भारत के सबसे पूर्वी छोर पर बसे अरुणाचल प्रदेश में ही सबसे पहले सू्र्योदय होता है। पूरब-पश्चिम में ज्यादा विस्तार लिए यह राज्य पड़ोसी देशों भूटान, तिब्बत चीन और म्यांमार से सटा हुआ है। भारत के राज्य असम और नागालैंड की सीमाएं भी अरुणाचल प्रदेश से लगती हैं। यह प्रदेश भारत का हिस्सा है लेकिन गाहे-बगाहे चीन दावा कर जाता है कि अरुणाचल तो उसका हिस्सा है। कभी वह अरुणाचल के नागरिकों को अपना बताता है तो कभी किसी क्षेत्र को चीनी नाम दे देता है। हाल ही में यह मामला तब चर्चा में आया जब एक भारतीय महिला प्रेमा वांगजम थॉन्गडॉक को चीन के शंघाई एयरपोर्ट पर काफी देर रोका गया क्योंकि उनका जन्मस्थान अरुणाचल प्रदेश है। इस मामले पर फिर से भारत और चीन के बीच जुबानी तीर चले लेकिन नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात। भारत ने अरुणाचल को अपना अभिन्न अंग बताया है और चीन ने फिर से पुराना दावा दोहराया है कि उसने कभी भी अरुणाचल प्रदेश को मान्यता ही नहीं दी।

 

इस विवाद को समझने के लिए अगर आप अरुणाचल का नक्शा देखेंगे तो भूटान और तिब्बत वाले कोने पर तवांग जिला दिखेगा। चीन इसे अपना क्षेत्र बताता रहा है और इसे दक्षिणी तिब्बत कहता है। अरुणाचल में चीन का मुख्य निशाना यही तवांग है। अरुणाचल पर चीन का दावा माओ जेदॉन्ग की 'फाइव फिंगर थ्योरी' का हिस्सा बताया जाता है। माओ का मानना था कि तिब्बत हाथ की पहली उंगली है और बाकी उंगलियां लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और NEFA यानी अरुणाचल प्रदेश हैं। 

 

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भारत के तमाम राज्यों में अरुणाचल प्रदेश ही इकलौता ऐसा राज्य है जिसको कोई पड़ोसी देश स्वीकार करने से ही इनकार कर देता है। भारत ने हर बार अपना रुख स्पष्ट किया है और बीते कुछ सालों में अरुणाचल प्रदेश में अपनी स्थिति भी मजबूत की है। इसके बावजूद अक्सर ऐसा देखा जाता है कि चीन अजीबोगरीब दावे करता है। इन दावों के पीछे चीन की ही एक शरारत है जो उसकी ओर से आज से 111 साल पहले यानी साल 1914 में की गई थी। इसी शरारत के चलते भारत और चीन के बीच 1962 का युद्ध भी हुआ। आइए इस मामले को विस्तार से समझते हैं।

झगड़े की वजह क्या है?

 

अरुणाचल प्रदेश का आधुनिक इतिहास उस वक्त से शुरू होता है जब असम में अंग्रेजों का राज शुरू हुआ और 24 फरवरी 1826 को यांदबू की संधि हुई। यहां जान लीजिए कि अरुणाचल नाम का कोई राज्य 1987 तक अस्तित्व में नहीं था। 1912-13 में भारत में मौजूद ब्रिटिश सरकार ने नॉर्थ ईस्ट के लोगों के साथ एक समझौता हुआ। इसके तहत तय हुआ कि पश्चिम में बालीपाड़ा फ्रंटीयर ट्रैक्ट, पूर्व में सादिया फ्रंटीयर ट्रैक्ट और दक्षिण में अबोर एंड मिशमी हिल्स और तिरप फ्रंटीयर ट्रैक्ट बनाए जाएंगे। यही चारों फ्रंटीयर मिलाकर नॉर्थ ईस्ट फ्रंटीयर एजेंसी यानी NEFA बने। इसी को आज अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है।

 

उस समय NEFA की जो उत्तरी सीमा तय हुई वही आगे चलकर मैकमोहन लाइन कही गई। 890 किलोमीटर लंबी इसी सीमा को लेकर भारत और चीन के बीच विवाद रहा है। यहां एक और अंतर समझ लीजिए। लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल (LAC) भारत और चीन के बीच की पूरी सीमा रेखा है। वहीं, मैकमोहन लाइन तिब्बत और भारत के बीच की रेखा है जिसे चीन कभी स्वीकार नहीं करता है। मैकमोहन लाइन इसी LAC का एक हिस्सा भर है। भारत के मुताबिक, LAC की लंबाई 3488 किलोमीटर लंबी है जिसमें से 890 किलोमीटर की मैकमोहन लाइन है। एक और रोचक बात है कि चीन का मानना है कि उसके और भारत के बीच की सीमा की लंबाई सिर्फ 2 हजार किलोमीटर के ही आसपास है।

 

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कौन थे मैकमोहन?

 

साल 1912-13 में जब शिमला कॉन्फ्रेंस हुई तब सर हेनरी मैकमोहन ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए। तब वह भारत के विदेश विभाग में काम कर रहे थे। उन्हें ही जिम्मेदारी दी गई थी कि अलग-अलग पक्षों से बात करें और तिब्बत से जुड़े सीमाई विवाद का हल निकालें। मैकमोहन ने ही वह प्रस्ताव तैयार किया था कि तिब्बत को भारत से अलग रखने के लिए एक बाउंड्री तय की जाए।

 

 

अंग्रेजों का मानना था कि NEFA और तिब्बत की बीच की यह रेखा दोनों क्षेत्रों को भौगोलिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक आधार पर अलग कर रहती है। कहा जाता है कि शुरुआती तौर पर ब्रिटिश अधिकारियों के साथ-साथ चीन और तिब्बत के प्रतिनिधि भी इस पर सहमत थे लेकिन 2 दिन के बाद चीन की सरकार ने अपने प्रतिनिधियों से ही खुद को अलग कर लिया और इस समझौते पर दस्तखत करने से इनकार कर दिए।

विवाद के जड़, तने और शाखाओं को समझिए

 

दरअसल, 1912 में चीन में क्रांति हुई। किंग राजवंश के खिलाफ विद्रोह हुआ और राजशाही खत्म कर दी गई। यह सब जब हो रहा था तब अंग्रेजों को लगा कि कहीं यह विद्रोह भारत तक ना आ जाए इसलिए कुछ इंतजाम करना होगा। ठीक उसी वक्त तिब्बत ने खुद की आजादी का दावा किया। ल्हासा (जहां दलाई लामा रहते थे) में जो चीनी सैनिक मौजूद थे, उन्हें तिब्बत ने वापस भेज दिया। अगले साल तिब्बत ने खुद को आजाद घोषित कर दिया। 

 

चीन और तिब्बत में मची उथल-पुथल से बचने के लिए भारत की सत्ता पर काबिज अंग्रेजों ने शिमला कॉन्फ्रेंस बुलाई। इस शिमला समझौते को लेकर मशहूर स्कॉलर एलेस्टर लैंब लिखते हैं, 'उस वक्त अंग्रेजों को डर था कि सेंट्रल एशिया में अपने विस्तार में जुटा रूस 19वीं शताब्दी के अंत तक तिब्बत पर कब्जा कर लेगा। इस तरह रूस ब्रिटेन की कॉलोनी यानी भारत के बिल्कुल पड़ोस में आ जाएगा।' अब एक रोचक बात समझिए कि तब तिब्बत अलग देश था और चीन का उससे कोई लेना-देना नहीं था। 1907 में ब्रिटेन और रूस के बीच सेंट पीटर्सबर्ग कन्वेंशन हुआ जिसके मुताबिक, दोनों ही देशों को तिब्बत से बाहर रहना था। दोनों ने यह भी तय किया कि अगर कोई परिस्थिति बनती है तो दोनों देश मिलकर एक तीसरे देश (चीन) की मध्यस्थता की मदद लेंगे। यही वजह रही कि शिमला कॉन्फ्रेंस हुई तो इसमें तिब्बत और NEFA (भारत) के अलावा चीन को भी न्योता दिया गया।

 

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चीन को बुलाने की एक वजह यह भी थी कि उस वक्त ब्रिटेन रूस को नाराज नहीं करना चाहता था। चीन ने प्रस्तावों पर सहमति नहीं जताई इसलिए जो बाउंड्री तय हुई वह तिब्बत और भारत की मर्जी से ही हुई। इसके चलते चीन ने यह रिपोर्ट 24 साल के बाद साल 1938 में प्रकाशित की।

चीन ने कई देशों से किए समझौते

 

भारत की सीमाओं को लेकर विवाद यहीं खत्म नहीं होते हैं। नेविल मैक्सवेल अपने किताब 'India's China War' में लिखते हैं कि तब चीन के चोउ एनलाई म्यांमार गए और यू नू से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद दोनों देशों ने कुछ लेन-देन के साथ नए सिरे से सीमा निर्धारण किया। इसी यात्रा में चोउ एनलाई भारत भी आए लेकिन भारत ने दो टूक कह दिया कि मैकमोहन लाइन में किसी भी तरह का बदलाब नहीं हो सकता है। भारत के बाद वह नेपाल गए और नेपाल से भी चीन का समझौता हुआ।  

 

कहा जाता है कि चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा इसलिए ठोकना शुरू किया ताकि वह अक्साई चिन पर अपना दावा बरकरार रख सके। दो बार तो उसने यह पेशकश भी रखी कि अगर भारत अक्साई चिन पर उसके दावे को स्वीकार कर ले तो वह अरुणाचल प्रदेश पर भारत का दावा स्वीकार कर लेगा। हालांकि, भारत ने कभी भी यह ऑफर स्वीकार नहीं किया। इसका नतीजा हुआ कि चीन ने तवांग पर अपना दावा बरकरार रखा।

 

रोचक बात है कि चीन तो तवांग पर दावा करता है लेकिन तिब्बत ऐसा दावा नहीं करता है। दरअसल, चीन का मानना है कि जो कुछ भी तिब्बत का था, वह अब उसका है। इसी तर्क के आधार पर वह तवांग पर दावा करता है। दरअसल, 1914 के शिमला समझौते से पहले तक तवांग और पश्चिमी कामेंग के कुछ हिस्से तिब्बत के प्रशासन के अंतर्गत आते थे। शिमला समझौते के बाद यह क्षेत्र ब्रिटिश राज के अंतर्गत आ गया। इसके बावजूद 1938 तक तिब्बत का प्रशासन ही इस इलाके के लोगों से टैक्स वसूलता रहा। 1938 में ब्रिटिश पुलिस अधिकारी कैप्टन लाइटफुट तवांग गए लेकिन फिर से तवांग पर तिब्बत प्रशासन का ही अधिकार रहा। कुछ विशेषज्ञ इसे भारत की बड़ी गलती मानते हैं। 1947 में भारत को आजादी मिलने के 3 साल बाद तक भारत ने तवांग को अपने कब्जे में नहीं लिया था। 

 

फरवरी 1951 में भारतीय सेना के अधिकारी मेजर आर बॉब खाटिंग की अगुवाई में तिब्बत का कब्जा यहां से हटाया गया। रोचक बात है कि चीन अपने दावों में भी कभी एकरूप नहीं रहा है। कभी वह 36 हजार वर्ग किलोमीटर पर दावा करता है, कभी 90 हजार तो कभी पूरे अरुणाचल पर ही दावा कर देता है। 

 

भारत की आजादी और चीन की शरारत

 

1947 में जब भारत आजाद हुआ तब से चीन ने अलग-अलग तरह के दावे शुरू कर दिए। तब चीन का कहना था कि मैकमोहन लाइन तो कभी स्वीकार ही नहीं की गई। यह कहकर उसने असम राज्य के पूरे ऊपरी हिस्से पर अपना दावा कर दिया। उस वक्त चीन के प्रधानमंत्री रहे जोउ एनलाई ने भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को एक चिट्ठी लिखी और एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के 1929 के एडिशन में छपे एक नक्शे का जिक्र किया। इस नक्शे में विवादित क्षेत्र को चीन का हिस्सा बताया गया था। कुछ चीनी नक्शे ऐसे भी थे जिन्होंने 1935 के पहले NEFA का हिस्सा दिखाया था और उसके बाद तिब्बत का हिस्सा बताने लगे। 

 

1883 में सर्वे ऑफ इंडिया ने माना कि विवादित जनजातीय क्षेत्र पर ब्रिटिश इंडिया का राज था। अगर 1914 से पहले के ब्रिटिश भारत के नक्शों को देखा जाए तो उनमें मैकमोहन लाइन को माना गया था। जिस शिमला समझौते में सीमा निर्धारण पर बात हुई उसमें तिब्बतियों ने तवांग और दक्षिणी हिस्से को भारत का हिस्सा माना लेकिन चीन के प्रतिनिधि इस पर भड़क गए और मीटिंग से ही चले गए। आगे चलकर यानी 1950 में तो चीन ने तिब्बत पर ही कब्जा कर लिया। 

 

यही वजह है कि विवाद बढ़ता गया और 26 अगस्त 1959 को चीनी सैनिकों ने मैकमोहन लाइन पार करके दक्षिण में यानी भारत की ओर मौजूद भारतीय चौकी लॉन्गजू पर कब्जा कर लिया। 1962 में चीन ने इस चौकी को छोड़ दिया लेकिन अक्तूबर 1962 में चीनियों ने फिर से रेखा पार की और इस बार चीन और भारत के बीच युद्ध छिड़ गया। कई जगहों पर भीषण लड़ाई हुई लेकिन आखिर में चीन पीछे हट गया। इसकी बड़ी वजह यह थी कि भौगोलिक स्थिति भारत के पक्ष में थी और चीन के लिए उन जगहों पर कब्जा बरकरार रखना आसान नहीं था।

क्यों हुआ था 1962 का युद्ध?

 

भारत को आजादी मिली 1947 में और 1949 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना हुई। भारत शुरू से ही अपने सभी देशों से अच्छे रिश्ते रखने का पक्षधर था। चीन ने एलान किया कि वह तिब्बत पर कब्जा करेगा। भारत ने इसका विरोध किया। हालांकि, चीन को इससे फर्क नहीं पड़ा और उसने भारत के अक्साई चिन जैसे इलाकों में भी अपनी सेना तैनात करने की शुरुआत कर दी।

 

संबंधों को बेहतर रखने के लिए ही भारत और चीन के बीच 1954 में पंचशील समझौता हुआ। तब भारत ने तिब्बत पर चीन के कब्जे को स्वीकार कर लिया। उसी वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नारा दिया था- 'हिंदी चीनी भाई-भाई'।

जुलाई 1954 में पंडित नेहरू के निर्देश पर भारत के नक्शे में स्पष्ट तौर पर सीमाओं को दर्शाया गया। दूसरी तरफ चीन ने अपने नक्शे में भारत के लगभग 1.20 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को दिखा दिया। सवाल हुआ तो चीन के प्रधानमंत्री चोउ एनलाई का जवाब था कि कोई गलती हुई है।

 

कुछ वक्त और बीता और तिब्बत से जान बचाकर भागे दलाई लामा को 1959 में भारत में शरण दे दी गई। तब चीन के सर्वोच्च नेता माओ जेदॉन्ग को यह बात बहुत बुरी लगी। यहीं से बात बिगड़ने लगी। माओ ने आरोप लगाए कि ल्हासा (दलाई लामा का घर) में जो विद्रोह हो रहा है उसके पीछे भारत का हाथ है। कुछ और छिटपुट घटनाएं हुईं और भारत और चीन आमने-सामने खड़े हो गए।

 

20 अक्तूबर 1962 में चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने लद्दाख के साथ-साथ तब के NEFA पर हमला कर दिया। चीन की सेना कई जगहों से मैकमोहन लाइन को पार करके भारत में घुस आई। युद्ध शुरू होने से पहले भारत को लग रहा था कि युद्ध नहीं होगा। उसने तैयारियों में कोताही बरती और सेना के सिर्फ दो ही डिवीजन तैनात किए। दूसरी तरफ चीन ने 3 रेजीमेंट तैनात कर दी थी। कई दिनों तक हिंसक संघर्ष चला और 21 नवंबर को चीन ने सीजफायर का एलान कर दिया। इसी युद्ध में चीन ने अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया। NEFA के इलाकों से चीन पीछे हट गया और उसने एलान किया कि पश्चिमी क्षेत्रों पर कब्जा करने का उसका रणनीतिक लक्ष्य पूरा हुआ।

कैसे बना अरुणाचल प्रदेश?

 

1947 में भारत को आजादी मिलने के 30 साल बाद अरुणाचल प्रदेश पूर्ण राज्य राज्य बना। शुरुआत में यह क्षेत्र भारत के विदेश मंत्रालय के तहत काम करता था। पहले इस राज्य का कामकाज चीफ कमिश्नर के जिम्मे था। आगे चलकर अरुणाचल प्रदेश को केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया, जिसमें मुख्यमंत्री होते थे। हालांकि, लेफ्टिनेंट गर्वनर के जरिए इसे केंद्र शासित रखा गया था। आखिर में 20 फरवरी 1987 को अरुणाचल प्रदेश एक पूर्ण राज्य बनाया गया और जनजातीय क्षेत्रों को विशेष पहचान दी गई। 

 

मौजूदा वक्त में अरुणाचल प्रदेश पूर्ण राज्य है और कुल 60 विधानसभा सीटें हैं। लोकसभा के लिए 2 और राज्यसभा के लिए 1 सदस्यों का चुनाव भी अरुणाचल प्रदेश से होता है। अब चीन और म्यांमार की सीमा से लगा होने के कारण भारत के लिए यह राज्य रणनीतिक स्तर पर बेहद महत्वपूर्ण है। यही वजह है कि बीते एक दशक में भारत ने मूलभूत ढांचों से लेकर टूरिज्म तक के क्षेत्र में अरुणाचल को विकसित करने के लिए जान झोंक दी है।

अरुणाचल को जानिए

 

अरुणाचल शब्द का संधि विच्छेद करें तो दो शब्द मिलते हैं। अरुण और अचल। अरुण का अर्थ है सूर्य और अचल का अर्थ है जो चले न यानी कि पर्वत। इस तरह अरुणाचल का अर्थ हुआ वह राज्य जहां पहाड़ों के बीच सूर्य दिखता है।अरुणाचल प्रदेश को अगर जनजातियों का प्रदेश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। राज्य की दो तिहाई जनसंख्या अलग-अलग जनजातियों से ही संबंध रखती है। पश्चिमी अरुणाचल में निसी (Nissi), शेरदुकपेन (Sherdukpen), आका, मोन्पा, अपा तानी और हिल मिरी हैं जैसी जनजातियां हैं। मध्य अरुणाचल में रहने वाली आदि जनजाति सबसे बड़ी जनजातियों में गिनी जाती है। 

 

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अरुणाचल प्रदेश में लगभग 26 बड़ी जनजातियों के साथ-साथ 100 से ज्यादा उप जानजातियों के लोग रहते हैं। इन सभी जनजातियों की अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और रहन-सहन का अपना अलग तराकी है। जनजातीय लोगों के अलावा कुछ जनसंख्या ऐसी भी है जिनमें असम, नागालैंड और अन्य भारतीय राज्यों के साथ-साथ बांग्लादेश से आए प्रवासी भी हैं। 

भारत क्या कर रहा है?

 

बीते कुछ सालों में भारत ने अरुणाचल प्रदेश में खुद की स्थिति मजबूत की है। अरुणाचल फ्रंटीयर हाइवे यानी नेशनल हाइवे 913 के जरिए भारत-चीन सीमा पर भारत अपनी पहुंच बढ़ा रहा है। भारत को उम्मीद है कि इस तरह के विकास कार्यों से वह 'दूसरा 1962' होने से रोक सकेगा। यह हाइवे अरुणाचल प्रदेश की अलग-अलग घाटियों को जोड़ेगा जिससे भारत की सेना आसानी से घाटियों को पार कर सकेगी।


तवांग जिले में भूटान की सीमा के पास मागो-थिंगबू से शुरू होने वाला यह हाइवे पूर्व में म्यांमार बॉर्डर पर चांगलांग जिले के विजयनगर तक जाता है। इस तरह यह अरुणाचल के 12 जिलों को जोड़ता है और मैकमोहन लाइन के समानांतर चलता है। इस सड़क के पूरी तरह तैयार होने की डेडलाइन मार्च 2027 रखी गई है।

 

इसके अलावा तवांग को जोड़ने वाली सेला टनल, तवांग-बम ला रोड, रोइंग-हुनली-अनिनी रोड जैसी सड़कों के जरिए भी अरुणाचल प्रदेश को पूरी तरह से कनेक्टेड रखने की कोशिशें लगातार जारी हैं।