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गंगैकोंड चोलपुरम मंदिर: चोल साम्राज्य की शिवभक्ति का प्रतीक

तमिलनाडु में स्थित भगवान शिव को समर्पित गंगैकोंड चोलपुरम मंदिर का अपना एक खास स्थान है। आइए जानते हैं इस मंदिर का इतिहास और इससे जुड़ी खास बातें।

Image of Gangaikonda Cholapuram

गंगैकोंड चोलपुरम मंदिर(Photo Credit: Wikimedia Commons)

तमिलनाडु को मंदिरों का शहर कहा जाता है। इस राज्य में विभिन्न देवी-देवताओं के ऐतिहासिक मंदिर स्थापित हैं। इन्हीं में से एक गंगैकोंड चोलपुरम एक ऐसा नाम है जो न केवल दक्षिण भारत की गौरवशाली वास्तुकला को दर्शाता है, बल्कि चोल वंश की भगवान शिव के प्रति भक्ति का भी प्रतीक है। यह मंदिर 11वीं शताब्दी में बना एक भव्य शिव मंदिर है जिसे चोल सम्राट राजेन्द्र चोल प्रथम ने बनवाया था। इसे ‘बृहदीश्वर मंदिर’ भी कहा जाता है लेकिन यह तंजावूर के प्रसिद्ध मंदिर से अलग है और इसका निर्माण विशेष रूप से विजयी स्मृति में किया गया था।

 

चोल वंश दक्षिण भारत के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में गिना जाता है, जो लगभग 9वीं से 13वीं शताब्दी तक तमिल क्षेत्र पर शासन करता रहा। राजेन्द्र चोल प्रथम, राजा राजराज चोल के पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता की ही तरह कई सफल युद्ध किए और भारत के उत्तर भाग में विजय प्राप्त की।

 

उन्होंने गंगा नदी तक अभियान चलाया और विजय प्राप्त की। गंगा से लाया गया जल उन्होंने एक विशेष जलाशय में डलवाया और फिर एक नए राजधानी शहर की स्थापना की, जिसका नाम रखा गया गंगैकोंड चोलपुरम यानी 'गंगा को जीतने वाले चोल का नगर'। इसी नगर में भगवान शिव को समर्पित यह भव्य मंदिर बनाया गया।

 

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मंदिर का निर्माण और वास्तुकला

इस मंदिर का निर्माण 1025 ईस्वी के आसपास हुआ था। इसकी वास्तुकला द्रविड़ शैली की मिसाल है। मंदिर का गोपुरम (मुख्य शिखर) लगभग 55 मीटर ऊंचा है, जो तंजावूर के बृहदीश्वर मंदिर की तुलना में थोड़ा छोटा है लेकिन ज्यादा कलात्मक है।

 

मंदिर के गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित है, जिसे 'गंगैकोंड चोलेश्वर' कहा जाता है। यह शिवलिंग लगभग 13 फीट ऊंचा है, जो दक्षिण भारत के सबसे ऊंचे शिवलिंगों में से एक है।

मंदिर की दीवारों और स्तंभों पर सुंदर नक्काशियां हैं जो पौराणिक कथाओं, देवी-देवताओं, नर्तकियों और युद्ध दृश्यों को दर्शाती हैं। यह मंदिर उस युग की मूर्तिकला, स्थापत्य और धार्मिक चेतना का प्रमाण है।

 

भगवान शिव के प्रति चोलों की आस्था

चोल वंश के शासक शिवभक्त हुआ करते थे। उन्होंने अपने शासनकाल में सैकड़ों शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। उन्हें शिव को 'राजा के राजा' मानने की परंपरा थी। राजेन्द्र चोल प्रथम ने भी अपनी सैन्य विजय को भगवान शिव को समर्पित किया और मंदिर का निर्माण उन्हीं की महिमा में करवाया।

 

इस मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग को वह आत्मशक्ति और समर्पण का प्रतीक मानते थे। गंगा से जल लाकर शिवलिंग का अभिषेक कर उन्होंने यह सिद्ध किया कि वे भगवान शिव की कृपा से ही इतने शक्तिशाली और विजयी हुए हैं।

मंदिर से जुड़ी मान्यताएं

स्थानीय जनश्रुति के अनुसार, जब चोल राजा गंगा विजय के बाद लौटे, तब उन्होंने गंगाजल से भगवान शिव का अभिषेक करने का संकल्प लिया। यह शिवलिंग उस पुण्य का प्रतीक है। कई लोगों का यह भी मानना है कि इस शिवलिंग की ऊंचाई और शक्ति इतनी अधिक है कि यह संकटों को टालता है और मनोकामनाएं पूरी करता है। इस मंदिर को शक्ति और समृद्धि का केंद्र माना जाता है, जहां पूजा करने से न केवल आध्यात्मिक लाभ मिलता है, बल्कि मानसिक शांति भी मिलती है।

 

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आज के समय में मंदिर का महत्व

गंगैकोंड चोलपुरम मंदिर आज भी पूरी श्रद्धा और गरिमा के साथ पूजनीय स्थल बना हुआ है। यह मंदिर न सिर्फ एक धार्मिक स्थल है, बल्कि यह UNESCO विश्व धरोहर स्थल के रूप में भी मान्यता प्राप्त है (तंजावूर के बृहदीश्वर मंदिर और गंगैकोंड चोलपुरम को एक साथ मान्यता दी गई है)। यहां हर साल हजारों श्रद्धालु आते हैं, खासकर महाशिवरात्रि और अन्य शिव पर्वों के समय। स्थानीय लोग मानते हैं कि यहां की पूजा और जलाभिषेक से बड़े से बड़ा कष्ट भी दूर हो जाता है।

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