हिन्दू धर्म में भगवान शिव की पूजा को बहुत ही पुण्यदाई माना जाता है। महादेव सृष्टि के संहारक के रूप में पूजे जाते हैं। हालांकि भगवान शिव की उपासना किसी भी समय की जा सकती है लेकिन प्रदोष पूजा को बहुत महत्व दिया जाता है। यह पूजा विशेष रूप से प्रत्येक मास की त्रयोदशी तिथि, महाशिवरात्रि व्रत या सावन सोमवार व्रत के दिन की जाती है। जहां एक तरफ सभी त्योहारों की तिथि उदया तिथि के आधार पर निर्धारित होती है, प्रदोष व्रत और महाशिवरात्रि व्रत की तिथि प्रदोष काल को ध्यान में रखकर मनाई जाती है।
प्रदोष का अर्थ होता है ‘संध्या का समय’ यानी जब दिन ढलने लगता है और रात्रि का आरंभ होता है। यह समय लगभग सूर्यास्त से लेकर दो घड़ी (लगभग 1.5 घंटे) तक का होता है। इस समय को विशेष रूप से भगवान शिव का प्रिय समय माना गया है। मान्यता है कि इस समय भगवान शिव कैलाश पर्वत पर वास करते हैं और अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। इसलिए जो व्यक्ति प्रदोष काल में भगवान शिव की आराधना करता है, उसे विशेष कृपा प्राप्त होती है।
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प्रदोष व्रत की पौराणिक कथा
प्रदोष व्रत से जुड़ी एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार एक बार समुद्र मंथन हुआ था, जिसमें अमृत के साथ-साथ विष भी निकला था। जब वह कालकूट विष बाहर आया, तो देवता और असुर दोनों ही घबरा गए। यह विष इतना जहरीला था कि उससे सृष्टि का नाश हो सकता था। सभी देवता भगवान शिव की शरण में पहुँचे और उनसे रक्षा की प्रार्थना की। भगवान शिव ने सभी की रक्षा के लिए उस विष को स्वयं पी लिया। उनकी पत्नी पार्वती ने उनके कंठ को पकड़ लिया ताकि विष उनके शरीर में न फैले। तभी से भगवान शिव को नीलकंठ कहा जाता है। यह घटना त्रयोदशी के दिन ही घटी थी और संध्या समय यानी प्रदोष काल में हुई थी। इसलिए यह समय शिवभक्ति के लिए विशेष माना गया है।
प्रदोष व्रत से जुड़ी लोक कथा
एक और कथा के अनुसार एक बार एक निर्धन ब्राह्मण बहुत कष्ट में जीवन बिता रहा था। वह नित्य भगवान शिव का नाम जपता था, परंतु उसका जीवन दुखों से भरा हुआ था। एक दिन उसने प्रदोष व्रत करने का निश्चय किया। श्रद्धा से उसने व्रत किया और भगवान शिव की पूजा की। कुछ ही समय बाद उसकी स्थिति बदलने लगी। उसे एक राजा की सेवा में स्थान मिला, फिर उसने ज्ञान और धर्म के रास्ते पर चलते हुए अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रदोष व्रत करने से जीवन के कष्ट दूर होते हैं और सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
प्रदोष पूजा के नियम
भगवान शिव की संध्या पूजा प्रदोष व्रत के दिन की जाती है, जिसे रखने के भी कुछ नियम होते हैं। इस दिन व्यक्ति को सुबह स्नान करके शिवलिंग के समक्ष दीपक जलाना चाहिए और ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप करना चाहिए। दिनभर व्रत रखकर सूर्यास्त के समय पूजा करनी चाहिए। पूजा में जल, बेलपत्र, धतूरा, दूध, घी, फल, धूप और दीप से भगवान शिव को अर्पित करना चाहिए। शिवलिंग पर जल और पंचामृत से अभिषेक करना अत्यंत पुण्यदायक माना जाता है।
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इस दिन भगवान शिव के साथ माता पार्वती, भगवान गणेश और नंदी की भी पूजा की जाती है। प्रदोष काल में विशेषकर शिव तांडव स्तोत्र, रुद्राष्टक, शिव चालीसा और महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करना कल्याणकारी होता है। किसी कारणवश यदि उपवास संभव न हो तो व्यक्ति सिर्फ फलाहार करके भी पूजा कर सकता है। मुख्य बात है श्रद्धा और भावना।
शास्त्रों में प्रदोष पूजा को पापों का नाशक, रोगों से मुक्ति दिलाने वाला और सौभाग्य देने वाला कहा गया है। जो भी व्यक्ति सच्चे मन से भगवान शिव की उपासना करता है, उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। विवाहित जीवन में प्रेम बना रहता है, रोगों से मुक्ति मिलती है, और मानसिक शांति प्राप्त होती है।