logo

ट्रेंडिंग:

आत्मा का वजन तौला गया तो क्या पता चला? चौंका देगी रिसर्च

आत्मा को लेकर कई तरह की बातें कही जाती हैं। कुछ लोग दूसरे जन्म की बात करते हैं तो कुछ लोग आत्मा का वजन तौलने का प्रयास भी कर चुके हैं।

facts about soul

आत्मा की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

एक औरत। ऑपरेशन टेबल पर लेटी है। उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है। कानों में एक ऐसी मशीन लगी है, जिससे उसे सिर्फ़ क्लिक-क्लिक की तेज़ आवाज़ सुनाई दे। मतलब, वह कुछ देख नहीं सकती, कुछ सुन नहीं सकती। उसका दिल नहीं धड़क रहा। मशीनें शांत हैं। EEG की लाइन एकदम सीधी। डॉक्टरों की भाषा में वह क्लिनिकली डेड है लेकिन अचानक उसे होश आता है, वह डॉक्टरों को इस अनुभव के बारे में बताती है। उसने उस ख़ास किस्म की आरी के बारे में बताया, जिससे डॉक्टर उसकी खोपड़ी काट रहे थे। उसने कहा, 'वह तो एक इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसी दिखती थी।' वह बिलकुल सही थी।
  
सवाल यह कि जब दिमाग बंद था, आंखें बंद थीं, कान बंद थे तो उसने यह देखा कैसे? अलिफ लैला की इस किस्त में आज हम विज्ञान की सबसे बड़ी और सबसे मुश्किल खोज की कहानी जानेंगे। क्या चेतना, यानी कॉन्शसनेस, शरीर के बिना भी ज़िंदा रह सकती है? क्या आत्मा का कोई वज़न होता है और क्या होता है जब दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक, भूत-प्रेत और पुनर्जन्म के दावों को अपनी लैब में टेस्ट करते हैं?

जब वैज्ञानिकों ने आत्मा को शरीर में खोजा

 

पुनर्जन्म, रीइनकारनेशन। हम सबने इसकी कहानियां सुनी हैं। फिल्मों में देखी हैं लेकिन कुछ लोग हैं, जो इसे सिर्फ़ कहानी नहीं मानते। वे इसे विज्ञान की तरह देखते हैं। शुरुआत बहुत पहले हुई। सबसे पहले सवाल उठा- अगर आत्मा है तो शरीर में कहां है? दिल में? दिमाग में? या फिर खून में? इस खोज के सबसे शुरुआती जासूसों में से एक थे ग्रीक दार्शनिक अरस्तू। आज से करीब 2300 साल पहले। अरस्तू को लगता था कि आत्मा एक तरह की 'हवा' या 'भाप' है। जिसे वह न्यूमा (प्न्यूमा) कहते थे। अरस्तू के अनुसार यह 'न्यूमा' पुरुष के वीर्य यानी सीमेन में होती है। जब यह वीर्य औरत के गर्भ में पहुंचता है, तो वहां मौजूद खून से मिलकर जीवन बनाता है।

 

यह भी पढ़ें- राज्यपाल का इस्तीफा, नेताओं में खौफ, क्या है टी एन शेषन की कहानी?


  
अरस्तू का मानना था कि इंसान के पास तीन आत्माएं होती हैं। जो एक के बाद एक आती हैं। आत्मा को लेकर ऐसे कई विचार अलग-अलग धर्मों में हैं और सदियों तक यह अध्यात्म या फिलॉसफी का सब्जेक्ट रहा। पश्चिम में लंबे समय तक आत्मा को जीवन का सोर्स माना जाता रहा। इसलिए कई लोगों ने जीवन का सोर्स खोजने की कोशिश की। इस उम्मीद में कि इस तरह वह आत्मा तक पहुंच जाएंगे।


  
17वीं सदी में इंग्लैंड में एक डॉक्टर हुए। नाम था- विलियम हार्वे। हार्वे वही आदमी थे जिन्होंने पहली बार बताया कि खून हमारे शरीर में नसों के एक क्लोज्ड सिस्टम में घूमता है और यह पता लगाने के लिए उन्होंने लाशों की चीर-फाड़ की थी। यहां तक कि अपनी बहन की लाश की भी। हार्वे जीवन का सोर्स पता लगाना चाहते थे। लिहाजा उन्होंने ह्यूमन रिप्रोडक्शन को स्टडी किया। 

 

यह भी पढ़ें- इतिहास का वह खौफनाक युद्ध जिसमें 95 पर्सेंट मर्द खत्म हो गए


उस समय तक रिप्रोडक्शन को लेकर अरस्तू का सिद्धांत प्रचलित था, जिसके अनुसार पुरुष का वीर्य (सीमेन) स्त्री के गर्भ में जाकर मेन्स्ट्रुअल ब्लड से मिलकर जमता है और उससे जीवन बनता है। हार्वे इसी बात की पुष्टि करना चाहते थे। इस कोशिश में उन्होंने इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम के हिरणों के झुंड पर एक्सपेरिमेंट किया। वह मादा हिरणों को मारकर उनके यूटरस की चीर-फाड़ करते थे। उन्हें उम्मीद थी कि अरस्तू के सिद्धांत के अनुसार, उन्हें गर्भाशय में जमा हुआ खून का थक्का या कोई पिंड मिलेगा। इसके बजाय, उन्हें थैलियों में बंद छोटे-छोटे हिरणों के भ्रूण (एंब्रियोज़) और फीटसेज़ मिले। हार्वे ने गलती से इन थैलियों को ही इंसान का अंडा समझ लिया। वैसे ही जैसे मुर्गी का अंडा होता है। इस एक्सपेरिमेंट से हार्वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जीवन जमे हुए खून से नहीं, बल्कि एक अंडे से विकसित होता। उन्होंने कहा- जैसे एक वायरस शरीर में घुसकर ज़ुकाम पैदा करता है, वैसे ही वीर्य भी एक संक्रमण है, जो अंडे में जीवन पैदा करने की प्रोसेस को ट्रिगर करता है।

माइक्रोस्कोप से देखा गया स्पर्म

 

हार्वे और भी गहरा जाना चाहते थे लेकिन उनकी सीमा थी। आंखें बस एक सीमा तक ही देख सकती थीं। अंडे और वीर्य के अंदर असल में क्या हो रहा है, यह देखने के लिए एक नए टूल की ज़रूरत थी। यहीं कहानी में एंट्री होती है एक डच अकाउंटेंट की, जिसका नाम था- एंटनी वॉन लीउवेनहोएक (एंटनी वॉन लीउवेनहोएक)। इन्हें फ़ादर ऑफ़ माइक्रोबायलॉजी के नाम से भी जाना जाता है। दिलचस्प बात यह कि एंटनी कोई साइंटिस्ट नहीं था। एक कपड़े की दुकान पर हिसाब-किताब रखता था। उसका बस एक ही शौक था- लेंस घिसना। लेंस घिसने के इस शौक ने एक नई दुनिया के दरवाज़े खोले- माइक्रोऑर्गनिज़्म्स की दुनिया।
  
लेंस घिसकर एंटनी ने बढ़िया माइक्रोस्कोप बनाए और फिर एक दिन पानी की एक बूंद को अपने माइक्रोस्कोप के नीचे रखा। उसने देखा कि उस एक बूंद में हज़ारों छोटे-छोटे जीव तैर रहे थे। जिन्हें उसने एनिमल्क्यूल्स (एनिमल्क्यूल्स) नाम दिया। उसने अपने दांतों की मैल खुरचकर देखी। उसमें भी हज़ारों जीव थे। लीउवेनहोएक ने लिखा, ‘हमारे पूरे देश में इतने लोग नहीं हैं, जितने ज़िंदा जानवर मैं अपने मुंह में लेकर घूमता हूं।’ माइक्रोब्स के बारे में पता करने के बाद एक रोज़ कौतूहलवश एंटनी ने अपने ही वीर्य को माइक्रोस्कोप से देखा। वहां भी लाखों, करोड़ों पूंछ वाले 'एनिमल्क्यूल्स'। जो तैर रहे थे। उसे लगा, यही है जीवन का राज़। उसे लगा कि ये 'एनिमल्क्यूल्स' ही जीवन का सोर्स हैं। बाद में इन्हें नाम दिया गया- स्पर्म। एंटनी का मानना था कि हर स्पर्म के अंदर एक बहुत छोटा, पूरा का पूरा इंसान पहले से ही मौजूद होता है। एक नन्हे मुसाफ़िर की तरह, जो बस औरत के गर्भ में जाकर बड़ा होता है।

 

यह भी पढ़ें- WWE फिक्स होता है या नहीं? शुरुआत से लेकर अब तक का सच जान लीजिए


इस थ्योरी ने एक नई बहस छेड़ दी। स्पर्मिस्ट (स्पर्मिस्ट) बनाम ओविस्ट (ओविस्ट)। जीवन स्पर्म से शुरू होता है या अंडे से? जीवन कहाँ से शुरू होता है? आत्मा कहां रहती है। इसका जवाब दिया एक दार्शनिक ने। अस्तित्व शुरू होता है सोचने से। आई थिंक देयरफोर आई एम- मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं। कॉगिटो एर्गो सम- यह बात कहकर फिलॉसॉफर रेने देकार्त (रेने देकार्त) दुनियाभर में मशहूर हुए लेकिन देकार्त सिर्फ़ कलम के सिपाही नहीं थे। 
 
वह कसाइयों की दुकान से जानवरों के ताज़े कटे हुए सिर खरीदकर लाते थे और उन्हें चीरकर देखते थे। काफी खोजबीन के बाद उन्होंने ऐलान किया। आत्मा दिमाग़ के ठीक बीच में, एक मटर के दाने जितनी 'पीनियल ग्लैंड' (पीनियल ग्लैंड) में रहती है। इस तरह के अलग-अलग दावे हैं। कुछ यहूदी ग्रंथों के कहा- आत्मा एक हड्डी में रहती है। एक ख़ास हड्डी, जिसे 'लज़' (लज़) कहते हैं। यह हड्डी इंडस्ट्रक्टिबल है। इसे न आग जला सकती है, न हथौड़ा तोड़ सकता है और मरने के बाद, इंसान इसी हड्डी से दोबारा बनाया जाएगा। कई वैज्ञानिकों ने इस हड्डी को ढूंढने की कोशिश की। किसी ने कहा यह रीढ़ की हड्डी के आखिर में है, तो किसी ने कहा यह पैर के अंगूठे में है लेकिन ऐसी कोई हड्डी कभी नहीं मिली।
  
तो सदियों की चीर-फाड़ और माइक्रोस्कोप से झांकने के बाद भी आत्मा हाथ नहीं आई। तब वैज्ञानिकों ने सोचा, शायद आत्मा को देखा नहीं जा सकता। जैसे हवा को नहीं देखा जा सकता लेकिन हवा से एक आइडिया मिला, हवा को तोला जा सकता है, क्या आत्मा को भी तोला जा सकता है?

आत्मा का वज़न

 

20वीं सदी की शुरुआत की। अमेरिका में एक डॉक्टर हुए- नाम था डंकन मैकडूगल (डंकन मैकडूगल)। मैकडूगल एक सम्मानित फिजीशियन थे। उनके दिमाग़ में एक सिंपल सा आइडिया आया। अगर आत्मा सच में कोई चीज़ है, अगर वह कोई जगह घेरती है तो उसका कुछ वज़न भी होना चाहिए। तो क्यों न एक इंसान को उसकी मौत के ठीक पल में तौला जाए? इसके लिए उन्होंने चुना मैसाचुसेट्स (मैसाचुसेट्स) का एक चैरिटेबल अस्पताल।
 

यह भी पढ़ें- चंगेज खान के सबसे खूंखार सेनापति सुबुताई की पूरी कहानी क्या है?

 
यहां टीबी के आखिरी स्टेज वाले मरीज़ों को रखा जाता था। मैकडूगल के लिए ये मरीज़ परफेक्ट थे क्योंकि वे बहुत कमज़ोर होते थे। हल्के-फुल्के और उनकी मौत अक्सर बहुत शांति से होती थी, बिना ज़्यादा हिले-डुले। उन्होंने अस्पताल के एक कमरे में रेशम तौलने वाली एक बहुत बड़ी और सेंसिटिव तराज़ू लगवाई और उस पर एक बिस्तर फिट कर दिया। 10 अप्रैल, 1901, पहला मरीज़ बिस्तर पर था। डॉक्टर मैकडूगल और उनकी टीम इंतज़ार कर रही थी। वह मरीज़ को बचाने की कोशिश नहीं कर रहे थे। वह उसकी मौत का इंतज़ार कर रहे थे। उनकी नज़रें मरीज़ पर नहीं, तराज़ू के कांटे पर थीं।
  
तीन घंटे और चालीस मिनट बीते। और फिर... वह पल आया। मरीज़ ने आखिरी सांस ली और ठीक उसी पल, 'अचानक', तराजू का कांटा एक झटके से नीचे गिरा। टक की आवाज़ आई। वजन कम हुआ था। कितना? तीन-चौथाई औंस। यानी करीब... 21 ग्राम।

 
यह खबर आग की तरह फैली। क्या मैकडूगल ने आत्मा का वज़न खोज लिया था? लेकिन कहानी में ट्विस्ट था। मैकडूगल ने यह एक्सपेरिमेंट पांच और मरीज़ों पर दोहराया तो नतीजे गड़बड़ आने लगे। दूसरे मरीज़ की सांस रुकने के 15 मिनट बाद तक तराज़ू हिला ही नहीं। तीसरे मरीज़ का वज़न दो हिस्सों में कम हुआ। आधा मौत के वक़्त और बाकी का एक मिनट बाद। बाकी दो मरीज़ों का डेटा इतना खराब था कि उसे गिना ही नहीं गया।
  
यह वैज्ञानिक एक्सपेरिमेंट कम, एक तुक्का ज़्यादा लग रहा था। फिर मैकडूगल ने कुत्तों पर एक्सपेरिमेंट करने का फैसला किया। उन्होंने 15 कुत्तों को अपनी लैब में तराज़ू पर ही मारा। नतीजा? कुत्तों का वज़न एक ग्राम भी कम नहीं हुआ। मैकडूगल ने कहा- धर्मग्रंथों के हिसाब से जानवरों में आत्मा होती ही नहीं। प्रॉब्लम एक्सपेरिमेंट में नहीं, कुत्तों में थी। आत्मा का वज़न तोलने की इसके बाद और भी कोशिशें हुई। 

 

यह भी पढ़ें- इस्लाम कबूल करने पर मजबूर क्यों हो गए थे मंगोल? पढ़िए पूरी कहानी


कैलिफोर्निया में एक हाई स्कूल फिजिक्स टीचर थे। एच. लावी ट्विनिंग (एच. लावी ट्विनिंग)। उन्होंने चूहों की आत्मा तौलने का बीड़ा उठाया। एक-दो नहीं, पूरे 30 चूहे। उन्होंने चूहों को टेस्ट ट्यूब में दम घोंटकर मारा। साइनाइड (साइनाइड) गैस से मारा। पानी में डुबोकर मारा। नतीजा वही रहा। अगर चूहा एक बंद डिब्बे में है तो मरते वक़्त उसके वज़न में कोई कमी नहीं आती। साल 2000 में एक और शख्स ने यह एक्सपेरिमेंट किया। लुईस हॉलैंडर (लुईस हॉलैंडर) भेड़ों का फार्म चलाते थे। उन्होंने अपनी लैब में एक बहुत ही सेंसिटिव इलेक्ट्रॉनिक तराज़ू लगाई और उस पर भेड़ों को लिटाकर आखिरी इंजेक्शन दिया। नतीजा अलग ही आया। मरते वक़्त भेड़ों का वज़न कम नहीं हुआ। बल्कि कुछ सेकंड के लिए बढ़ गया। एक भेड़ का वज़न तो करीब एक किलो तक बढ़ गया और फिर नॉर्मल हो गया।
  
यही कोशिश जब मेमनों और बकरियों पर हुई तो कोई बदलाव नहीं दिखा। अब आत्मा के वज़न को लेकर तीन जवाब थे। इंसान की आत्मा 21 ग्राम की होती है। चूहों में आत्मा होती ही नहीं और भेड़ की आत्मा शायद बहुत भारी होती है और वह भी सिर्फ़ कुछ सेकंड के लिए। एक ही सवाल के तीन अलग-अलग जवाब। मतलब साफ़ था, आत्मा को तौलना सही तरीका नहीं था।  

पुनर्जन्म की पहेली

 

जब वैज्ञानिकों को आत्मा शरीर के अंदर नहीं मिली, तो कुछ ने एक अलग रास्ता चुना। उन्होंने कहा, आत्मा को लैब में मत खोजो। उन लोगों की कहानियां सुनो, जिन्हें अपना पिछला जन्म याद है। यह सुनने में भले ही अजीब लगे लेकिन दुनिया की कुछ सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटीज़ में इस पर गंभीरता से रिसर्च हुई है। इस फील्ड के सबसे बड़े इन्वेस्टिगेटर माने जाते हैं डॉक्टर इयान स्टीवेंसन (इयान स्टीवेंसन)। वर्जीनिया यूनिवर्सिटी (यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जीनिया) के प्रोफेसर, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के 30 साल ऐसे केसों की पड़ताल में लगा दिए।

 
स्टीवेंसन की रिसर्च से एक पैटर्न सामने आया।  
- ज़्यादातर केसों में, बच्चे 2 से 4 साल की उम्र में अपने पिछले जन्म की बातें करना शुरू करते हैं और 5 साल के होते-होते भूलने लगते हैं।  
- अक्सर, उनके पिछले जन्म की मौत किसी दुर्घटना या हिंसा में, यानी अचानक हुई होती है। और  
- ज़्यादातर बच्चे किसी राजा-महाराजा की नहीं, बल्कि एक आम इंसान की साधारण ज़िंदगी को याद करते हैं। 
 
स्टीवेंसन के सैकड़ों केसों में से, एक को वह अपना सबसे मज़बूत केस मानते थे। यह कहानी लेबनान के एक लड़के, इमाद एलावर (इमाद एलावर) की है। इमाद जब छोटा था तो वह अपने पिछले जन्म की बातें करता था। वह कहता था कि वह पास के गांव ख्रिबी (ख्रिबी) में रहता था और उसकी मौत एक ट्रक से कुचलकर हुई थी। इस केस में खास बात यह थी कि डॉक्टर स्टीवेंसन ने इमाद के परिवार के साथ ख्रिबी जाने से पहले ही उसके सारे दावे एक कागज़ पर लिख लिए थे। यह एक तरह से सबूत को लॉक करने जैसा था। जब स्टीवेंसन गांव पहुंचे, तो कहानी में कुछ पेच मिले। इमाद जिन नामों की बात कर रहा था, वे किसी और से जुड़े थे और मौत का तरीका भी थोड़ा अलग था। इसके बावजूद, कई डिटेल्स इतनी सटीक थीं कि उन्हें नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था। ऐसे और भी केस हैं, दुनियाभर में। भारत में एक शांति देवी का एक फेमस केस है। जिसकी पड़ताल में ख़ुद महात्मा गांधी ने इंटरेस्ट लेते हुए जांच के लिए एक कमीशन बनाया था।

 

यह भी पढ़ें- इंसानों ने कुत्ता पालने की शुरुआत कैसे की थी? पूरी कहानी जानिए


  
पुनर्जन्म की ऐसी खूब कहानियां हैं लेकिन क्या वे सच हैं। कहना मुश्किल, क्योंकि पक्का तय करने का कोई तरीका नहीं है। एक और बात जो स्टीवेंसन ने अपनी रिसर्च में पाई, वह यह कि ये दावे लगभग हमेशा उन्हीं देशों और संस्कृतियों में सामने आते हैं, जहां के लोग पहले से ही पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। जैसे भारत के हिंदू या लेबनान के ड्रूज़। अमेरिका या यूरोप में ऐसे केस लगभग न के बराबर हैं तो सवाल उठता है- क्या ये सच में पुनर्जन्म की यादें हैं या फिर उस समाज और संस्कृति के चलते ऐसा होता है। इस पहेली का एक दिलचस्प पहलू और है- जन्म के निशान (बर्थमार्क्स)।

 
डॉक्टर स्टीवेंसन ने अपनी किताब 'रीइनकारनेशन एंड बायोलॉजी' (रीइनकारनेशन एंड बायोलॉजी) में ऐसे कई केसों का ज़िक्र किया, जहां बच्चों के शरीर पर कुछ जन्मजात निशान या कोई कमी थी और ये निशान ठीक उसी जगह पर थे, जहां उनके पिछले जन्म वाले शरीर पर कोई जानलेवा घाव लगा था। जैसे किसी को गोली लगी हो तो बच्चे के शरीर पर उसी जगह तिल जैसा निशान मिलना।
  
एक केस में, एक हिंदू लड़के ने दावा किया कि वह पिछले जन्म में मुस्लिम था। हैरानी की बात यह थी कि वह लड़का बिना फोरस्किन के पैदा हुआ था, ठीक वैसे ही जैसे खतना के बाद होता है।  

जब आत्मा भेड़ का फेफड़ा निकली

 

पुनर्जन्म से इतर आत्मा की खोज के और भी प्रयास हुए और इस चक्कर में कई बार स्कैम भी हुआ। 20वीं सदी की शुरुआत। यूरोप और अमेरिका में स्पिरिचुअलिज़्म नाम का एक आंदोलन ज़ोरों पर था। इस आंदोलन में कुछ ख़ास लोग होते थे, जिन्हें मीडियम कहा जाता था। दावा था कि ये लोग मरे हुए लोगों की आत्माओं से बात कर सकते हैं। सिर्फ़ बात ही नहीं, कुछ मीडियम्स तो आत्मा को दुनिया में बुलाने का दावा भी करते थे। एक रहस्यमयी पदार्थ के ज़रिए। जिसका नाम था- एक्टोप्लाज़्म (एक्टोप्लाज़्म)। यह एक अजीब, चिपचिपा, सफ़ेद पदार्थ था। जो मीडियम के शरीर से अक्सर उसके नाक, कान या मुंह से निकलता था। कभी धुएं जैसा, कभी जालीदार कपड़े जैसा और कभी-कभी तो इससे हाथ और चेहरे भी बन जाते थे।
  
इस फिनोमेना की जांच के लिए दुनिया के बड़े-बड़े दिमाग़ मैदान में उतर आए। कहानी है बॉस्टन की एक मशहूर मीडियम, मार्जरी क्रैंडन की। मार्जरी के पति हार्वर्ड से पढ़े हुए एक बड़े सर्जन थे। उसकी शक्तियों की जांच के लिए साइंटिफिक अमेरिकन मैगज़ीन ने एक कमेटी बनाई। इस कमेटी में हार्वर्ड और एमआईटी के प्रोफेसर थे और साथ में था दुनिया का सबसे बड़ा जादूगर- हैरी हुडिनी।
  
अंधेरे कमरे में मार्जरी का शो शुरू होता और उसके शरीर से एक्टोप्लाज़्म निकलने लगता। कमेटी के कुछ मेंबर हैरान थे। उन्हें लगा यह सच है लेकिन हुडिनी को दाल में कुछ काला लगा। एक दिन, जांच करने वाले वैज्ञानिकों ने उस एक्टोप्लाज़्म का एक सैंपल ले लिया और उसे जांच के लिए हार्वर्ड की लैब में भेज दिया। रिपोर्ट सामने आई तो पता चला मामला फ्रॉड था। हार्वर्ड के बायोलॉजिस्ट्स ने बताया कि वह एक जानवर के फेफड़े का टुकड़ा था। यह कोई इकलौता केस नहीं था। स्कॉटलैंड (स्कॉटलैंड) की एक और मीडियम थी, हेलेन डंकन। वह भी ऐसे करतब करती थी लेकिन जांच के बाद पता चला वह एक कपड़े को निगलकर वापस निकालने में माहिर थी और उसे वह एक्टोप्लाज़्म बताकर लोगों को दिखाती थी। भारत में भी आत्मा बुलाने के ऐसे कई दावे हैं लेकिन फ़िलहाल पैटर्न आप समझ सकते हैं और यूं भी इस मामले में आस्थाएं नाज़ुक होती हैं तो चलते हैं उस जगह जहां भरोसे से ज़्यादा कठोर तर्क और सबूत चलते हैं।  

अदालत, वकील और एक भूतिया गवाह

 

कहानी है 1925 की। अमेरिका के नॉर्थ कैरोलाइना राज्य का एक छोटा सा कस्बा, मॉक्सविल। यहां एक किसान रहता था। जेम्स पिंकनी चैफिन। एकदम सीधा-सादा आदमी। अपनी मेहनत से खाने-कमाने वाला। उसे सपनों और भूत-प्रेत की कहानियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

 
1921 में जेम्स के पिता की मौत हो गई और उन्होंने अपनी वसीयत में सारी ज़मीन अपने चार में से सिर्फ़ एक बेटे, मार्शल के नाम कर दी। बाकी तीन बेटों को कुछ नहीं मिला। यह नाइंसाफ़ी थी पर तीनों भाई चुप रहे। उन्होंने कानून का दरवाज़ा नहीं खटखटाया।
  
चार साल बीत गए। एक सुबह, जेम्स पिंकनी ने अपनी पत्नी को बताया कि उसके मरे हुए पिता उसके सपने में आए। सपने में पिता ने अपना पुराना काला ओवरकोट पहना हुआ था और उसकी जेब की तरफ़ इशारा कर रहे थे। पिता ने सपने में कहा, 'मेरी वसीयत मेरे ओवरकोट की जेब में देखो।' जेम्स अपने बड़े भाई के घर गया, जहां अटारी में वह पुराना ओवरकोट रखा था। उसने ओवरकोट की अंदर वाली जेब टटोली। वह सिली हुई थी। जेम्स ने सिलाई काटी। अंदर वसीयत नहीं थी। एक कागज़ की छोटी सी पुड़िया थी। उस पर लिखा था, 'मेरे पिता की पुरानी बाइबिल में जेनेसिस (जेनेसिस) का 27वां चैप्टर पढ़ो।'

 

क्या था इस चैप्टर में? 

 

बाइबिल का 27वां चैप्टर दो भाइयों की कहानी है। जिसमें एक भाई धोखे से दूसरे भाई का हक़ छीन लेता है। जेम्स अपने पड़ोसियों को गवाह बनाकर अपनी मां के घर गया। पुरानी बाइबिल निकाली गई और जब जेनेसिस का 27वां चैप्टर खोला गया तो उसके पन्नों के बीच एक और कागज़ मिला। यह एक दूसरी वसीयत थी। 1919 की। जिसमें लिखा था कि ज़मीन चारों बेटों में बराबर बांटी जाएगी। मामला अदालत पहुंचा। पेशी के दौरान, मार्शल की विधवा पत्नी सूज़ी समेत दस गवाहों ने माना कि नई वसीयत पर हैंडराइटिंग सच में जेम्स के पिता की ही थी। जूरी को सोचने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। फैसला जेम्स पिंकनी के हक़ में सुनाया गया। एक भूत की गवाही ने केस पलट दिया।
  
तो क्या यह वाकई एक भूत का कमाल था? या कहानी में कोई और झोल था? सालों बाद इस केस की फिर से पड़ताल हुई। दोनों वसीयतों को जांच के लिए हैंडराइटिंग एक्सपर्टी को दिया गया। एक्सपर्ट ने पाया पुरानी वसीयत (1905) पर पिता के दस्तखत कांपते हुए और अनाड़ी तरीके से किए गए थे लेकिन भूत वाली नई वसीयत (1919) पर दस्तखत ज़्यादा साफ़, सधे हुए और बेहतर थे जबकि उम्र के साथ हैंडराइटिंग बेहतर नहीं होती, खराब होती है। मतलब- जो नई वसीयत भूत ने 'बताई' थी, वह शायद नकली थी। किसी और ने लिखी थी। 

मरने के बाद की सबसे सच्ची कहानी?

 

तो आत्मा न तो शरीर की चीर-फाड़ में मिली, न तराज़ू पर तुली। न पुनर्जन्म के किस्सों में पक्का सबूत मिला, न अदालत में। विज्ञान लगभग हार मानने वाला था लेकिन एक जगह है, जो आज भी रिसर्च का एक्टिव फील्ड है। वह जगह, जहां इंसान मौत के दरवाज़े से लौटकर वापस आता है। इसे कहते हैं - नियर-डेथ एक्सपीरियंस (नियर-डेथ एक्सपीरियंस)। ये उन लोगों के अनुभव हैं, जो कुछ देर के लिए क्लिनिकली डेड हो गए थे। अक्सर हार्ट अटैक या किसी एक्सीडेंट के बाद और जब वे वापस आए, तो उन्होंने बताया कि वे बेहोश नहीं थे बल्कि उन्होंने सब कुछ देखा। 
 
कई लोग ऐसी बातें बताते हैं। जैसे, वे अपने शरीर से बाहर निकलकर हवा में तैर रहे थे और नीचे डॉक्टरों को अपने ही शरीर पर काम करते देख रहे थे। कुछ ने बताया कि वह एक अंधेरी सुरंग से गुज़रे। जिसके आखिर में बहुत तेज़ रोशनी थी। कुछ ने अपने मरे हुए रिश्तेदारों से मिलने का भी दावा किया। यह सब सुनने में फिल्मी लगता है। शायद दिमाग़ का धोखा हो। ऑक्सीजन की कमी से या दवाओं के असर से होने वाला कोई हैलुसिनेशन। यही सोचकर, दुनिया के कुछ बड़े डॉक्टरों ने इसकी वैज्ञानिक पड़ताल शुरू की। इनमें से एक थे डॉक्टर ब्रूस ग्रेसन (ब्रूस ग्रेसन), यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जीनिया के प्रोफेसर और दूसरे थे डॉक्टर पिम वैन लोमेल (पिम वैन लोमेल), नीदरलैंड्स के एक जाने-माने कार्डियोलॉजिस्ट। 
 
उनकी रिसर्च में एक बात निकलकर सामने आई। जब किसी का दिल रुकता है, तो कुछ ही सेकंड में दिमाग़ काम करना बंद कर देता है। मेडिकली, दिमाग़ पूरी तरह से ऑफलाइन हो जाता है लेकिन कई केसों में लोगों ने ऐसी चीज़ें देखने का दावा किया, जो उनके लिए जानना नामुमकिन था। कई मामलों में जिन मरीज़ों को नियर डेथ एक्सपीरियंस हुआ था, वे बेहोशी के दौरान की घटनाओं को एकदम सही-सही बयान कर सकते थे। बिना किसी गलती के। जबकि जिन मरीज़ों को नियर डेथ एक्सपीरियंस नहीं हुआ, वे आम बेहोशी से जागे और उनसे जब अंदाज़ा लगाने को कहा गया, तो उन्होंने गलतियां कीं।
  
1970 के दशक का अमेरिका का एक चर्चित केस है। एक सोशल वर्कर थीं, किम्बर्ली क्लार्क। उनकी मुलाक़ात मारिया नाम की एक मरीज़ से हुई। मारिया को हार्ट अटैक आया था। उसने अपने नियर डेथ एक्सपीरियंस में देखा कि वह अस्पताल की बिल्डिंग से बाहर निकल गई और उसने तीसरी मंज़िल की एक खिड़की के छज्जे पर एक टेनिस शू पड़ा देखा। किम्बर्ली को यकीन नहीं हुआ पर फिर भी वह उस खिड़की तक गईं और छज्जे पर सच में वह जूता पड़ा था। ठीक वैसा ही, जैसा मारिया ने बताया था।
  
और याद है वह औरत, जिसकी कहानी से हमने यह एपिसोड शुरू किया था? उसका नाम था पैम रेनॉल्ड्स। ऑपरेशन के दौरान उसका दिमाग़ पूरी तरह बंद था। आँखें बंद। कान बंद फिर भी उसने बोन्सॉ को एकदम सही डिस्क्राइब किया। उसने कहा वह 'इलेक्ट्रिक टूथब्रश' जैसी दिखती थी और उसका बॉक्स सॉकेट रिंच के केस जैसा था।
  
ये बातें एकदम सच थीं।
  
तो क्या यह है आत्मा का सबसे बड़ा सबूत? वह आखिरी दरवाज़ा, जिसके पार विज्ञान झांक नहीं पा रहा? कह नहीं सकते। पुनर्जन्म के दावों से लेकर अमेरिका की अदालतों में भूत की गवाही तक। भेड़ के फेफड़ों से लेकर 21 ग्राम के वज़न तक और बंद दिमाग़ से देखे गए जूतों तक। विज्ञान ने आत्मा की मौजूदगी का सबूत ढूंढने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कहानियां कई हैं लेकिन हर दिलचस्प किस्से के पीछे एक 'लेकिन' छिपा है। हर सबूत पर एक सवालिया निशान। पक्का जवाब आज भी किसी के पास नहीं है। आखिर में फैसला आपका हैकि आप क्या मानना चाहते हैं। 

Related Topic:#Alif Laila

शेयर करें

संबंधित खबरें

Reporter

और पढ़ें

design

हमारे बारे में

श्रेणियाँ

Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies

CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap