लिंग चुनने का अधिकार मिला। उनको जिला मजिस्ट्रेट के पास आवेदन करके 'ट्रांसजेंडर' के रूप में सर्टिफिकेट मिल सकता है। यदि किसी को अपना लिंग बदलवाने के लिए सर्जरी करानी है तो इसके लिए भी वह एप्लिकेशन दायर कर सकता है। इसमें बनाए नियमों के तहत शिक्षा, रोजगार, हेल्थ और प्रॉपर्टी तक पहुंच में इनके साथ किसी भी तरह के भेदभाव पर रोक लगाई गई है।
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किन-किन राज्यों ने लागू किया है?
2021 में आई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रांसजेंडर को वर्क फोर्स में शामिल करने से भारत के GDP में 1.7% की वृद्धि हो सकती है। अधिनियम लागू होने के बाद कई राज्य जैसे कर्नाटक, दिल्ली, मणिपुर आदि ने नियम में बदलाव किए हैं।
- कर्नाटक देश का पहला राज्य था जिसने सभी सरकारी सेवाओं में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए 1% आरक्षण दिया।
- दिल्ली ने 2025 में कानून बनाया जिसमें पहचान-पत्र जारी करने के साथ-साथ इनके लिए बोर्ड बनाया गया।
- मणिपुर ने राज्य के सभी सरकारी प्रतिष्ठानों पर अधिनियम की धारा को शामिल करने के लिए निर्देश जारी किए हैं।
- तमिलनाडु, 2008 में ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड बनाने वाला पहला राज्य था और अब विभिन्न सहायता, उच्च शिक्षा और कमाई के साधन के लिए ग्रांट जैसी सेवाएं प्रदान करता है।
- इस लिस्ट में छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, अरुणाचल प्रदेश और आंध्र प्रदेश भी शामिल हैं जिन्होंने बोर्ड स्थापित किया है।
कानून के बावजूद क्या नहीं बदला?
देश और राज्य के बदलाव के बावजूद देश में उनकी स्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ है। समझते हैं उनकी वास्तविक स्थिति-
- NALSA के एक सर्वेक्षण में पाया कि 27% ट्रांसजेंडर को उनकी लैंगिक पहचान के आधार पर स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित किया गया।
- लिंग बदलने के लिए इलाज में कम से कम 2-5 लाख रुपये की लागत लगती है और यह हेल्थ इंश्योरेंस में शामिल नहीं होता है। आयुष्मान भारत TG प्लस योजना में हेल्थ कवरेज प्रदान करता है पर इसके लिए लोगों में जागरूकता की कमी है।
- साल 2011 की जनगणना के हिसाब से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की साक्षरता दर 56.1% है, जो राष्ट्रीय औसत 74% से काफी कम है।
- NHRC 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार 92% ट्रांसजेंडर आर्थिक बहिष्कार का सामना करते हैं। ILO 2022 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 48% ट्रांसजेंडर बेरोजगार हैं।