अब उत्तर प्रदेश में अपनी जाति का सार्वजनिक तौर पर गुणगान करना या महिमामंडन करना अपराध माना जाएगा। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सोमवार को जाति के महिमामंडन को 'राष्ट्र-विरोधी' बताया। हाई कोर्ट के आदेश के बाद उत्तर प्रदेश में अब एफआईआर, पुलिस रिकॉर्ड्स, सार्वजनिक अभिलेखों, मोटर वाहनों और सार्वजनिक साइनबोर्डों से जाति संबंधी संदर्भ हटा दिया जाएगा। कोर्ट ने इसको लेकर यूपी सरकार को निर्देश दिया है।
यूपी की योगी सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए पुलिस नियमों में संशोधन के निर्देश भी दे दिए हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद यूपी के मुख्य सचिव दीपक कुमार ने शासन की तरफ से ये आदेश जारी किया है।
पुलिस थानों में होगा बदलाव
सरकारी आदेश में बताया गया है कि अपराध-आपराधिक ट्रैकिंग नेटवर्क और प्रणालियों में अपराधियों की जाति दर्शाने वाले कॉलम को हटाकर उनकी पहचान के लिए उनके माता-पिता के नाम जोड़े जाएंगे। इसकी सूचना राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को दी जानी है। पुलिस थानों के बोर्ड पर अभियुक्तों के नाम लिखते समय उनकी जाति का उल्लेख नहीं किया जाएगा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला क्या है?
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जाति व्यवस्था को लेकर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि समाज में जातिगत महिमामंडन बंद किया जाना चाहिए। हाई कोर्ट ने सरकारी दस्तावेजों, गाड़ियों और सार्वजनिक जगहों से भी जातियों का नाम, प्रतीक और निशान हटाने को कहा है। न्यायालय ने कहा कि अगर भारत को 2047 तक वास्तव में एक विकसित देश बनना है, तो यह अनिवार्य है कि हम अपने समाज से गहराई से जड़ें जमा चुकी जाति व्यवस्था को मिटा दें।
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इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस विनोद दिवाकर की एकल बेंच ने यह फैसला सुनाया है। दरअसल, प्रवीण छेत्री नाम के शख्स ने कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसे हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया। जस्टिस विनोद दिवाकर ने 16 सितंबर के अपने फैसले में कहा कि वंश के बजाय संविधान के प्रति श्रद्धा 'देशभक्ति का सर्वोच्च रूप' और 'राष्ट्र सेवा की सच्ची अभिव्यक्ति' है।
जस्टिस दिवाकर की टिप्पणी
सुनवाई के दौरान जस्टिस दिवाकर ने कहा, 'अगर भारत को 2047 तक वास्तव में एक विकसित राष्ट्र बनना है, तो यह अनिवार्य है कि हम अपने समाज से गहराई से जड़ें जमा चुकी जाति व्यवस्था को मिटा दें। इस लक्ष्य के लिए सरकार के सभी स्तरों से लगातार, बहु-स्तरीय प्रयासों की जरूरत है। प्रगतिशील नीतियों, मजबूत भेदभाव-विरोधी कानूनों और परिवर्तनकारी सामाजिक कार्यक्रमों के जरिए करना होगा। '
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अपने फैसले में, कोर्ट ने एफआईआर, रिकवरी मेमो और जांच दस्तावेजों में जाति दर्ज करने की प्रथा की भी कड़ी आलोचना की। उसने कहा कि इस तरह की पहचान प्रोफाइलिंग संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन है।
जाति व्यवस्था पर कड़ी आपत्ति
जाति व्यवस्था पर कड़ी आपत्ति जताते हुए, कोर्ट ने चेतावनी दी, 'बिना किसी कानूनी प्रासंगिकता के किसी अभियुक्त की जाति लिखना या घोषित करना, पहचान की रूपरेखा बनाने के समान है, न कि वस्तुनिष्ठ जांच। यह पूर्वाग्रह को जन्म देता है, जनमत को भ्रष्ट करता है, न्यायिक सोच को गंदा करता है, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और संवैधानिक नैतिकता को कमजोर करता है।'
डीजीपी को दिया निर्देश
गौरतलब है कि हाई कोर्ट ने पहले पुलिस महानिदेशक को इस प्रथा को सही ठहराने का निर्देश दिया था। हालांकि, डीजीपी ने इस प्रथा को पहचान संबंधी भ्रम से बचने का एक तरीका बताया और सरकारी सिस्टम का हवाला दिया लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया।
कोर्ट ने जाति प्रथा को 'कानूनी तौर पर भ्रामक' करार दिया। हाई कोर्ट ने कहा कि जब आधार कार्ड, उंगलियों के निशान, मोबाइल नंबर और माता-पिता का विवरण जैसे आधुनिक उपकरण उपलब्ध हैं, तो यह तर्क पुराना हो चुका है।