कमल भट्ट और रवि सुमन: कराची की एक सड़क पर कुछ लोग जमा थे, रात का वक्त था। स्ट्रीट लाइट्स की पीली रोशनी में परछाइयां लंबी हो रही थीं और माहौल में खेल का शोर था। एक गोल चीज़ को ठोकर मारी जा रही थी। देखने में यह फुटबॉल का मैच लग रहा था लेकिन वह कोई आम फुटबॉल नहीं थी, न ही वह कोई रबर या चमड़े की गेंद थी।
 
वह एक इंसानी सिर था। एक जीता जागता इंसान, जो कुछ घंटे पहले तक सांस ले रहा था। उसका नाम था अरशद पप्पू। ल्यारी का एक खूंखार गैंगस्टर और उसे ठोकर मारने वाले कोई और नहीं, उसके अपने पुराने दुश्मन थे। उजैर बलोच और बाबा लाडला। यह दृश्य किसी हॉरर फिल्म का नहीं था। यह पाकिस्तान के शहर कराची की हकीकत थी। वह शहर जिसे रोशनी का शहर कहा जाता था, उसकी गलियां खून से लाल हो चुकी थीं। आज पढ़िए उसी की कहानी।

अलिफ लैला की इस किस्त में पढ़िए कराची के वाइल्ड वेस्ट यानी ल्यारी गैंगवार की पूरी कहानी। ल्यारी इन दिनों चर्चा में है एक फ़िल्म के चलते। धुरंधर फ़िल्म का ट्रेलर आया तो पाकिस्तान के मशहूर अखबार Dawn ने लिखा कि धुरंधर फिल्म ने ल्यारी को एक स्पाई प्लेग्राउंड में बदल दिया है लेकिन यह कहानी सिर्फ गोलियों और बम धमाकों की नहीं है। यह कहानी है एक ऐसे शहर की जिसे उसके रखवाले ही बेचकर खा गए। जहां फिज़िक्स में MSc करने वाला एक लड़का डॉन बन गया। जहां एंबुलेंस ड्राइवरों को पिघलती हुई हड्डियां उठानी पड़ीं और जहां एक टीचर को अपनी जान बचाने के लिए गैंगस्टर्स के साथ चलना पड़ा।


दो भाई, एक काला नाग और फिजिक्स वाला डॉन

 

पाकिस्तान का कराची शहर। यहां का एक इलाका है ल्यारी। इसे कराची की मां कहा जाता है। शहर का सबसे पुराना हिस्सा। पाकिस्तान के लेखक और ऐक्टिविस्ट रमजान बलोच ने 'ल्यारी की अनकही कहानी' नाम से एक किताब लिखी। जो साल 2018 में छपी। वह बताते हैं कि साल 1729 में एक हिंदू व्यापारी भोजोमल ने ल्यारी शहर की नींव रखी। रमजान कहते हैं कि कराची पहले हिंसा या डर का पर्याय नहीं हुआ करता था बल्कि अंग्रेजों के आने के बाद यह तरक्की की राह पर चल निकला था। 1843 के बाद अंग्रेजों ने वहां सड़कें, इमारतें, पार्क और प्ले ग्राउंड बनवाए। कराची बंदरगाह पर खूब भीड़ रहती थी। इसके अलावा पारसियों और हिंदुओं ने भी यहां खूब सारे निर्माण करवाए। लोग बेहतर होते गए। इंडस्ट्री शुरू हुई। रोजगार का सिलसिला चला और आसपास की रियासतों के लोगों ने यहां आना शुरू किया। बंदरगाह का सारा काम बलोच संभालते थे। इसके अलावा वह सड़कें भी बनाते थे और ये सभी आते थे ल्यारी से। इस तरह ल्यारी एक लेबर कोलोनी के तौर पर कराची की पहचान बन गया और फिर वहां लोगों की बसावट बढ़ने लगी।

 

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अगर आप 2000 के दशक से थोड़ा पहले, यानी फ्लैशबैक में जाएं तो ल्यारी की पहचान सिर्फ खून-खराबा नहीं थी। वहां एक अलग ही दुनिया बसती थी। गलियों में एक दुकान थी- उस्मान गज़ल पान हाउस। यह दुकान परवीन नाम की एक टीचर के पिता की थी। यहां का माहौल किसी फिल्म जैसा था। 24 घंटे संगीत बजता रहता था। गज़लें हवा में तैरती थीं और सिर्फ गज़लें ही नहीं, लोग जमा होते और नाचते थे। परवीन का भाई नईम, जिसकी आवाज़ बहुत सुरीली थी, उनके लिए गाता था। चाय की चुस्कियां, पान की लाली और संगीत। यह ल्यारी की रूह थी।

 

 

वहां के लोग खेल के दीवाने थे। फुटबॉल और बॉक्सिंग उनका जुनून था। काकरी ग्राउंड वहां का सबसे मशहूर मैदान था लेकिन इस मैदान और फुटबॉल का रिश्ता सिर्फ खेल का नहीं था। ल्यारी को पाकिस्तान का 'मिनी ब्राजील' कहा जाता है। यहां के बच्चे इमरान ख़ान या वसीम नहीं, 'पेले' और 'रोनाल्डिन्हो बनने का सपना देखते थे। वर्ल्ड कप के दौरान यहां की छतों पर पाकिस्तान का नहीं, बल्कि ब्राजील का झंडा लहराता था लेकिन धीरे-धीरे यह मैदान खेल से ज्यादा सियासी रैलियों और फिर लाशें फेंकने की जगह बन गया।

 

परवीन इसी माहौल में बड़ी हुई। वह एक टीचर थी। वह छत पर एक स्ट्रीट स्कूल चलाती थी। उसका मानना था कि अगर ल्यारी को बचाना है, तो बच्चों को पढ़ाना होगा लेकिन पढ़ाना आसान नहीं था। गलियों में खतरा मंडराता रहता था। परवीन को स्कूल जाने में डर लगता था। तब उसे एक सहारा मिला। उसका एक स्टूडेंट था- नासिर।

 

नासिर कोई आम स्टूडेंट नहीं था। वह एक बॉडी बिल्डर था। उसके बाइसेप्स देखकर लगता था कि वह कोई गैंगस्टर है। वह फेक ब्रांडेड टी-शर्ट्स पहनता था। उसका सपना बॉक्सर बनने का था लेकिन वह परवीन की हिफाजत करता था। जब परवीन स्कूल से घर जाती, तो नासिर उसके पीछे-पीछे चलता। एक बॉडीगार्ड की तरह। वह चिल्लाकर रास्ते में खड़े लड़कों को हटाता, 'हट जाओ, बाजी आ रही हैं।'

 

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ल्यारी में कैसे शुरू हुआ खूनी खेल?

 

इस ल्यारी में दहशत और हिंसा के बीज पड़े 1960 के दशक में। कहानी दो भाइयों से शुरू होती है। एक का नाम था शेरल और दूसरे का दादल (दाद मुहम्मद)। ये दोनों भाई हशीश (चरस) के सौदागर थे। उस ज़माने में ड्रग्स का धंधा आज जैसा नहीं था। उस वक्त कराची के अंडरवर्ल्ड पर एक और डॉन का राज था। उसका नाम था- काला नाग। काला नाग ड्रग्स का किंगपिन था लेकिन शेरल और दादल को नंबर दो बनना मंजूर नहीं था। उन्होंने फैसला किया कि अगर राज करना है तो राजा को मारना होगा। 

 

उन्होंने काला नाग को रास्ते से हटा दिया और सिर्फ हटाया नहीं, ल्यारी में दहशत का एक नया पैमाना सेट किया। उनका तरीका बेहद खौफनाक था। वे अपने दुश्मन को बीच बाजार में कत्ल करते थे और बात सिर्फ कत्ल पर खत्म नहीं होती थी। वे सिर काटकर उसे चौराहे पर लटका देते थे ताकि देखने वालों की रूह कांप जाए। यह 1960 और 70 का दशक था। तब एके-47 नहीं थी। चाकू और छुरियों का राज था।

 

वक्त का पहिया घूमा। 1990 का दशक आया और ल्यारी के अंडरवर्ल्ड में एक ऐसे किरदार की एंट्री हुई, जिसने जुर्म की दुनिया की परिभाषा बदल दी। उसका नाम था इकबाल, जिसे लोग बाबू डकैत कहते थे। आमतौर पर हम गैंगस्टर्स को अनपढ़ या जाहिल समझते हैं लेकिन बाबू डकैत अलग था। वह पढ़ा-लिखा था। उसके पास फिजिक्स में मास्टर डिग्री (MSc Physics) थी। उसके नेटवर्क पूरी दुनिया में फैले थे। वह इतना शातिर था कि पुलिस की नाक के नीचे से ड्रग्स का धंधा चलाता था।

 

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बाबू डकैत की दुश्मनी पुरानी थी दादल से। वही दादल जिसने कभी काला नाग को मारा था। बाबू डकैत ने बदला लिया। उसने दादल को बीच बाजार में काट डाला। एक फिजिक्स वाले ने एक पुराने डॉन का अंत कर दिया। बाबू डकैत का अंत भी बड़ा अजीब हुआ। वह पुलिस की गोली से नहीं मरा। जब सीआईए (CIA) ने छापा मारकर उसे गिरफ्तार किया तो वह पहले ही लकवाग्रस्त (Paralyzed) हो चुका था। दादल की मौत के बाद एक खालीपन आ गया। 

दादल का एक बेटा था। नाम था-सरदार अब्दुल रहमान बलोच। जिसे दुनिया आगे चलकर रहमान डकैत के नाम से जानने वाली थी लेकिन उस वक्त रहमान बच्चा था या यूं कहें कि कच्चा था। उसे एक सहारे की ज़रूरत थी और वह सहारा बना- हाजी लालू।


हाजी लालू, दादल का पुराना साथी था। उसने रहमान को अपनी छत्रछाया में ले लिया। रिश्ता उस्ताद और शागिर्द का नहीं, बल्कि बाप और बेटे जैसा हो गया। हाजी लालू के अपने सात बेटे थे। जिनमें से एक का नाम था अरशद पप्पू। यह नाम याद रखिएगा क्योंकि आगे चलकर यही नाम रहमान की ज़िंदगी का सबसे बड़ा नासूर बनने वाला था।

 

हाजी लालू ने रहमान को जुर्म की दुनिया के दांव-पेच सिखाए। शेरशाह कब्रिस्तान के इलाके में इनका अड्डा था। वहां से ड्रग्स और भत्ता खोरी का धंधा चलता था। सब कुछ ठीक चल रहा था। 'बाप-बेटे' मिलकर शहर को लूट रहे थे लेकिन कहते हैं न, चोर की दाढ़ी में तिनका हो न हो, चोरों के बीच पैसे का झगड़ा जरूर होता है।

 

1990 के दशक के बीच की बात है। रहमान डकैत ने एक अमीर व्यापारी को किडनैप किया। फिरौती की रकम मोटी थी लेकिन हाजी लालू ने एक चाल चली। उसने रहमान से कहा, 'बेटा, इसे छोड़ दो। इज्जत का सवाल है। पैसे मत लो।' रहमान, जो लालू को बाप मानता था, उसने हुक्म मान लिया। उसने व्यापारी को छोड़ दिया लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं हुई। बाद में राज खुला। हाजी लालू ने रहमान की पीठ पीछे खेल कर दिया था। उसने उस व्यापारी से चुपके से फिरौती वसूल ली थी और वह रकम छोटी-मोटी नहीं थी। वह थी-1 करोड़ रुपये।

 

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जब रहमान को इस धोखे का पता चला, तब वह जेल में था। हाजी लालू ने ही उसे गिरफ्तार करवाया था ताकि वह पैसे न मांग सके। जेल की सलाखों के पीछे रहमान को समझ आया कि जिसे वह बाप समझता था, वह असल में एक बिजनेस पार्टनर था जिसने उसे ठग लिया। रहमान ने जेल से ही फैसला कर लिया। उसने हाजी लालू से अपनी राहें अलग कर लीं। जो कल तक एक परिवार था, वह अब दो दुश्मन खेमों में बंट गया। एक तरफ हाजी लालू और उसका बेटा अरशद पप्पू। दूसरी तरफ रहमान डकैत।


यह सिर्फ एक गैंग का बंटवारा नहीं था। यह कराची की सड़कों पर खून की होली की शुरुआत थी। 1 करोड़ रुपये के लालच ने ल्यारी को एक ऐसे युद्ध में धकेल दिया जो अगले कई दशकों तक चलने वाला था। चाकू का ज़माना जा चुका था। अब गोलियों की बारी थी और रहमान डकैत, जो अभी तक सिर्फ एक गुंडा था, अब एक ऐसा मॉन्स्टर बनने जा रहा था जो अपनी सगी मां को भी नहीं बख्शने वाला था।

मां का कातिल, बेनजीर का ड्राइवर और 5 करोड़ की रिश्वत

 

हाजी लालू के 1 करोड़ के धोखे ने रहमान डकैत को एक अलग ही रास्ते पर डाल दिया था लेकिन पैसा सिर्फ एक चिंगारी थी। रहमान के अंदर जो बारूद भरा था, वह बहुत पहले से सुलग रहा था। एक ऐसा इंसान जिसके लिए खून बहाना उतना ही आसान था जितना सांस लेना। उसने शुरुआत किसी दुश्मन से नहीं की। उसने शुरुआत अपने घर से की। उस रिश्ते से की जिसे दुनिया सबसे पाक मानती है।

 

कहते हैं अपराध की दुनिया में भी कुछ उसूल होते हैं लेकिन सरदार अब्दुल रहमान बलोच उर्फ रहमान डकैत का कोई उसूल नहीं था। उसका जुर्म का सफर 13 साल की उम्र में शुरू हो चुका था, जब उसने एक मामूली झगड़े पर अपने पड़ोसी को चाकू घोंप दिया था लेकिन 1995 में उसने जो किया, उसने ल्यारी के बड़े-बड़े गुंडों की रूह कंपा दी।

 

रहमान को शक था। अपनी ही मां के चरित्र पर। उसे लगता था कि उसकी मां का किसी विरोधी गैंग के मेंबर के साथ चक्कर चल रहा है। शक का इलाज रहमान के पास सिर्फ एक था-मौत। उसने अपनी सगी मां का कत्ल कर दिया और हैवानियत देखिए, कत्ल करके लाश को ठिकाने नहीं लगाया बल्कि अपनी मां की लाश को कमरे के पंखे से लटका दिया।

 

यह वह पल था जब ल्यारी को समझ आ गया कि यह लड़का कोई मामूली अपराधी नहीं, एक मॉन्स्टर है लेकिन इंसानी फितरत देखिए। यही रहमान डकैत, जो मां का कातिल था, बाहर की दुनिया के लिए मसीहा बनने का नाटक करता था। वह ल्यारी का रॉबिन हुड बनना चाहता था।

 

वह लोगों के अस्पताल का बिल भरता था। गरीब लड़कियों की शादी करवाता था। फुटबॉल टूर्नामेंट करवाता था। उसने मुफ्त लंगर खोले। लोग कहते थे- 'डकैत हमारा मसीहा है।' एक हाथ से वह लोगों का गला काटता था और दूसरे हाथ से उनकी मदद करता था। यह उसकी पावर गेम का हिस्सा था। उसे पता था कि अगर पब्लिक साथ है तो पुलिस उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

 

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रहमान ने ल्यारी में एक समानांतर सरकार चला रखी थी। यहां 'पर्ची सिस्टम' चलता था। अगर आपको अपने घर में एक ईंट लगानी है, राशन की दुकान खोलनी है या स्कूल चलाना है, तो पहले गैंग के ऑफिस से 'पर्ची' कटवानी पड़ती थी। यह कोई हफ्ता-वसूली नहीं, एक तरह का 'टैक्स' था और सिर्फ ड्रग्स या पर्ची नहीं, लड़ाई पानी की भी थी। कराची में पानी सोने के भाव बिकता था। गैंग्स ने सरकारी पानी की लाइनों पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने अवैध हाइड्रेंट्स (Hydrants) बनाए और लोगों को टैंकरों के जरिए महंगे दामों पर पानी बेचना शुरू किया। जो पानी नल में मुफ्त आना चाहिए था, वह अब गैंगवार की फंडिंग का जरिया बन चुका था।

 

इस तरह रहमान अपनी पावर में इजाफा कर रहा था। वहीं दूसरी तरफ़ उसके दुश्मन हाजी लालू का बेटा अरशद पप्पू भी तैयार हो रहा था। रहमान और लालू की दुश्मनी अब रहमान और पप्पू की जंग बन चुकी थी। यह सिर्फ धंधे की लड़ाई नहीं थी, यह इज्जत और बदले की आग थी। अरशद पप्पू ने शुरुआत की। उसने वह लकीर पार की जो अंडरवर्ल्ड में भी कोई पार नहीं करता। वह कब्रिस्तान गया। वहां रहमान के पिता, दादल की कब्र थी। पप्पू के आदमियों ने उस कब्र को तोड़ा, उसकी बेअदबी की। यह सीधा संदेश था-हम तुम्हें मिट्टी में भी सुकून से नहीं रहने देंगे।

फोन करके रहमान के चाचा को मारी गोली

 

रहमान आगबबूला था लेकिन अरशद पप्पू रुकने वाला नहीं था। उसने रहमान को चोट पहुंचाने के लिए उसके करीबियों को निशाना बनाना शुरू किया। एक दिन पप्पू ने रहमान के चाचा को हब चौकी के पास घेर लिया। पप्पू चाहता तो चुपचाप गोली मार सकता था लेकिन उसे रहमान को तड़पाना था। उसने वहां से रहमान को फोन लगाया। रहमान ने फोन उठाया। उधर से पप्पू की आवाज़ आई, 'सुन, मेरी बात सुन। मैं तेरे चाचा को मार रहा हूं। गोलियों की आवाज़ सुन।' और फोन चालू रखकर उसने रहमान के चाचा को गोलियों से भून दिया। फोन पर अपने चाचा की मौत की आवाज़ सुनकर रहमान पागल हो गया। बदला लेने का सिलसिला शुरू हुआ। खून के बदले खून।

 

इसी खूनी खेल में एक और किरदार की एंट्री हुई। रहमान का एक ट्रांसपोर्टर दोस्त था- फैज़ू बलोच। रहमान अपना गैंग चलाने के लिए फैज़ू से भत्ते के पैसे और मदद लेता था। अरशद पप्पू की नज़र इस पर थी। पप्पू ने फैज़ू को धमकाया, 'अब हफ्ता हमें मिलेगा, रहमान को नहीं।'

 

फैज़ू बलोच वफादार था। उसने इनकार कर दिया। अंजाम वही हुआ जो ल्यारी में होता था। अरशद पप्पू फैज़ू के अड्डे पर पहुंचा और उसे गोलियों से भून दिया। फैज़ू बलोच की मौत सिर्फ एक ट्रांसपोर्टर की मौत नहीं थी। यह उस चिंगारी की शुरुआत थी जो आगे चलकर पूरे कराची को जलाकर राख करने वाली थी क्योंकि फैज़ू का एक बेटा था। नाम था-उज़ैर जान बलोच। उज़ैर उस वक्त जुर्म की दुनिया से कोसों दूर था। वह एक सरकारी अस्पताल में वार्ड बॉय (कुली) की नौकरी करता था। सीधा-सादा आदमी लेकिन बाप की लाश देखकर उज़ैर टूट गया। उसने पहले कानून का दरवाजा खटखटाया लेकिन हाजी लालू के गैंग ने उसे डराया-धमकाया। हारकर उज़ैर ने रहमान डकैत का हाथ थाम लिया। रहमान और उज़ैर बचपन के दोस्त थे, स्कूल के साथी थे। रहमान ने उज़ैर को अपनी गैंग में शामिल कर लिया।

 

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रहमान डकैत अब सिर्फ एक गैंगस्टर नहीं था। वह एक सियासी मोहरा भी था। पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) का गढ़ ल्यारी था और ल्यारी का असली राजा रहमान था। सियासतदानों को वोट चाहिए थे और रहमान को सुरक्षा। दोनों का मतलब सध रहा था।

 

रहमान का असर-रसूख देखना हो तो 18 अक्टूबर 2007 की तारीख याद कीजिए। पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो निर्वासन काटकर वतन वापस आ रही थीं। कराची एयरपोर्ट पर लाखों का हुजूम था। तभी एक जोरदार धमाका हुआ। कारसाज़ बम ब्लास्ट। करीब 140 लोग मारे गए। अफरा-तफरी मच गई। हर तरफ लाशें थीं लेकिन बेनजीर को वहां से सुरक्षित निकालने की जिम्मेदारी किसकी थी? वह पाकिस्तान की फौज या कराची पुलिस का कोई आला अफसर नहीं था। बेनजीर भुट्टो की बुलेटप्रूफ गाड़ी की स्टीयरिंग जिसके हाथ में थी, वह था-रहमान डकैत। रहमान उस वक्त बेनजीर का सिक्योरिटी ऑफिसर बना हुआ था। उसने बेनजीर को सही सलामत बिलावल हाउस पहुंचाया।

 

सोचिए, एक तरफ पुलिस उसके सिर पर इनाम रख रही थी। दूसरी तरफ वह मुल्क की सबसे बड़ी लीडर का सारथी बना बैठा था। उसकी पहुंच और पावर का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है लेकिन हर शेर को सवा शेर मिलता है। कराची पुलिस में एक अफसर था-एसएसपी चौधरी असलम। इधर फिल्म बनी तो लोग उसे राउडी राठौर कहने लगे थे। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट। उसे जुर्म का खात्मा करने का टास्क मिला। चौधरी असलम को पता था कि रहमान को पकड़ना लोहे के चने चबाना है लेकिन 2006 में उसे एक मौका मिला। एक सटीक टिप। चौधरी असलम ने अपनी टीम के साथ जाल बिछाया। बलूचिस्तान के इलाके विंदर में रहमान छिपा बैठा था। एक ज़बरदस्त ऑपरेशन हुआ और आखिरकार, पुलिस ने रहमान डकैत को गिरफ्तार कर लिया।

 

यह पुलिस की बहुत बड़ी जीत थी। रहमान सलाखों के पीछे था। पुलिस ने उसकी खूब खातिरदारी की। कहते हैं पुलिस का डंडा पड़ता है तो अच्छे-अच्छों की हेकड़ी निकल जाती है। रहमान ने भी रो-रोकर अपने सारे गुनाह कबूल किए लेकिन कहानी में अभी ट्विस्ट बाकी था। रहमान डकैत सिर्फ ताकतवर नहीं, अमीर भी था। बहुत अमीर। उसने जेल के अंदर ही खेल कर दिया। उसने चौधरी असलम की टीम के कुछ भ्रष्ट पुलिसवालों को खरीदा। रकम थी-5 करोड़ रुपये। जी हां, 5 करोड़। पुलिसवालों का ईमान डोल गया।

 

एक सुबह खबर आई कि रहमान डकैत फरार हो गया है। वह जेल तोड़कर नहीं भागा। वह इज्जत से, मेहमान की तरह थाने से बाहर निकला। यह चौधरी असलम और पूरी कराची पुलिस के मुंह पर एक तमाचा था। रहमान दो बार जेल से फरार हुआ था।


अब चौधरी असलम के लिए यह सिर्फ ड्यूटी नहीं, बल्कि इज्जत का सवाल बन गया था। उसने कसम खाई कि अब वह रहमान को गिरफ्तार नहीं करेगा, उसका काम तमाम करेगा और यहीं से शुरू हुआ वह खूनी खेल जिसका अंत एक एनकाउंटर पर होना था लेकिन उससे पहले, एक रिपोर्टर और एक एंबुलेंस ड्राइवर की जिंदगी में तूफान आने वाला था।

चिड़ी बाबू, एग्जाम माफिया और एनकाउंटर

 

कराची की कहानी सिर्फ गैंगस्टर्स की नहीं थी। यह उन लोगों की भी कहानी थी जो इन गैंगस्टर्स के फैलाए मौत के कचरे को साफ करते थे और उन लोगों की, जो इस मौत को हेडलाइन बनाकर बेचते थे। रहमान डकैत के फरार होने के बाद शहर में दहशत थी लेकिन इस दहशत के बीच दो आम लोग अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ने जा रहे थे। एक एंबुलेंस चला रहा था और दूसरा कैमरा थामे हुए था।

 

सफदर। कराची का एक एंबुलेंस ड्राइवर। वह ईदी फाउंडेशन के लिए काम करता था। सफदर की ज़िंदगी का एक ही मकसद था-इंतज़ार खत्म करना। उसका भाई आदिल बचपन से पोलियों का शिकार था। अस्पतालों की लाइनों में भाई को तड़पते देख सफदर ने कसम खाई थी कि वह किसी को मदद के लिए इंतज़ार नहीं करवाएगा लेकिन कराची की सड़कें जज्बातों से नहीं चलतीं। सफदर का उस्ताद था-चिड़ी बाबू (Bird Man)। उसे चिड़ी बाबू इसलिए कहते थे क्योंकि वह एक जगह टिकता नहीं था, चिड़िया की तरह फुदकता रहता था। चिड़ी बाबू अजीब था। वह लाशें उठाते वक्त भी डांस करता था। शायद मौत को झेलने का उसका यही तरीका था।

 

सफदर के पास एक दिन कॉल आई। ल्यारी के काकरी ग्राउंड के पास एक लाश पड़ी है। सफदर वहां पहुंचा। लाश किसी ड्रग एडिक्ट की थी। कई दिनों पुरानी। मक्खियां भिनभिना रही थीं। कीड़े रेंग रहे थे। बदबू इतनी थी कि सफदर बर्दाश्त नहीं कर पाया। उसने सड़क पर उल्टियां कर दीं। चिड़ी बाबू ने यह देखा। वह सफदर के पास आया और ज़ोरदार तमाचा उसके गाल पर मारा। उसने सफदर की आंखों में आंखें डालकर कहा, 'वहां क्या देख रहे हो? वह एक इंसान है और तुम क्या हो? तुम भी इंसान हो। ड्रामा बंद करो और लाश उठाओ।' उस थप्पड़ ने सफदर को हमेशा के लिए बदल दिया।
 
लाशें उठाने की इस नौकरी की एक बहुत भारी कीमत थी, जो सफदर को अपने दिमाग से चुकानी पड़ी। उसे मानसिक आघात (PTSD) हो गया था। हालत यह थी कि जब वह घर जाकर खाना खाने बैठता तो उसे निवाले में से खून की महक आती थी। उसे लगता था उसके हाथों से मौत की बदबू आ रही है। वह चाहकर भी अपने छोटे बच्चों को गले नहीं लगा पाता था। शहर के दूसरे हिस्से में एक और लड़का अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा था। नाम था-ज़िले। ज़िले को इंजीनियर बनना था लेकिन पढ़ाई में मन नहीं लगा। उसे 1992 का क्रिकेट वर्ल्ड कप याद था, उसे ग्लैमर चाहिए था, उसे टीवी पर आना था तो वह बन गया- क्राइम रिपोर्टर।

 

शुरुआत में उसे लगा कि यह काम फिल्मों जैसा होगा। लेदर जैकेट, सनग्लासेस और रसूख लेकिन हकीकत ने बहुत जल्द उसके चेहरे पर मुक्का मारा। सचमुच का मुक्का। उसका पहला बड़ा असाइनमेंट था- एग्जाम माफिया। कराची में नकल कराने वाला गैंग। ज़िले कैमरा लेकर सेंटर के बाहर खड़ा था। रिपोर्टिंग कर रहा था। तभी एक आदमी बाहर निकला। उसने कोई सवाल नहीं पूछा। उसने सीधा ज़िले के मुंह पर घूंसा मारा। माइक गिर गया। होंठ फट गया। ज़िले को समझ आ गया कि यहां सवाल पूछने की कीमत खून से चुकानी पड़ती है।

 

उसके बाद फोन कॉल्स का सिलसिला शुरू हुआ। अनजान नंबरों से धमकियां, 'हमारी पार्टी का नाम टीवी पर मत लेना।' उसके माता-पिता डरे हुए थे। वह शिया मुसलमान था और कराची में शिया होना अपने आप में एक खतरा था लेकिन ज़िले को लत लग चुकी थी। नहीं, ड्रग्स की नहीं। ब्रेकिंग न्यूज़ की लत। उसे सबसे पहले खबर चाहिए थी।

रहमान डकैत का एनकाउंटर

 

यह नशा इस हद तक बढ़ गया था कि ज़िले इंसान से ज्यादा एक मशीन बन गया था। ज़िले के मोबाइल फोन की गैलरी में फैमिली या दोस्तों की फोटो नहीं मिलतीं। उसकी गैलरी भरी पड़ी थी, एनकाउंटर में मारे गए अज्ञात लाशों के चेहरों की तस्वीरों से। वह लाश के पास जाकर क्लोज़-अप फोटो लेता था ताकि पहचान सके कि मरने वाला कौन है। मौत उसके लिए सिर्फ एक 'स्कूप' थी। कहानी अब वापस रहमान डकैत पर लौटती है। 

 

साल 2009, रहमान डकैत अब पुलिस के लिए सिरदर्द बन चुका था। चौधरी असलम (SP) कसम खा चुका था कि इस बार गिरफ्तारी नहीं, सीधा एनकाउंटर होगा। अगस्त की एक उमस भरी रात थी। क्राइम रिपोर्टर ज़िले के फोन की घंटी बजी। उधर एक पुलिस अफसर था। बहुत बड़ा अफसर। उसने कहा, 'एक बड़ी खबर है। रहमान डकैत हम उसे घेरने वाले हैं। एक बड़ा एनकाउंटर होने वाला है।' ज़िले का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। यह उसके करियर की सबसे बड़ी खबर थी। 5 घंटे बाद फिर फोन आया- 'काम हो गया।'

 

ज़िले अपनी टीम के साथ भागा। जगह थी-बिन कासिम। शहर के बाहर का इलाका। वहां पुलिस की गाड़ियां थीं और ज़मीन पर खून से लथपथ एक लाश पड़ी थी। यह वही चेहरा था। रहमान डकैत। वह जो कभी बेनजीर भुट्टो की गाड़ी चला रहा था, आज धूल में पड़ा था। पुलिस ने इसे पुलिस एनकाउंटर बताया लेकिन सब जानते थे कि यह बदला था। रहमान डकैत का अंत हो चुका था। ज़िले ने कैमरा ऑन किया और दुनिया को बताया- ल्यारी का शेर मर चुका है।

 

राजा मर चुका था लेकिन गद्दी खाली नहीं रह सकती थी। सवाल था-अगला डॉन कौन? ज़िले को अपनी स्कूप चाहिए थी। उसने अपने कॉन्टैक्ट्स घुमाए। उसे ल्यारी के एक बंगले में बुलाया गया। वहां दो लोग बैठे थे। पहला-उज़ैर बलोच। फैज़ू बलोच का बेटा। पढ़ा-लिखा, साफ-सुथरे कपड़े, इंग्लिश बोलने वाला। वह किसी कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव जैसा लग रहा था। दूसरा-बाबा लाडला। रहमान का राइट-हैंड। कद में छोटा, चेहरे पर खूंखार भाव, ठेठ गुंडा। ज़िले ने पूछा, 'अगला सरदार कौन होगा?' कायदे से ताकतवर बाबा लाडला था लेकिन बाबा लाडला ने उज़ैर की तरफ इशारा किया। उसने कहा, 'नहीं। उज़ैर भाई। उज़ैर भाई हमारे अगले सरदार होंगे।'

 

ज़िले ने ब्रेकिंग न्यूज़ चलाई। ल्यारी को नया गॉडफादर मिल गया था। उज़ैर बलोच लेकिन ज़िले को अंदाज़ा नहीं था कि यह सूट-बूट वाला डॉन रहमान डकैत से भी ज्यादा खतरनाक साबित होने वाला था क्योंकि रहमान के पास कम से कम कुछ उसूल थे, उज़ैर के पास सिर्फ बदले की आग थी और इस आग में सबसे पहले जलने वाला था- अरशद पप्पू। एक ऐसा कत्ल होने वाला था, जिसे कराची का बच्चा-बच्चा फुटबॉल मैच के नाम से याद रखेगा।

फुटबॉल, गधा-गाड़ी और एक टीचर की ना

 

कराची में एक कहावत मशहूर हो गई थी, 'ल्यारी में जो जाता है, वह अपनी मर्जी से नहीं आता।' पुलिस थानों में बैठकर तमाशा देख रही थी और सड़कों पर वह खेल खेला जा रहा था, जिसे देखकर शैतान भी पनाह मांग ले। रहमान डकैत मर चुका था लेकिन उसकी मौत ने शांति नहीं, बल्कि एक ऐसे तूफान को जन्म दिया था जिसका नाम था- बदला और इस बदले की आग में सबसे पहले जलने वाला था वह इंसान, जिसने इस खेल की शुरुआत की थी।

 

मार्च 2013 की बात है। जगह थी कराची का पॉश इलाका-डिफेंस। यहां वह लोग रहते थे जिनके पास दौलत थी, रसूख था। यहीं एक घर में छिपा बैठा था-अरशद पप्पू। वही अरशद पप्पू, जिसने रहमान के पिता की कब्र तोड़ी थी। जिसने उज़ैर बलोच के पिता फैज़ू को अगवा करके मारा था लेकिन अब वक्त बदल चुका था। अब उज़ैर बलोच का राज था। उज़ैर के लड़कों को खबर मिली कि पप्पू डिफेंस में है। वह पुलिस की वर्दी पहनकर वहां पहुंचे। उन्होंने पप्पू को उठाया। उसके भाई यासिर अराफात को उठाया। और उन्हें वहां ले आए जहां उनकी मौत का जश्न मनाया जाना था- ल्यारी।

 

रात का वक्त था। गलियों में भीड़ जमा थी। उज़ैर बलोच और उसका कमांडर बाबा लाडला वहां मौजूद थे। अरशद पप्पू को उनके सामने लाया गया। उसे घंटों टॉर्चर किया गया। उसकी चीखें ल्यारी की गलियों में गूंजती रहीं और फिर वह हुआ जिसने पूरे शहर को दहशत में डाल दिया। अरशद पप्पू का सिर कलम कर दिया गया। धड़ अलग, सिर अलग लेकिन नफरत इतनी गहरी थी कि मौत पर भी बस नहीं चला। गैंगस्टर्स ने उस कटे हुए सिर को ज़मीन पर रखा और उसे फुटबॉल की तरह ठोकर मारना शुरू कर दिया। दर्शक तालियां बजा रहे थे। वीडियो बनाए जा रहे थे।

 

इसके बाद लाश के धड़ को एक गधा-गाड़ी पर लादा गया। उसे ल्यारी की गलियों में घुमाया गया। जैसे कोई ट्रॉफी हो। अंत में उस लाश के टुकड़े किए गए। उन्हें जलाया गया और बची हुई राख को गटर में बहा दिया गया। नामो-निशान मिटा दिया गया। बाद में किसी ने उज़ैर बलोच से इस बर्बरता के बारे में पूछा तो उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उसने सिर्फ एक लाइन कही, 'What goes around comes around' (जैसी करनी वैसी भरनी)।

2012 का ऑपरेशन

 

ल्यारी की ये कहानी गैंगवार की कहानी है लेकिन इसके पीछे स्टेट की नाकामी भी थी। इस नाकामी का सबसे बड़ा सबूत था-अप्रैल 2012 का ऑपरेशन। पुलिस को ऊपर से आदेश मिला था-ल्यारी को साफ करो। जिम्मेदारी फिर उसी राउडी राठौर यानी चौधरी असलम के पास थी। 27 अप्रैल 2012, चौधरी असलम अपनी पूरी फौज लेकर पहुंचे। 3000 पुलिसवाले। बख्तरबंद गाड़ियां (APCs), स्नाइपर्स। ऐसा लग रहा था जैसे कोई युद्ध होने वाला है।

 

ल्यारी किला बन चुका था। जैसे ही पुलिस अंदर घुसी, उनका स्वागत गोलियों से नहीं हुआ। उनका स्वागत हुआ-रॉकेट लॉन्चरों (RPGs) से। गैंगस्टर्स ने पुलिस की बख्तरबंद गाड़ियों पर रॉकेट दागे। गाड़ियां खिलौनों की तरह उड़ गईं। पुलिस को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। यह ऑपरेशन 8 दिन चला। 8 दिन तक ल्यारी को सील कर दिया गया। न कोई अंदर जा सकता था, न बाहर। बिजली काट दी गई। पानी बंद कर दिया गया। घरों में राशन खत्म हो गया। बच्चे भूख से बिलख रहे थे। लोग प्यास से तड़प रहे थे। यह गैंगस्टर्स के खिलाफ ऑपरेशन नहीं था, यह ल्यारी के आम लोगों के खिलाफ जंग बन गई थी।

 

इसी घेराबंदी के बीच एंबुलेंस ड्राइवर, सफदर, अपनी गाड़ी लेकर पहुंचा। उसकी एंबुलेंस में लाशें नहीं थीं। उसमें चावल और आटे की बोरियां थीं। ईदी फाउंडेशन ने फैसला किया था कि वह भूखे लोगों को खाना पहुंचाएंगे। सफदर ने अपनी एंबुलेंस बैरिकेड्स की तरफ बढ़ाई। वहां चौधरी असलम खड़ा था। हाथ में पिस्टल, होंठों पर सिगरेट। उसने सफदर को रोका और पूछा, 'कहां जा रहे हो?' 
सफदर ने कहा, 'साहब, राशन है। लोग मर रहे हैं।'


चौधरी असलम को लगा कि राशन की आड़ में गैंगस्टर्स को हथियार सप्लाई किए जा रहे हैं। उसने आव देखा न ताव। उसने एक चाकू निकाला और सफदर की एंबुलेंस में रखी चावल और दूध की बोरियों को चीरना शुरू कर दिया।
सड़क पर सफेद चावल और दूध का पाउडर बिखर गया। कीचड़ और खून के साथ मिल गया। सफदर देखता रह गया। चौधरी असलम ने सफदर को कॉलर से पकड़ा। उसे और उसके साथी को पुलिस जीप में ठूंसा और थाने ले गया।

थाने के अंदर, उस मसीहा एंबुलेंस ड्राइवर को पट्टों से पीटा गया। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह भूखों को खाना देना चाहता था। जब सफदर छूटा, तो उसका शरीर सूजा हुआ था लेकिन उससे ज्यादा चोट उसकी रूह पर लगी थी। उसे समझ आ गया था कि इस लड़ाई में हीरो कोई नहीं है। न गैंगस्टर, न पुलिस। इस जंग की कीमत सिर्फ सफदर ने नहीं चुकाई। परवीन, वह टीचर जो बच्चों को पढ़ाना चाहती थी, उसके घर पर भी कयामत टूटी। परवीन की बहन, समरीन की हाल ही में शादी हुई थी। वह मां बनी थी। जुड़वा बच्चे हुए थे। वह अपने पिता के बनाए पुराने घर में रहती थी लेकिन गैंगस्टर्स को वह घर पसंद आ गया। वह स्ट्रेटेजिक लोकेशन पर था। बाबा लाडला के आदमियों ने घर पर धावा बोला। उन्होंने ताले तोड़े और घर पर कब्जा कर लिया। समरीन को अपने दुधमुंहे बच्चों के साथ भागना पड़ा।

 

5 महीने तक वह घर गैंगस्टर्स के पास रहा। जब वे छोड़कर गए तो परिवार वापस लौटा। उन्होंने जो देखा, वह किसी बुरे सपने से कम नहीं था। घर की दीवारों पर खून के धब्बे थे। फर्श पर गोलियों के निशान थे। गैंगस्टर्स ने उस घर को टॉर्चर सेल बना दिया था। वहां लोगों को लाकर मारा जाता था और सबसे दुखद बात-समरीन का दहेज चोरी हो चुका था। वह कपड़े, वह जेवर, जो उसकी मां ने सालों मेहनत करके जमा किए थे, सब गायब थे। उसकी यादें, उसका सुकून, सब लुट चुका था। दीवारों को धोया गया। खून के धब्बे साफ किए गए लेकिन समरीन उस घर में एक पल भी चैन से नहीं रह सकी। वह कहती थी, 'मुझे दीवारों से खून की बू आती है।'

 

ल्यारी अब रहने लायक नहीं बचा था। ह वह दौर था जब इंसानियत ने दम तोड़ दिया था। एक तरफ सिर से फुटबॉल खेली जा रही थी, दूसरी तरफ एंबुलेंस ड्राइवरों को पीटा जा रहा था और इन सबके बीच, उज़ैर बलोच अपने महल में बैठा अगला खूनी खेल रच रहा था। एक ऐसा खेल, जिसमें सिर्फ दुश्मन नहीं, दोस्त भी मारे गए।

हवेली, झरना और नासिर का अंत

 

बाहर की दुनिया में उज़ैर बलोच एक रॉबिन हुड बनने की कोशिश कर रहा था। वह पीपल्स अमन कमेटी चलाता था लेकिन उस अमन के पर्दे के पीछे एक ऐसी दुनिया थी, जो किसी हॉलीवुड फिल्म के सेट जैसी लगती थी लेकिन वहां ऐक्टर नहीं, असली कातिल थे और उस सेट पर एक दिन टीचर परवीन को जाना पड़ा। वह वहां चंदा मांगने गई थी लेकिन वहां उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा झटका लगने वाला था।

 

साल 2011, बलूचिस्तान में बाढ़ आई थी। परवीन पीड़ितों के लिए पैसा इकट्ठा कर रही थी। किसी ने सलाह दी, 'उज़ैर बलोच के पास जाओ, वह बहुत दान-पुण्य करता है।' परवीन न चाहते हुए भी अपने दोस्त सोहेल के साथ उज़ैर की हवेली पहुंची।


उज़ैर का घर, घर नहीं, महल था। अंदर घुसते ही परवीन की आंखें फटी रह गईं। एक बड़ा स्विमिंग पूल। कमरे के बीचों-बीच एक बड़ा लकड़ी का झूला और दीवार पर एक कृत्रिम झरना बह रहा था।

उज़ैर वहां एक राजा की तरह बैठा था लेकिन असली झटका परवीन को तब लगा जब उसने उज़ैर के पीछे खड़े बॉडीगार्ड को देखा। वह बॉडीगार्ड, जो हाथ में बंदूक लिए परवीन पर निशाना साधे खड़ा था, वह कोई और नहीं, परवीन का अपना कज़िन (ममेरा भाई) सईद था। सईद, जो सरकारी नौकरी करता था, अब गैंगस्टर का बॉडीगार्ड बन चुका था।

 

उज़ैर बड़े प्यार से बात कर रहा था। उसने कहा, 'मैं बलूचिस्तान के लिए पैसा नहीं दूंगा। मैं सिर्फ ल्यारी का सरदार हूं।' तभी परवीन को एक अजीब आवाज़ सुनाई दी। झरने के पानी की आवाज़ के पीछे से चीखें आ रही थीं। इंसानी चीखें। वह झरना सिर्फ सजावट के लिए नहीं था। वह एक टॉर्चर सेल की आवाज़ को दबाने के लिए बनाया गया था।

 

उजैर का खौफ सिर्फ उस झरने तक सीमित नहीं था। उज़ैर बलोच को जानवरों का अजीब शौक था। उसकी हवेली के पीछे एक निजी चिड़ियाघर था। वहां उसने मगरमच्छ और काले भालू पाल रखे थे। कहा जाता है कि वह अपने दुश्मनों को डराने के लिए या कभी-कभी उन्हें खौफनाक मौत देने के लिए इन जानवरों का इस्तेमाल करता था। उजैर के पास एक वक्त में पूरे ल्यारी का कंट्रोल था लेकिन फिर पैसा और पावर। ये दो चीजें सगे भाइयों को दुश्मन बना देती हैं। उज़ैर और उसके कमांडर बाबा लाडला के साथ भी यही हुआ। हफ्ता वसूली के बंटवारे पर झगड़ा हुआ और ल्यारी बीच से टूट गया। आधा उज़ैर का, आधा बाबा लाडला का।

 

अब जंग और खूनी हो गई। उज़ैर ने बाबा लाडला को मारने का प्लान बनाया। मौका था-एक फुटबॉल मैच। बाबा लाडला मैच देख रहा था। उज़ैर के लोगों ने वहां बम ब्लास्ट करवाया। बाबा लाडला तो बच गया लेकिन वहां मौजूद 7-8 मासूम लोग और बच्चे मारे गए। जवाब में बाबा लाडला ने उज़ैर के सबसे करीबी साथी, ज़फर बलोच, को गोलियों से भून दिया। एक साल के अंदर ल्यारी में 800 से ज्यादा लोग मारे गए। इस लड़ाई की सबसे दर्दनाक कीमत परवीन के उस बॉडीगार्ड स्टूडेंट, नासिर ने चुकाई। वह नासिर जो बॉक्सर बनना चाहता था। एक दिन नासिर परवीन के घर आया। वह पसीने से तर-बतर था। लंगड़ा रहा था। परवीन ने पूछा तो उसने बात टाल दी। बाद में पता चला कि उज़ैर को बचाते वक्त उसे पैर में गोली लगी थी।

परवीन ने उसे बहुत समझाया। उससे रिश्ता तोड़ लिया लेकिन जुर्म की दुनिया में आने का रास्ता है, जाने का नहीं। कुछ दिनों बाद, नासिर गायब हो गया। उसे रेंजर्स या विरोधी गैंग ने उठाया। जब उसकी लाश मिली तो देखने वालों की रूह कांप गई। उसके शरीर को सिगरेट से दागा गया था। उसे टॉर्चर करके मारा गया था। वह लड़का जो परवीन की हिफाजत करता था, उसे बचाने वाला कोई नहीं था।

टीवी बम, 4 गोलियां और द एंड

 

कराची अभी उज़ैर बलोच और बाबा लाडला की आपसी जंग से जूझ ही रहा था कि शहर में एक तीसरे दुश्मन ने दस्तक दी। यह दुश्मन ल्यारी का लोकल गुंडा नहीं था। यह दुश्मन हज़ारों मील दूर, अफगानिस्तान बॉर्डर और वज़ीरिस्तान के पहाड़ों से आया था। हुआ यह कि 2009 के बाद पाकिस्तानी फौज ने नॉर्थ में आतंकवादियों पर बमबारी शुरू की। अपनी जान बचाने के लिए तालिबानी आतंकवादी वहां से भागे। उन्हें छिपने के लिए एक ऐसे शहर की तलाश थी जो इतना बड़ा हो कि कोई भी गुम हो जाए और वह शहर था कराची।

 

ये आतंकवादी कराची के पश्तून इलाकों, जैसे सोहराब गोठ में आकर बस गए। शुरुआत में इन्होंने गैंगस्टर्स की तरह बैंक लूटे और फिरौती मांगी लेकिन इनका मकसद सिर्फ पैसा नहीं था। इनका मकसद था-पाकिस्तान स्टेट को घुटनों पर लाना। 

8 जून 2014 की रात। 10 तालिबान आतंकवादी, जो अत्याधुनिक हथियारों, ग्रेनेड्स और रॉकेट लॉन्चर्स से लैस थे, कराची के जिन्ना इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर हमला करते हैं। उन्होंने एयरपोर्ट सिक्योरिटी फोर्स (ASF) की नकली वर्दियां पहन रखी थीं। रात के 11 बजे गोलियां चलनी शुरू हुईं। यह हमला किसी सड़क या बाजार पर नहीं था। यह हमला पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की गर्दन पर था। रनवे जंग का मैदान बन गया। फौज और आतंकवादियों के बीच सीधी लड़ाई हुई। सुबह 4 बजे तक यह खूनी खेल चला। सभी 10 आतंकवादी मारे गए लेकिन उन्होंने सरकार की नींद उड़ा दी थी।

 

एयरपोर्ट हमले ने इस्लामाबाद को हिला दिया। फैसला हुआ -जीरो टॉलरेंस। पैरामिलिट्री फोर्सेज को कराची में खुली छूट दे दी गई। इसे नाम दिया गया-कराची ऑपरेशन। अब निशाना सिर्फ आतंकवादी नहीं, बल्कि ल्यारी के गैंगस्टर्स भी थे। सरकार समझ चुकी थी कि जुर्म और आतंकवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस सफाई अभियान में सबसे पहले उस सुल्तान का अंत हुआ जो खुद को ल्यारी का शेर समझता था- एसएसपी चौधरी असलम। वही पुलिसवाला जिसने रहमान डकैत को मारा था।

 

चौधरी असलम का एक खास स्टाइल था। हमेशा कड़क स्टार्च वाली सफेद सलवार-कमीज़, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में पिस्टल। मौत से खेलने का शौक। उस पर एक या दो नहीं, पूरे 9 बार जानलेवा हमले हुए थे। एक बार तालिबान ने उसके घर को बम से उड़ा दिया। वह मलबे से ज़िंदा बाहर निकला, उसने अपनी वर्दी की धूल झाड़ी और मीडिया के सामने आकर बोल, 'मैं इन दहशतगर्दों को जहन्नुम में भी नहीं छोड़ूंगा। मैं शहीदों को दफन नहीं करता, मैं हमलावरों को दफन करता हूं।'
 
इस एक लाइन में चौधरी असलम को पूरे पाकिस्तान में मशहूर कर दिया। हालांकि, तालिबान उसे बख्शने वाला नहीं था। 2014 में एक दिन उसकी गाड़ी पर एक सुसाइड बॉम्बर ने हमला किया। गाड़ी 200 किलो (RDX) से भरी थी। कराची पुलिस का सबसे खूंखार चेहरा धुएं में उड़ गया। चौधरी असलम के मरने के बाद भी ऑपरेशन नहीं रुका। रेंजर्स ने ल्यारी और सोहराब गोठ को घेर लिया। अब गैंगस्टर्स के भागने का वक्त था।

 

बाबा लाडला, जो कभी उज़ैर का राइट-हैंड था, वह कराची से भागकर ईरान बॉर्डर (बलूचिस्तान) के पास छिप गया लेकिन 2017 में रेंजर्स वहां पहुंच गए। एक एनकाउंटर हुआ और गोलियों की बौछार में बाबा लाडला मारा गया और उजैर बलोच ज्यादा चालाक निकला। कभी बुर्का पहनकर तो कभी एंबुलेंस में छिपकर, वह कराची से भागा। उसने नकली पासपोर्ट बनवाया और स्पीडबोट के जरिए मस्कट और फिर दुबई पहुंच गया लेकिन यह भागमभाग ज्यादा दिन नहीं चली। इंटरपोल ने उसे दुबई बॉर्डर पर पकड़ लिया। उज़ैर बलोच को पाकिस्तान लाया गया। उसने कबूला कि वह सिर्फ एक गैंगस्टर नहीं था। उसने ईरानी खुफिया एजेंसी को पाकिस्तान सेना के राज बेचे थे। उसने फर्जी दस्तावेजों पर ईरान की नागरिकता ली थी। यानी, ल्यारी का सरदार देश का गद्दार बन चुका था। उसने 198 लोगों के कत्ल की बात कबूली। अप्रैल 2020 में एक मिलिट्री कोर्ट ने उज़ैर बलोच को जासूसी के आरोप में 12 साल की सजा सुना दी।

 

उजैर बलोच की गिरफ्तारी हुई थी जनवरी 2016 में। अब यहां आप एक नाम याद करिए- कुलभूषण जाधव। जो एक भारतीय नागरिक और पूर्व इंडियन नेवी ऑफिसर हैं। जाधव तब एक बिजनेस के लिए ईरान में थे। 2016 के मार्च महीने में कुछ पाकिस्तानियों ने उनको ईरान में किडनैप कर लिया। फिर उनको पाकिस्तान लाया गया। इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन यानी ISPR ने दावा किया कि जाधव को ब्लूचिस्तान में पकड़ा गया जबकि सच्चाई यह थी कि उनको ईरान से किडनैप करके लाया गया था। ISPR ने आरोप लगाया कि जाधव, एंटी पाकिस्तान एक्टिविटी में इंवॉल्व थे। गल्फ न्यूज की एक रिपोर्ट के मुताबिक जाधव की मदद कर रहा था- उजैर बलोच। बाद में बलोच का ईरानी कनेक्शन भी सामने आया और इसी का फायदा उठाकर, जाधव मामले में पाकिस्तान ने खूब राजनीति की है। ISPR ने जाधव के कबूलनामे का एक वीडियो जारी किया। भारत सरकार ने इसे सिरे नकार दिया और कहा कि जाधव पर दबाव डाला गया है। उन्हें डरा-धमकाकर और टॉर्चर करके वीडियो बनवाया गया। भारतीय अधिकारियों ने कहा कि उन्हें जाधव से मिलने दिया जाए ताकि यह पता चले कि वह किसी दबाव में तो नहीं है लेकिन पाकिस्तान इसके लिए नहीं माना। इस कबूलनामे के अलावा, अब तक पाकिस्तान के पास जाधव के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत सामने नहीं आया है। 2017 में पाकिस्तान की मिलिट्री कोर्ट ने जाधव को मृत्युदंड की सजा सुनाई और इसके बाद उनको काउंसलर एक्सेस (राजनयिक पहुंच) दी गई लेकिन अब तक उनको उच्च अदालत में अपील का अधिकार नहीं दिया गया है।

 

साल 2020 में जब उजैर बलोच को सजा सुनाई गई, तब भी पाकिस्तान ने इस मामले में भारत को घसीटा। बलोच को लेकर कहा गया कि वह ईरान के साथ साथ RAW को भी सूचनाएं दे रहा था। इस मामले में CTD में तीन और गैंगस्टर्स को भारत से जुड़ा हुआ बताया। ये तीन गैंगस्टर्स थे - मुदस्सिर जावेद, हारिस उर्फ ​​लंगड़ा और अबू सुफियान। इनको 2020 में गिरफ़्तार किया गया। CTD के अनुसार ये सब ल्यारी के ही एक गैंगस्टर जाहिद उर्फ ​​शूटर के गिरोह में थे। CTD का आरोप है कि जाहिद संयुक्त अरब अमीरात में रहता है और भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के लिए काम करता है। पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि उजैर बलोच के बाद, ल्यारी में जो कुछ गैंगस्टर बचे हैं, रॉ उनका इस्तेमाल टारगेट किलिंग्स के लिए कर रहा है।

 

अब इस पूरे मामले पर जो फिल्म आ रही है, धुरंधर। उसको लेकर भी कयास चल रहे हैं कि इस फिल्म में ल्यारी गैंगवार के espionage एंगल को भी एक्सप्लोर किया जा सकता है। इसके संकेत फिल्म के ट्रेलर में ही हैं। सोशल मीडिया पर दावे किए जा रहे हैं कि आर माधवन का किरदार NSA अजीत डोभाल से प्रेरित है। पाकिस्तान की मीडिया में भी इस फिल्म को लेकर जिस तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, वह हम आपको शुरुआत में बता चुके हैं। वहां की मीडिया में इस फिल्म की खूब चर्चा है। वह इस मामले पर कुछ नई जानकारी की उम्मीद कर रहे हैं। मुख्य रूप ये सारे सवाल ल्यारी के इंडियन एंगल को लेकर ही हैं। 

 
इस फिल्म में दो किरदार ऐसे हैं, जो ट्रेलर में खुद को असल किरदारों के नाम से इंड्रोड्यूस कर रहे हैं। इसके मुताबिक, संजय दत्त, चौधरी असलम के किरदार में हैं और अक्षय खन्ना रहमान डकैत की किरदार में। बहरहाल, पाकिस्तानी ऑपरेशंस के बाद आज ल्यारी काफ़ी हद तक शांत है लेकिन रहमान डकैत, उज़ैर बलोच, बाबा लाडला और अरशद पप्पू- ये नाम आज भी ल्यारी की लोककथाओं में ज़िंदा हैं। कुछ के लिए वे विलेन थे तो कुछ के लिए हीरो। 1960 में चाकू से शुरू हुआ खेल, 2020 में इंटरनेशनल एस्पियोनेज पर जाकर खत्म हुआ। हजारों जानें गईं। पीढ़ियां बर्बाद हुईं और आखिर में हासिल क्या हुआ? सिर्फ राख। वह राख, जो आज भी कराची के सीने में दफन है।