मुंबई का धारावी एशिया का सबसे बड़ा स्लम कैसे बन गया?
मुंबई का धारावी अपनी झुग्गी-बस्तियों के लिए जाना जाता है। पिछले कुछ सालों में यह इलाका काफी चर्चा में है क्योंकि इसका रीडेवलपमेंट किया जाना है। आइए इसी की कहानी जानते हैं।

धारावी की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
2.1 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल, 10 लाख से ज्यादा लोगों का घर, 5 लाख लोग प्रति वर्ग किलोमीटर का जनसंख्या घनत्व - ये आंकड़े हैं धारावी के। एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती, जिसका सालाना कारोबार 1 अरब डॉलर से ज्यादा है। मुंबई के बिल्कुल बीचोंबीच बसा यह इलाका कहानियों का गढ़ है। मसलन एक डॉन जो 19 गोलियां लगने के बाद भी ज़िंदा रहा। एक कारीगर जो खाली हाथ आया और आज कबाड़ से करोड़ों कमाता है। एक मुसलमान- 1992 के दंगों के बाद अपने बेटे का सिर मुंडाता है। ऐसे हजारों किस्से धारावी में बसते हैं। धारावी की यह कहानी एक दलदल से शुरू होकर इतिहास के कई उतार-चढ़ावहं से गुजरी है और आज जब इसे 3 लाख करोड़ की परियोजना में बदलने की तैयारी हो रही है। तब धारावी की असली कहानी जानना और भी जरूरी हो जाता है।
धारावी स्लम कैसे बना?
यह जानने के लिए हमें वक्त में थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा। आज जिसे हम मुंबई कहते हैं। वह कभी सात अलग-अलग द्वीपों में बंटा हुआ था। इनके नाम थे- छोटा कोलाबा, वरली, मज़गांव, परेल और कोलाबा। कोलाबा का मतलब कोली समुदाय की जगह। माहिम- बॉम्बे टापू। 17वीं शताब्दी तक इन पर पुर्तगालियों का क़ब्ज़ा हुआ करता था। फिर हुआ यूं कि पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन डी ब्रिगेंज़ा की शादी इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स-2 के साथ हो गई और तब पुर्तगालियों ने दहेज के तौर पर मुंबई अंग्रेजों को दे दिया। मुंबई के टापू अधिकतर मछली पकड़ने के काम आते थे। लिहाजा ब्रिटिश सरकार ने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को 10 पाउंड सालना के किराए पर दे दिया ताकि वह अपना कारोबार कर सकें।
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धारावी कैसे अस्तित्व में आया?
दरअसल, अलग-अलग टापू होने के चलते लॉजिस्टिक्स और कम्युनिकेशन की बड़ी दिक्कत आती थी। टापुओं के बीच दलदली ज़मीन और खाड़ियां थीं। लिहाजा ईस्ट इंडिया कंपनी ने टापुओं को जोड़ने की योजना बनाई। साल 1708 में माहिम और सायन के बीच एक कॉजवे बनाया गया। कॉजवे माने एक ऐसी सड़क जो पानी के ऊपर से हो कर गुज़रती हो और दो टापुओं को जोड़ती हो। इसी कॉजवे के बगल में धारावी नाम की बस्ती तैयार हुई। धारावी नाम के दो मतलब होते हैं-'खाड़ी के किनारे की जगह' और 'ढीली मिट्टी'। धारावी शुरुआत में एक दलदली ज़मीन हुआ करता था। यहां मैंग्रोव के घने जंगल हुआ करते थे। इस सुनसान किनारे पर सबसे पहले कोली मछुवारों ने डेरा डाला। उनकी छोटी सी बस्ती थी - कोलीवाड़ा, जो आज भी यहां धारावी के एक कोने में मौजूद है।
आज जिसे हम धारावी जानते हैं, वह इलाका आकार लेना शुरू हुआ 19वीं सदी में। 1864 में बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने इस इलाके को शहर में शामिल कर लिया। 20वीं सदी आते-आते बॉम्बे एक बड़ा बंदरगाह, एक बड़ा व्यापारिक केंद्र बन चुका था। शहर का विकास जरूरी था। लिहाजा शहर की सफ़ाई के लिए ऐसे तमाम काम धंधे, जिनसे गंदगी पैदा होती थी। उन्हें शहर से बाहर ले जाया गया। ये ‘बाहर’ धारावी था। 1887 में, सायन में एक टैनरी खुली, यानी चमड़ा कारख़ाना। देखते-देखते धारावी चमड़े के कारोबार का मुख्य अड्डा बन गया। चमड़े के कारखानों के साथ आए तमिलनाडु के तमिल भाषी कारीगर - ज्यादातर ऐसे समुदाय, जिन्हें समाज में अछूत माना जाता था। इन लोगों ने धारावी में सबसे पुरानी बस्तियों में से एक बसाई। सिर्फ चमड़े का काम ही नहीं, एक और हुनर ने धारावी में अपनी जगह बनाई। 1930 के दशक में गुजरात से कुम्हारों का एक बड़ा समूह मुंबई आया। ये मिट्टी के बर्तन बनाने के उस्ताद थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1895 में 99 साल के पट्टे पर धारावी में ज़मीन दी। उन्होंने यहां अपनी बस्ती बसाई, जिसे आज भी 'कुम्हारवाड़ा' यानी 'कुम्हारों की बस्ती' के नाम से जाना जाता है। यह धारावी की सबसे पुरानी बस्तियों में से एक है।
लोगों का सैलाब
धारावी में लोगों की बेहिसाब भीड़ रहती है। जैसा पहले बताया यह दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाले इलाक़ों में से एक है। इतने लोगों का यहां आकर रहने का मुख्य कारण था- काम और उपलब्ध ज़मीन , भले झुग्गी बनाने लायक ही सही। यह ज़मीन बाकी मुंबई के मुक़ाबले मुकाबले सस्ती थी। लिहाजा काम की तलाश में मुंबई आने वाले लोग धारावी में बसते गए। 20वीं सदी की शुरुआत में तमिल चमड़ा कारीगर आए थे। फिर गुजराती कुम्हार आए। उत्तर प्रदेश से कढ़ाई और कपड़े सिलने वाले कारीगर भी पहुंचे और यहां रेडीमेड गारमेंट का काम शुरू हुआ। फिर आया 1947। देश आज़ाद हुआ लेकिन बंटवारे का दर्द भी साथ लाया। लाखों लोग बेघर हुए। पाकिस्तान से बहुत सारे शरणार्थी मुंबई आए और उनमें से कइयों ने धारावी में पनाह ली। धारावी की आबादी जो पहले कुछ हज़ार थी, अब करीब 30,000 तक पहुंच गई। 1941 से 1951 के बीच बॉम्बे की आबादी 15 लाख से बढ़कर 23 लाख हो गई थी। यह सिर्फ बंटवारे के कारण नहीं था, बल्कि गरीब परिवार काम की तलाश में भी शहर आ रहे थे।
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धारावी इन सबका ठिकाना बन रही थी। आज़ादी के समय तक, धारावी बॉम्बे और शायद पूरे भारत की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती बन चुकी थी लेकिन लोगों का आना रुका नहीं। 1960 और 70 का दशक महाराष्ट्र के कई ग्रामीण इलाकों के लिए बहुत भारी साबित हुआ। पश्चिमी घाट के इलाकों में भयानक सूखा पड़ा, कहीं बाढ़ आई। खेती बर्बाद हो गई। गांव के गांव भूखे मरने लगे। लोगों के पास अपना घर-बार छोड़कर शहर आने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा। कहते हैं कि इस दौरान महाराष्ट्र के गांवहं से पलायन करने वाले हर तीन या चार लोगों में से एक मुंबई आया।
ऐसी ही एक कहानी है महादेव कदम के पिता की। वह पुणे जिले के बारामती इलाके के एक छोटे से खेत मज़दूर थे। चम्भार जाति के, यानी चमड़े का काम करने वाले। 1960 के दशक के आख़िर में, सिंचाई के साधन नहीं थे, सूखा पड़ा और उनकी ज़मीन बंजर हो गई। गाँव छोड़ना मजबूरी बन गया। उनके गाँव और जाति के कुछ दोस्त पहले से धारावी में सिग्नोर कंपनी में काम करते थे, जो चमड़े की छोटी-मोटी चीज़ें बनाती थी। उन दोस्तों ने सलाह दी - "धारावी आ जाओ।" और वह आ गए। महादेव कदम के पिता अकेले नहीं थे। हज़ारों किसान, मज़दूर, कारीगर - महाराष्ट्र से और फिर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से भी गरीबी से बचने के लिए - मुंबई की तरफ भागे। मुंबई का मतलब था काम, पैसा, उम्मीद और इन उम्मीदों का एक बड़ा पता था - धारावी। लोग आते गए, जगह कम पड़ती गई। रेलवे लाइन के किनारे, खाली पड़ी दलदली ज़मीन पर, जहां भी सिर छिपाने की जगह मिली, लोगों ने बांस, टीन, प्लास्टिक की चादरों से अपनी झुग्गियां खड़ी कर लीं। बस्ती बिना किसी प्लान, बिना किसी नक़्शे के, बेतरतीब ढंग से फैलती गई। धारावी का आकार बढ़ता गया, उसकी शक्ल बदलती गई। साथ ही जुड़ती गई कई कहानियां।
धारावी का डॉन
धारावी, जैसा पहले बताया, एकदम भीड़भाड़ से भरा है लेकिन इस भीड़ के बीच कई चेहरे हैं, जिनकी अपनी कहानियां हैं। 'धारावी- द सिटी विदिन' में लेखक जोसेफ कंपाना ऐसी कई कहानियां बताते हैं। सईद खान बक्लेवाला: 1979 में जमशेदपुर से मुंबई आए थे। जेब खाली, रहने को ठिकाना नहीं, फुटपाथ पर सोते थे। उन्हें बेल्ट के बकल पॉलिश करने का काम मिला। धीरे-धीरे उन्होंने अपने डिज़ाइन बनाने शुरू किए। एक बार उनका बनाया तीन टुकड़ों वाला बकल इतना मशहूर हुआ कि लोग पूछने लगे - "सईद चिकना का माल है क्या?" सिर्फ मेहनत, हुनर और जुगाड़ के दम पर वह बकल पॉलिश करने वाले से करोड़पति बन गए।
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हनुमंती कांबले: 18 साल की उम्र में विधवा हो गईं, मुंबई लौटीं। सिर्फ 200 रुपये से प्लास्टिक रीसाइक्लिंग का काम शुरू किया। जिंदगी पटरी पर आ ही रही थी कि 2007 में एक भयानक आग लगी और उनका सब कुछ जलकर राख हो गया। चार कुत्ते मर गए, प्लास्टिक का सारा माल ख़त्म। किसी ने मदद नहीं की - न नेता, न व्यापारी, न मकान मालिक लेकिन हनुमंती ने हार नहीं मानी। अपने गहने गिरवी रखकर फिर से काम शुरू किया। आज उनकी बेटी लक्ष्मी भी उनके साथ काम करती है। हनुमंती कहती हैं, "धारावी में औरत को धंधा करना है तो हिम्मत होनी चाहिए – मेहनत की भी और बदतमीज़ों से लड़ने की भी।'
'धारावी- द सिटी विदिन' में हुसैन जैदी धारावी के एक डॉन की कहानी भी बताते हैं। जनवरी 2025 में मुंबई क्राइम ब्रांच के ऐंटी एक्सटॉर्शन सेल (AEC) ने 7 लोगों को गिरफ्तार किया। ये लोग अंधेरी ईस्ट के एक होटल मालिक से ढाई करोड़ रुपये की उगाही के लिए दबाव डाल रहे थे। इस गैंग का सरगना था - रवि मल्लेश बोरा, उर्फ़ डी.के. राव। छोटा राजन का आदमी। छोटा राजन - दाऊद इब्राहिम के बाद भारत का सबसे बड़ा वॉन्टेड माफिया सरगना। जो इन दिनों तिहाड़ में सजा काट रहा है।
जैदी बताते हैं कि भारत में राजन के काले कारोबार का काम डी.के. राव संभालता था। ज़ैदी जब राव से मिले, तो अखबारों की तस्वीरों से बनी खूंखार, गुस्सैल गैंगस्टर की छवि टूट गई। सामने सोफे पर एक पांच फुट का, दुबला-पतला, बीमार सा दिखने वाला आदमी बैठा था। काली शर्ट, दाढ़ी लेकिन आंखों में वह खौफ नहीं था। पैर में पट्टी बंधी थी। ग्यारह साल जेल और दो जानलेवा हमलों ने शायद उसे आधा कर दिया था। वह ज़ैदी और उनके साथियों से बात करते हुए शुरू में असहज था और पूरे इंटरव्यू में सावधान रहा। जिस जगह वह मिले, वह एक ऑफिस जैसा था - धारावी के स्लम-रीडेवलपमेंट वाले दो कमरों को जोड़कर बनाया गया 450 स्क्वायर फुट का ठिकाना। राव के गुर्गे आसपास मंडरा रहे थे। उसके पास नौ फोन बिखरे थे, कुछ सैटेलाइट फोन भी थे और एक कॉफी टेबल पर करीब 50,000 रुपये यूं ही पड़े थे। राव ने कहा कि वह 'प्रॉपर्टी का काम' करता है। खासकर धारावी, एंटॉप हिल, कोलीवाड़ा, सायन जैसे इलाकों में रीडेवलपमेंट के झगड़े सुलझाता है। रोज़ 200 लोग उससे मिलने आते हैं। वह दावा करता है कि हमेशा बिल्डर का साथ नहीं देता, एक बार तो उसने एक बिल्डर से वह मंदिर दोबारा बनवाया जो रीडेवलपमेंट के लिए तोड़ दिया गया था लेकिन ज़ैदी बताते हैं कि रीडेवलपमेंट में 'झगड़े सुलझाने' का मतलब अक्सर झुग्गी वालों को डरा-धमका कर किसी खास बिल्डर के लिए राज़ी करना होता है। छोटा राजन गैंग इस काम से करोड़ों कमाता था।
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रवि मल्लेश बोरा उर्फ़ DK राव धारावी का डॉन कैसे बना?
कर्नाटक से गुलबर्गा से ताल्लुक़ रखने वाला रवि बोरा एक मिल मज़दूर का बेटा था। उसका परिवार बारिया नाम की एक डिनोटिफाइड ट्राइब से था। डिनोटिफाइड ट्राइब यानी वह जातियां जिन्हें अंग्रेज़ पैदाइशी मुजरिम मानते थे। सालों तक इन पर 'क्रिमिनल ट्राइब' का ठप्पा लगाकर ज़लील किया गया। रवि बोरा शुरू में एक 'चिंदी चोर' था - छोटा-मोटा चोर जिसकी अंडरवर्ल्ड में कोई हैसियत नहीं थी। बीस साल का होने से पहले ही एक सड़क छाप झगड़े में हुई हत्या में उसका नाम पुलिस रिकॉर्ड में आ गया था। माटुंगा के खालसा कॉलेज के पास वह अपने लुटेरों के गैंग के साथ अड्डा जमाता था। गैंग नया था, पर लूट लाखों की करता था, अक्सर बैंकों से निकलने वाली कैश वैन को निशाना बनाकर। जल्द ही रवि बोरा मुंबई पुलिस के लिए सिरदर्द बन गया। 90 के दशक में जब वह ठाणे जेल में बंद था, वहीं उसकी मुलाक़ात छोटा राजन गैंग के सुनील मडगांवकर उर्फ़ मत्या भाई से हुई। मत्या ने उसे गैंग में शामिल कर लिया। जल्द ही रवि बोरा बड़े लुटेरों के साथ काम करने लगा। 1995 में उसने ठाणे में एक बैंक से 66 लाख लूटने में मदद की। हालांकि जल्द ही दोबारा पकड़ा भी गया।
इस बारे जेल से निकालने के बाद रवि बोरा ने एक नई पहचान अख्तियार की। उसने डी.के. राव नाम के किसी बैंक कर्मचारी का आईडी कार्ड इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। यह नाम उसके साथ तब चिपका जब 1997 के आख़िर में जूहु में पुलिस के साथ उसकी मुठभेड़ हुई। जवाबी फायरिंग में एक गोली रवि बोरा के पैर में लगी। वह आज तक लंगड़ा कर चलता है। उसकी जेब से जो आईडी कार्ड मिला, उस पर नाम लिखा था - डी.के. राव। बस, पुलिस डायरी में चिंदी चोर रवि बोरा अब डी.के. राव बन चुका था और यह नाम उस पर खूब जंचा भी। डी.के. राव के तौर पर वह अंडरवर्ल्ड की सीढ़ियां चढ़ता गया और आख़िरकार छोटा राजन के पूरे भारतीय सिंडिकेट का कंट्रोलर बन गया।
डी.के. राव की सबसे हैरतअंगेज़ कहानी है उसके मरने के बाद ज़िंदा होने की। यह किस्सा मुंबई पुलिस और माफिया, दोनों आज भी सुनाते हैं। यह बात है 11 नवंबर 1998 की। वह दौर था जब छोटा राजन और दाऊद इब्राहिम के बीच गैंग वॉर चरम पर था। राजन 1993 के बॉम्बे बम धमाकों के हर आरोपी को मारकर 'देशभक्ति' साबित करना चाहता था, जबकि दाऊद का गैंग राजन से जुड़े लोगों को चुन-चुन कर मार रहा था। राव ऐसे ही एक मिशन पर था - बम धमाकों के दो सज़ायाफ्ता मुजरिमों, शेख मोहम्मद एहतेशाम और बाबा मूसा चौहान को मारने। प्लान था कि दोनों को टाडा कोर्ट में पेशी के लिए ले जाते हुए टपकाया जाएगा लेकिन वक्त से पहले ही यह खबर मुंबई क्राइम ब्रांच के हाथ लग गई।
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दादर में DK राव और उसके चार साथियों को घेर लिया गया। ये सब लोग एक मारुती एस्टीम में थे। अचानक पुलिस एक मारुती जिप्सी में आई और उन्हें रोक लिया। पुलिस ने उन्हें गोली चलाने का मौका ही नहीं दिया। बस उनके शरीरों को गोलियों से छलनी कर दिया और एक पुलिस वैन में भर दिया। राव ने खुद ज़ैदी को ये वाकया सुनाया: "मेरा एक साथी दर्द से चिल्लाया। बस! पुलिस वालों को लगा कोई ज़िंदा है और उन्होंने हम पर और गोलियां चलाईं। मुझे पैरों पर गोलियां लगीं। मेरे ऊपर चार लाशें थीं। मैं पूरे होश में था। हम सबको हॉस्पिटल के मुर्दाघर ले जाया गया। वहां पहुंचते ही , मैं उठा और चिल्लाया कि मैं ज़िंदा हूं।” DK राव के अनुसार उस दिन उसे पूरी उन्नीस गोलियां लगी थीं लेकिन फिर भी वह बच गया।
योग और ध्यान से जुड़ा डीके राव
इस घटना के बाद राव ने अध्यात्म की शरण ली। वह संत निरंकारी मूवमेंट से जुड़ा। श्री श्री रविशंकर का सिखाया योग भी करने लगा। जेल में आर्ट ऑफ लिविंग के कोर्स किए और बाहर आकर अपनी छत पर लड़कों को योग सिखाने लगा। अगले दस साल राव ने महाराष्ट्र की अलग-अलग जेलों में काटे लेकिन जेल में रहते हुए भी वह गैंग में ऊपर चढ़ता गया। हुआ यह कि छोटा राजन के सबसे भरोसेमंद साथी एक-एक करके ख़त्म होते गए। मत्या भाई, जो राजन का 'डायरेक्टर ऑफ इंडिया ऑपरेशंस' कहलाता था, 2000 में पुलिस एनकाउंटर में मारा गया। मत्या के बाद राजन का गैंग बिखरने लगा था। इनकी भरपाई के लिए राजन ने नए सिरे से दर्जन भर लोगों का गैंग बनाया लेकिन फिर विकेट गिरने लगे।
2000 से 2011 तक राजन गैंग के 11 लोग एनकाउंटर में मारे गए। अंत में बचा एक - डी.के. राव। अंडरवर्ल्ड में कहा जाता है कि राव इसलिए टिका रहा क्योंकि वह वफादार था। उसने राजन का बदला लेने के लिए दुबई जाकर दाऊद को मारने का प्लान भी बनाया था। लूट का बड़ा हिस्सा वह अपने आदमियों में बांटता था। अपने आदमियों का ख्याल रखता था, उनकी ज़मानत करवाता था। जेल में रहकर उसने कानूनी दांव पेंच भी सीख लिए। इसीलिए मुंबई ATS के तत्कालीन चीफ राकेश मारिया राव को 'ब्लैक माम्बा' कहते थे - वह ज़हरीला सांप जो अपने शिकार को तब तक नहीं छोड़ता जब तक वह मर न जाए। मारिया कहते हैं, "वह कोई मामूली आदमी नहीं है। वह एक सर्वाइवर है। वह छोटा राजन के लिए वही है जो छोटा शकील दाऊद के लिए है।" जैसा पहले बताया, हाल में DK राव उगाही के एक मामले में फिर गिरफ्तार हुआ है। जिससे पता चलता है कि 2025 में भी वह एक्टिव है और धारावी से माफिया गैंग चलाता है।
1992 के दंगे
वापस मुख्य कहानी यानी इतिहास पर लौटें तो धारावी ने बहुत कुछ देखा है - गरीबी, बीमारी, संघर्ष लेकिन एक ज़ख्म ऐसा है जो शायद आज भी पूरी तरह भरा नहीं है। वह ज़ख्म है दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के दंगों का। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई और उसकी आग मुंबई समेत पूरे देश में फैली। धारावी भी इस नफरत की आग से बच नहीं पाई। 62 लोग मारे गए थे। इनमें 43 मुसलमान थे और 17 हिंदू।
कई मंदिर, मस्जिदें और मदरसे तोड़ दिए गए या जला दिए गए। सैकड़ों दुकानें और घर बर्बाद हो गए। धारावी की मुख्य सड़कें, खासकर 90 फीट रोड और चमड़ा बाज़ार, पूरी तरह तबाह हो गईं। चमड़ा बाज़ार, जहां एक तरफ मुस्लिम व्यापारियों के गोदाम थे और दूसरी तरफ रंगाई और चमड़े की वर्कशॉप थीं, सब लगभग राख हो गया था। दंगों के बाद हिंदू और मुस्लिम इलाक़ों के बीच दीवार खड़ी हो गई। कई जगह पहले तमिल हिंदू और मुस्लिम परिवार पीढ़ियों से साथ रहते थे। दंगों के बाद ज़्यादातर तमिल हिंदू परिवार वह इलाका छोड़कर चले गए और वह मुस्लिम बहुल बन गया। यही हाल धारावी के कई और हिस्सों का हुआ। जो बस्तियां मिली-जुली थीं, वह धर्म के आधार पर बंट गईं।
दंगों का असर राजनीति पर भी पड़ा। शिवसेना का प्रभाव धारावी के कुछ हिस्सों में, खासकर चर्मकार (चमड़ा कारीगर) समुदायों में और बढ़ गया। हालांकि, दंगों के बाद शांति और भाईचारा वापस लाने की कोशिशें भी हुईं। धारावी की दीवारों में उन दिनों एक पोस्टर चस्पा दिखाई देता था, जिसकी चर्चा आज भी होती है। 'धारावी- द सिटी विदिन' में लेखक जोसेफ कंपना बताते हैं, 'दंगों के बाद भाईचारा लाने की कोशिश हुई। हिंदू और मुस्लिम समाज के दो व्यक्तियों ने मिलकर एक पोस्टर बनाया। शुरुआत में प्लान था चार क्रिकेटरों को लेने का। मुहम्मद अजरुद्दीन इंडिया के कप्तान थे। उन्हें पोस्टर में जोड़ा जाना था लेकिन फिर खबर आई कि अजरुद्दीन अपनी पत्नी को डाइवोर्स देकर संगीता बृजलानी के साथ मूव करने वाले है।
इस खबर के बाद क्रिकेटरों को पोस्टर में शामिल करने का प्लान कैंसिल कर दिया गया। इसके बजाय चार लोकल मुस्लिम बच्चों को पोस्टर के लिए हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई का रोल दिया गया। हिंदू बच्चे को पुजारी के तरह सिर मुंडवाना था और रुद्राक्ष की माला धारण करनी थी। इस रोल के जब कई परिवारों ने मना कर दिया तब एक मुस्लिम लीडर ने अपने ही बेटे का सिर मुंडवा दिया! यह छोटा सा कदम बहुत बड़ा संदेश बन गया। वह पोस्टर धारावी में एकता का प्रतीक बना और बसों, दुकानों, पुलिस थानों तक में लगा। दंगों का नासूर आज भी क़ायम है। हालांकि जिंदगी आगे फिर भी बढ़ रही है।'
भूलभुलैया में ज़िन्दगी
धारावी में ज़िन्दगी कैसी है? बाहर से देखने वालों के लिए यह शायद एक नर्क जैसा लगे और सच कहें तो यहां मुश्किलें आसमान छूती हैं। सबसे पहली और सबसे बड़ी सच्चाई है- भीड़। बेहिसाब भीड़। सोचिए, मुंबई शहर का औसत जनसंख्या घनत्व लगभग 24,000 लोग प्रति वर्ग किलोमीटर है। धारावी में यह आंकड़ा है - 1 लाख लोग प्रति वर्ग किलोमीटर! यानी शहर के औसत से चार गुना ज़्यादा! कुछ हिस्सों में तो ये घनत्व 3 लाख प्रति वर्ग किलोमीटर तक पहुंच जाता है। दुनिया की सबसे घनी जगहों में से एक। यहां की गलियां इतनी तंग हैं कि कई बार दो लोग एक साथ नहीं गुज़र सकते। सूरज की रोशनी भी मुश्किल से नीचे तक पहुंचती है।
घर? घर कहना भी शायद ज़्यादा होगा। ज़्यादातर झुग्गियां 10x10 फुट के कमरे होते हैं और उसी एक कमरे में पूरा परिवार रहता है, सोता है, खाता-पीता है, और कई बार तो काम भी करता है। "धारावी: फ्रॉम मेगा-स्लम टू अर्बन पैराडिज्म" की लेखिका मैरी-कैरोलिन ने 1994-95 में कदम परिवार के साथ कुछ महीने बिताए थे। वह लिखती हैं: "घर बड़ा नहीं था - ग्राउंड फ्लोर पर लिविंग रूम ही कदम, उनकी पत्नी और बेटी का बेडरूम था। पहली मंजिल पर दो कमरे थे। एक कमरे में, जिसमें कोई खिड़की नहीं थी और पंखा भी गर्मी कम नहीं कर पा रहा था, सात भाई-बहन और कज़िन एक-दूसरे से चिपक कर सोने की कोशिश करते थे। रात में, कोई तीन-चार घंटे ही सो पाता था - शोर, मच्छर, अंगूठे से भी बड़े कॉकरोच, चक्कर लाने वाली घुटन और पास में जलते कचरे का ज़हरीला धुआं जो गले में फंसता था। ये सब मिलकर नींद उड़ा देते थे।'
बुनियादी सुविधाएं? उनका भारी अकाल है। सड़कें, नालियां, साफ-सफाई - सब बदहाल हैं। ज़्यादातर नालियां खुली हुई हैं और बरसात में गलियां गंदे पानी से भर जाती हैं। पानी की सप्लाई बहुत कम है। सुबह होते ही औरतों और बच्चों की लंबी कतारें पानी के नलों पर लग जाती हैं। घंटों इंतज़ार के बाद कुछ बर्तन पानी मिल पाता है। कपड़े धोना, बर्तन मांजना जैसे रोज़मर्रा के काम अक्सर गलियों में या सामुदायिक नलों पर ही होते हैं।
शौचालय, सबसे बड़ी समस्या है। एक अनुमान के मुताबिक, औसतन 500 लोगों के लिए सिर्फ एक टॉयलेट है! बहुत से लोग मजबूरी में खुली नालियों या पास से गुज़रने वाली मीठी नदी का इस्तेमाल करते हैं - वही नदी जो कभी ताज़े पानी का स्रोत भी हुआ करती थी।
इन हालात का सीधा असर पड़ता है सेहत पर। गंदगी, भीड़ और साफ पानी की कमी के कारण बीमारियां यहां घर कर लेती हैं। हैजा, डिप्थीरिया, टीबी, टाइफाइड जैसी बीमारियां आम हैं। डॉक्टर बताते हैं कि वह रोज़ डिप्थीरिया और टाइफाइड के 4000 मामले देखते हैं! यही वजह है कि जहां भारत में औसत आयु 67 साल है, वहीं धारावी में ये 60 साल से भी कम है।
धारावी का कारोबार
बाहर से देखने पर धारावी एक उलझा हुआ जाल लगता है। इसे सुलझाना कठिन है क्योंकि इसे सिर्फ़ झुग्गी बस्ती कहना इसकी सबसे बड़ी पहचान को नज़रअंदाज़ करना है। ये सिर्फ रहने की जगह नहीं, ये काम करने की जगह है। एक विशाल कारखाना। एक अनुमान के मुताबिक, यहां करीब 5,000 बिज़नेस और 15,000 से ज़्यादा छोटी-छोटी वर्कशॉप या कारखाने हैं। ये ज़्यादातर घर के अंदर ही चलते हैं। यानी घर ही वर्कशॉप, वर्कशॉप ही घर। दिन-रात मशीनें चलती हैं, हथौड़े चलते हैं, सुइयां दौड़ती हैं। धारावी कभी सोती नहीं।
धारावी में हजारों करोड़ का कारोबार होता है।
चमड़े का सामान: धारावी चमड़े के काम के लिए जाना जाता है। एक ज़माना था जब यहां का चमड़ा ब्रिटिश फौज के लिए जूते और साज़ो-सामान बनाने के काम आता था। आज धारावी का अपना लेदर ब्रांड है - '90 फीट', जो अच्छी क्वालिटी के लिए जाना जाता है।
मिट्टी के बर्तन: कुम्हारवाड़ा की बात हम कर चुके हैं। पीढ़ियों से यहां कुम्हार मिट्टी को आकार दे रहे हैं। दीवाली पर लाखों दीये यहीं से बनकर मुंबई और आसपास के शहरों में जाते हैं।
कपड़े और कढ़ाई: उत्तर प्रदेश से आए कारीगरों ने यहां रेडीमेड गारमेंट्स का काम शुरू किया था। आज भी यह धारावी का एक बड़ा उद्योग है। छोटी-छोटी वर्कशॉप में कपड़े सिले जाते हैं, उन पर कढ़ाई होती है। यहां बने कपड़े देश-विदेश में एक्सपोर्ट होते हैं।
रीसाइक्लिंग - कबाड़ से सोना: ये है आज की धारावी की सबसे बड़ी पहचान। इसे "भारत की रीसाइक्लिंग राजधानी" कहा जाता है। मुंबई शहर का लगभग 60% प्लास्टिक कचरा यहीं रीसायकल होता है। प्लास्टिक, लोहा, टीन, कागज़, कांच, इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट - हर तरह का कबाड़ यहां आता है। प्रोसेस होता है। एक अनुमान के मुताबिक इस रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री का सालाना टर्नओवर 1 अरब डॉलर (लगभग 8000 करोड़ रुपये) से ज़्यादा है! और ये करीब ढाई लाख लोगों को रोज़गार देता है।
आगे क्या होगा?
वर्तमान दौर में सबसे मौजू सवाल है कि आगे धारावी का क्या होगा? धारावी, जो कभी शहर के कोने में पड़ी एक अनचाही बस्ती थी, आज मुंबई के बिलकुल दिल में है। सामने चमकता हुआ बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स (BKC) है, जहां बड़े-बड़े कॉर्पोरेट ऑफिस हैं। धारावी की ज़मीन अब सोने की हो चुकी है और इस सोने पर बिल्डरों, नेताओं, और बड़े कॉर्पोरेट घरानों की नज़र है। धारावी के डेवलपमेंट की कोशिशें दशकों से चल रही हैं। 1980 के दशक के आख़िर में कोली नगर में सरकारी पुनर्वास योजना के तहत कुछ अपार्टमेंट बिल्डिंग बनीं थीं लेकिन दस साल बाद भी वे खाली पड़ी थीं। क्यों? क्योंकि झुग्गी वाले उनका 500-600 रुपये महीना मेंटेनेंस नहीं भर सकते थे। तो उन्होंने क्या किया? उन फ्लैट्स को किराये पर चढ़ा दिया और खुद बिल्डिंग के नीचे फिर से झुग्गी बनाकर रहने लगे, जहां वह अपनी छोटी-मोटी दुकान या वर्कशॉप चला सकें। इसी तरह, कोलीवाड़ा ट्रांजिट कैंप बना -जब तक पक्के मकान न बन जाएं, अस्थायी तौर पर लोगों को रखने के लिए लेकिन वे कैंप ही स्थायी घर बन गए क्योंकि आगे का काम कभी पूरा ही नहीं हुआ। ये मिसालें दिखाती हैं कि धारावी का रीडेवलपमेंट कितना मुश्किल है।
धारावी का चेहरा बदलने की एक बड़ी कोशिश हुई साल 2004 में। जब धारावी रीडेवलपमेंट प्रोजेक्ट को सरकार की मंज़ूरी मिली। हालांकि, तब से लेकर आज तक, ये प्रोजेक्ट कर्ज़ की कमी, राजनीतिक खींचतान और स्थानीय विरोध के कारण लटका ही रहा है। कई प्लान बने, टेंडर निकले, रद्द हुए।
वर्तमान में धारावी रीडेवलपमेंट का प्रोजेक्ट अडानी ग्रुप के पास है। नवंबर 2022 में, अडानी ग्रुप ने ₹5,069 करोड़ की बोली लगाकर इस प्रोजेक्ट को हासिल किया। जिसके बाद महाराष्ट्र सरकार और अडानी ग्रुप के बीच एक जॉइंट वेंचर कंपनी बनी - नवभारत मेगा डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड (NMDPL)। धारावी रिडेवलपमेंट का प्रोजेक्ट यही कंपनी पूरा करेगी। प्लान क्या है? धारावी की कुल 600 एकड़ ज़मीन में से करीब 300 एकड़ पर रीडेवलपमेंट और पुनर्वास का काम होगा। अनुमान है कि कुल 24 करोड़ स्क्वायर फीट का कंस्ट्रक्शन होगा। इसमें से 10 करोड़ स्क्वायर फीट पुनर्वास के लिए (यानी धारावी वालों को घर देने के लिए) और बाकी 14 करोड़ स्क्वायर फीट अडानी ग्रुप बेचेगा। कुल लागत 3 लाख करोड़ रुपये आंकी गई है, जिसमें से 25,000 करोड़ पुनर्वास यूनिट बनाने पर खर्च होंगे।
धारावी की झुग्गियों में रहने वाले लोग कहां जाएंगे?
महाराष्ट्र के स्लम पुनर्वास कानून के तहत, हर योग्य निवासी को 350 स्क्वायर फीट का एक फ्लैट मिलेगा, चाहे उसके पास पहले कितनी भी झुग्गियां क्यों न हों। योग्य निवासी यानी वे लोग जो साल 2000 से पहले धारावी में रहने आए जबकि 2000 से 2011 के बीच जिन्होंने धारावी में घर बनाया, उन्हें धारावी के बाहर किराये के मकानों में भेजा जाएगा, जिन्हें वे बाद में खरीद सकेंगे। इसके लिए सरकार ने मुंबई के पूर्वी उपनगरों - मुलुंड, कंजूरमार्ग और भांडुप में करीब 256 एकड़ सॉल्ट पैन (नमक बनाने की) ज़मीन NMDPL को देने की मंज़ूरी दी है।
कब तक पूरा होगा ये रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट?
टेंडर की शर्तों के मुताबिक, NMDPL को 7 साल के अंदर धारावी वालों के लिए घर बनाने हैं। और पूरे प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए 17 साल का समय दिया गया है। इस पूरे रीडेवलपमेंट का मास्टर प्लान मशहूर आर्किटेक्ट हाफ़ीज़ कॉन्ट्रैक्टर बना रहे हैं। यह प्लान जल्द ही तैयार होकर मंज़ूरी के लिए भेजा जाएगा और लोगों से सुझाव भी मांगे जाएंगे। कागज़ पर यह प्लान बहुत अच्छा लगता है। सालों से बदहाल ज़िन्दगी जी रहे लोगों को पक्का घर मिलेगा, साफ़-सफाई होगी, बेहतर सुविधाएं मिलेंगी लेकिन धारावी के लोगों के मन में डर और सवाल हैं।
क्या घर मिलेगा? योग्यता की शर्तें क्या होंगी? कट-ऑफ डेट क्या होगी? जिनका नाम लिस्ट में नहीं आया, उनका क्या होगा? रोज़गार का क्या होगा? धारावी सिर्फ रहने की जगह नहीं, काम करने की जगह है। लाखों लोग यहीं छोटे-छोटे कारखानों, वर्कशॉप, दुकानों से अपनी रोज़ी-रोटी कमाते हैं। क्या नई इमारतों में उनके काम-धंधे के लिए जगह होगी? या उन्हें सब छोड़कर जाना पड़ेगा?
क्या यह रीडेवलपमेंट है या सिर्फ रियल एस्टेट का खेल? लोगों को डर है कि यह सब उनकी भलाई के लिए कम और बिल्डरों और नेताओं को फायदा पहुंचाने के लिए ज़्यादा है। इन सवालों और डरों के कारण धारावी में विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। लोग अपनी शर्तों पर रीडेवलपमेंट चाहते हैं, जिसमें उनके रोज़गार और समुदाय का ध्यान रखा जाए। यह लड़ाई सिर्फ ज़मीन और मकान की नहीं, बल्कि पहचान और अस्तित्व की लड़ाई है। इस रीडेवलपमेंट की राजनीति भी खूब हो रही है। विपक्षी नेता, जैसे राहुल गांधी और उद्धव ठाकरे, अडानी ग्रुप और सरकार पर धारावी को बेचने का आरोप लगा रहे हैं। ठाकरे ने तो सत्ता में आने पर प्रोजेक्ट रद्द करने का वादा भी किया है। वहीं सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कह रहे हैं कि यह प्रोजेक्ट धारावी वालों की भलाई के लिए है। धारावी मुंबई का एक अहम चुनावी मुद्दा है। हर चुनाव में नेता वादे करते हैं लेकिन ज़मीनी हकीकत ज़्यादा नहीं बदलती।
संतोष नाकर का केस मिसाल है। साल 1994 में, संतोष नाकार और करीब 300 अन्य लोगों ने एक डेवेलपर कंपनी शिवशाही पुनर्वसन प्रकल्प लिमिटेड (SPPL) के साथ एक करार किया। बिल्डर ने 3 साल में 7 मंज़िला इमारत में एक एक फ्लैट देने का वादा किया था। 10 साल बीत गए, घर नहीं मिला। सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट-काट कर संतोष और उसके साथी थक गए। आख़िर में उसने MHADA ऑफिस के बाहर खुद पर केरोसिन डालकर आग लगाने की कोशिश की। मीडिया में खबर छपी, हंगामा हुआ, तब जाकर सरकार जागी और लोगों को घर मिला।
एक और किस्सा कुम्हारवाड़ा के अब्बास का है। YUVA नाम के एक NGO ने उसे मुफ्त गैस भट्ठी देने का लालच दिया, ताकि प्रदूषण कम हो लेकिन बाद में पता चला कि NGO ने भट्ठी के बहाने घरों की जानकारी इकट्ठा करके MHADA को दे दी, ताकि रीडेवलपमेंट प्लान में मदद मिल सके। अब्बास और बाकी कुम्हारों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है। धारावी का रीडेवलपमेंट एक बहुत बड़ा, बहुत जटिल मुद्दा है। इसका असर लाखों ज़िंदगियों पर पड़ेगा। क्या यह धारावी को बेहतर बनाएगा या उसकी आत्मा को ही खत्म कर देगा? इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है।
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