सिंदूर खेला बंगाल की एक बेहद खास रस्म है, जो हर साल विजयादशमी के दिन दुर्गा पूजा के समापन पर होती है। इस दिन विवाहित महिलाएं देवी दुर्गा को विदाई देने से पहले उनके चरणों और माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं और उसके बाद एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। इस दौरान मिठाइयां बांटी जाती हैं और शुभकामनाएं दी जाती हैं। इस रस्म का महत्व यह है कि महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और दांपत्य जीवन की मंगलकामना करती हैं। इसे सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। इस साल 2 अक्टूबर 2025 को सिंदूर खेला की रस्म मनाई जाएगी।
ऐसा माना जाता है कि यह परंपरा लगभग 300 से 400 साल पुरानी है। इसकी शुरुआत बंगाल के जमींदार परिवारों में हुई थी, जब दुर्गा पूजा का आयोजन बड़े स्तर पर घरानों में किया जाता था। समय के साथ यह रस्म आम लोगों तक पहुंची और आज यह बंगाल की संस्कृति का अहम हिस्सा है। सिंदूर खेला केवल धार्मिक आस्था से नहीं जुड़ा है, बल्कि स्त्रियों के बीच एकता, स्नेह और सामाजिक जुड़ाव का प्रतीक भी है।
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सिंदूर खेला का इतिहास
सिंदूर खेला की परंपरा बहुत पुरानी मानी जाती है और इसका उद्गम बंगाल से जुड़ा है। इतिहासकार मानते हैं कि लगभग 300–400 साल पहले, जब बंगाल के जमींदार घरों में भव्य दुर्गा पूजा आयोजित की जाती थी, तब इस रस्म की शुरुआत हुई। उस समय महिलाएं देवी दुर्गा की विदाई पर उन्हें सिंदूर अर्पित करती थीं और अपने पति की लंबी उम्र की कामना करती थीं। धीरे-धीरे यह परंपरा केवल जमींदारों तक सीमित न रहकर आम जनता तक फैल गई।
पौराणिक मान्यता यह भी है कि दशहरे के दिन देवी दुर्गा मायके से ससुराल (कैलाश) लौटती हैं। विदाई के समय विवाहित स्त्रियां उन्हें सजी-धजी सुहागन के रूप में विदा करती हैं। सिंदूर चढ़ाना उसी भावनात्मक प्रतीक का हिस्सा माना जाता है।
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सिंदूर खेला कैसे खेला जाता है
विजयादशमी के दिन, दुर्गा पूजा पंडालों या घरों में देवी दुर्गा की मूर्ति के सामने यह रस्म होती है। सबसे पहले विवाहित महिलाएं (सुहागिनें) देवी दुर्गा के माथे पर और चरणों पर सिंदूर अर्पित करती हैं। इसके बाद देवी को मिठाई, पान और अन्य पूजन सामग्री अर्पित की जाती है।
फिर शुरू होता है सिंदूर खेला, जहां महिलाएं एक-दूसरे की मांग, माथे और गालों पर सिंदूर लगाती हैं। वे एक-दूसरे को मिठाई खिलाती हैं और मंगलकामनाएं देती हैं। मुख्य रूप से इसे बंगाली हिंदू महिलाएं निभाती हैं, विशेषकर पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और पूर्वोत्तर भारत के हिस्सों में इस रस्म का आयोजन किया जाता है। हालांकि अब महानगरों के दुर्गा पूजा पंडालों में यह रस्म हर समुदाय की महिलाएं निभाने लगी हैं।