मिथिला दरबार का एक किस्सा सुनिए। महाराज का एक पंडित बड़ा प्यारा था लेकिन बाकी दरबारी, खासकर एक हजाम उनसे जलते थे। एक दिन महाराज अपने पिता की समाधि पर गए। वहां एक चिट्ठी मिली। लिखा था, 'बेटा, स्वर्ग में सब ठीक है, बस एक अच्छा पंडित भिजवा दो। तरीका आसान है - श्मशान के टीले पर पुआल का ढेर लगवाओ, उसमें आग लगाओ और अपने प्यारे पंडित को बिठा दो। धुएं के साथ सीधा स्वर्ग पहुंच जाएगा।' महाराज ने दरबार में यह बात बताई। पंडितजी ने सुना और तैयार हो गए। बोले, 'बस तीन महीने दे दीजिए, परिवार का इंतज़ाम कर लूं।'
तीन महीने बीते। पंडित जी पुआल पर बैठे। आग लगी। खेल खत्म। हज्जाम और दरबारी खुश कि पंडित जी से छुट्टी मिली लेकिन तीन महीने बाद, पंडित जी अचानक दरबार में ज़िंदा हाज़िर! बोले, 'महाराज, आपके पिता स्वर्ग में बहुत खुश हैं! मेरा काम पूरा हो गया तो उन्होंने मुझे वापस भेज दिया और यह पत्र आपके लिए दिया है।'
महाराज ने पत्र पढ़ा। लिखा था, 'पुत्र, पंडित जी ने पूजा-पाठ अच्छे से सिखा दिया, अब उनकी ज़रूरत नहीं लेकिन स्वर्ग में एक दिक्कत है, यहां कोई हज्जाम नहीं है! मेरी दाढ़ी-बाल बढ़ गए हैं। अब अपने हज्जाम को मेरे पास भेज दो।' खत सुनकर हज्जाम और दरबारियों के होश उड़ गए। हज्जाम कांपता हुआ महाराज के पैरों में गिर पड़ा, 'महाराज! मुझे माफ़ कर दीजिये! वह पहली चिट्ठी मैंने ही लिखी थी! पंडित जी को मरवाने की साज़िश थी। मुझे बचा लीजिए!' महाराज को सच्चाई पता चली। पंडित जी से माफी मांगी लेकिन सवाल था- पंडित जी बचे कैसे? पंडित जी ने बताया, 'जो तीन महीने मांगे थे, उसमें टीले के नीचे एक सुरंग खुदवा ली थी। आग लगते ही सुरंग से निकल भागा।'
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अभी जो आपने कहानी सुनी, वह लोककथा है। भारतीय इतिहास में जब जब राजाओं की बात होती है। अक्सर दरबारों में कुछ ऐसे लोग होते थे, जो अपनी हाज़िर जवाबी और चतुराई से न सिर्फ़ राजा का मनोरंजन करते थे, बल्कि मुश्किल हालात में रास्ता भी दिखाते थे। अकबर के बीरबल हों या विजयनगर के तेनालीराम, इनके किस्से आज भी लोकप्रिय हैं। हालांकि, इन्हीं विदूषकों में कुछ नाम हैं, जिससे लोग कम वाकिफ हैं। ऊपर हमें जिन पंडितजी की कहानी हमें सुनाई थी। मिथिला में उन्हें गोनू झा के नाम से जाना जाता है। कौन थे गोनू झा?
आज इसी की कहानी पढ़िए।
गोनू झा की कहानी
यह बात है करीब 800 साल पुरानी, लगभग 1200 ईस्वी के आसपास की। जगह थी मिथिला, यानी आज के बिहार का उत्तरी हिस्सा और नेपाल का कुछ भाग। तब यहां कर्णाट वंश का राज था। यही इलाका बाद में दरभंगा राज के लिए जाना गया, जिसकी कहानी हमने अलिफ़ लैला के एक एपिसोड में सुनाई है। दरभंगा जिले के सिंहवाड़ा ब्लॉक के पास एक गांव है - भरौड़ा, जिसे कुछ लोग भरवाड़ा भी कहते हैं। माना जाता है कि इसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। जिन्हें आगे चलकर गोनू झा के नाम से जाना गया। गोनू झा के सैकड़े किस्से आपको इंटरनेट पर मिल जाएंगे। जो अक्सर लोककथाओं के स्वरूप में होते हैं। सवाल यह है कि क्या गोनू झा के होने का कोई सबूत है?
हां, साल 1975 में 'जर्नल ऑफ द गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ' में प्रकाशित एक लेख के अनुसार गोनू झा का पूरा नाम गणेश झा था। प्यार से लोग उन्हें 'गोनू' बुलाने लगे और यही नाम मशहूर हो गया। सबसे बड़ा सबूत हैं मिथिला के पंजी-ग्रंथ। ये सदियों पुरानी वंशावलियां हैं, जिनमें मिथिला के ब्राह्मण परिवारों का हिसाब रखा जाता था। इनमें उनका नाम 'गोनू' ही मिलता है। परमेश्वर झा ने अपनी किताब 'मिथिला तत्व विमर्श' में पंजी-ग्रंथों के आधार पर उनकी वंशावली दी है: सोनकरियाम कर्महासं बीजी वंशधरः ए सुता महामहो० हरिब्रह्म महो० हरिकेश महोधूर्तराज गोनूकाः संकराढ़ी सं० चन्देयी दौहित्राः।"
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उनके पिता का नाम वंशधर था और वह तीन भाई थे - हरिब्रह्म, हरिकेश और गोनू। गोनू के नाम के साथ 'महोधूर्तराज' जुड़ा है, यानी महा-चतुर या धूर्तों का राजा! शायद उनकी चतुराई की वजह से ही यह लिखा गया होगा। इन्हीं पंजी-ग्रंथों से उनके समय का पता चलता है। जब 13वीं सदी के आखिर में पंजी व्यवस्था ठीक की जा रही थी, तब गोनू झा के भाई के परपोते ज़िंदा थे। पीढ़ियों का हिसाब लगाकर देखें तो गोनू झा लगभग 1200 ईस्वी के आसपास हुए। यानी मिथिला पर राजा नरसिंह देव और रामसिंह देव का शासन था। इसका मतलब यह भी है कि गोनू झा मैथिली के महान कवि विद्यापति से भी करीब 200 साल पहले थे!
गोनू झा का परिवार भी कोई ऐसा-वैसा नहीं था। परमेश्वर झा की किताब के अनुसार उनके दो बड़े भाई, हरिब्रह्म और हरिकेश, 'महामहोपाध्याय' थे! यह उस ज़माने की बहुत बड़ी उपाधि थी, आज की डॉक्टरेट से भी ऊंची समझ लीजिए। ऐसे में सबसे छोटे भाई पर अपनी पहचान बनाने का दबाव तो रहा ही होगा। कुछ लोग मानते हैं कि गोनू झा पढ़े-लिखे नहीं थे, बस बहुत चतुर थे लेकिन मिथिला के विद्वान त्रिलोकनाथ झा अपनी किताब 'ग्लोरी दैट वाज मिथिला' (1998) में दावा करते हैं कि गोनू झा खुद भी 'महामहोपाध्याय' थे! अगर यह सच है तो इसका मतलब है कि गोनू झा सिर्फ व्यावहारिक बुद्धि में ही नहीं, बल्कि शास्त्रों के ज्ञान में भी माहिर थे। यह बात उन्हें और भी असाधारण बना देती है। शायद उन्होंने अपनी विद्वत्ता को अपनी चतुराई और हाजिर जवाबी के पीछे छिपा लिया हो?
गोनू झा मशहूर क्यों हुए?
कुछ उसी तरह, जैसे बीरबल और तेनालीराम। गोनू झा की वाक्पटुता, हाजिरजवाबी के चलते वे मिथिला दरबार का हिस्सा बने और यहां से शुरू हुआ किस्सों का एक लंबा सिलसिला। मसलन मिथिला में एक कहावत है, ‘गोनू झा मरे, सर को पड़े।’ किस्सा यूं है कि एक रोज़ गोनू झा ने अपने परिवार वालों के आगे मरने का नाटक किया। पूरा गांव जमा हो गया। किसी ने कहा गौदान कराओ, किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ। कुछ देर तो परिवार वाले रोते रहे लेकिन फिर लाश को घर से बाहर ले जाने की बात उठने लगी। गोनू झा लंबी कदकाठी के थे। दरवाजे से बाहर ले जाना मुश्किल था। बढ़ई बुलाया गया। दरवाजा काटने के लिए। तभी गोनू झा के बेटे ने कहा, 'बाबूजी ने बड़े प्यार से दरवाजा बनाया था। काटना नहीं चाहिए।' सवाल उठा कि फिर क्या किया जाए। बेटे ने सलाह दी। गोनू झा का ही पैर काट दो।
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बढ़ई आरी लेकर जैसे ही आगे बढ़ा। गोनू झा उठकर खड़े हो गए। बोले, 'ये मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए कर रहा था। ये सुनते ही परिवार वालों का मुंह लटक गया।'
गोनू झा को मिथिला में ऐसी कहानियों के लिए जाना जाता है। हालांकि वह सिर्फ मज़ाकिया या चतुर ही नहीं थे। कवि और दार्शनिक भी थे। उन्होंने संस्कृत में कविताएं भी लिखीं। उनका एक श्लोक मिलता है:
"नास्ये हास्यलवः सुधामधुरिमा दोलायितोवर्त्तते वक्षोनोच्छ्वसितंगतागत परिश्रान्ताः सुमेरोः प्रयः । को वा वेद बहिर्भविष्यति कदाऽपाङ्गादनङ्गांशु विश्वन्तु स्मृति जन्मनाजितमिति व्यक्तः पुरो डिण्डिमः ॥"
इस श्लोक का मोटा-मोटा मतलब है: न चेहरे पर हंसी की झलक है, न मीठी बातों में वह पहले जैसी बात रही, न सीना उत्साह से फूलता है (जैसे सुमेरु पर्वत थका हुआ हो)। कौन जाने कब क्या हो जाए, कब मौत का बुलावा आ जाए। ये दुनिया तो बस यादों और इच्छाओं से जी रही है, यही सच्चाई है, यही ढिंढोरा पीटा जा रहा है।
इस श्लोक से गोनू झा के दार्शनिक विचारों का पता चलता है। दर्शन की बातें अक्सर लोक नीति में ट्रांसलेट होते समय कहावतों में बदल जाती हैं। गोनू झा से जुड़ी एक कहावत और कहानी हमने पहले बताई थी। ऐसी ही ढेरों कहानियां और उनसे जुड़ी कहावते हैं। मसलन गोनू झा की परी, गोनू झा की बखारी, गोनू झा का रजिस्टर, गोनू झा का ससुराल, गोनू झा की दावत, गोनू झा की गुलेल, गोनू झा की लाठी, गोनू झा का कंबल आदि आदि।
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आज भी मिथिलांचल में जब कोई बहुत चतुर या हाजिरजवाब होता है, तो लोग कह देते हैं, "बड़ा गोनू झा बन रहा है!" मुश्किलों का हल निकालने की कला, जिसे 'प्रेजेंस ऑफ़ माइंड' या 'प्रत्युत्पन्नमति' कहते हैं - गोनू झा इसमें माहिर थे। गोनू झा की इस काबिलियत को दर्शाने वाला सबसे मशहूर किस्सा है गोनू झा की बिल्ली का।
- एक बार राजा ने दरबारियों की अकलमंदी परखने के लिए सबको एक-एक भैंस और एक-एक बिल्ली दी। शर्त थी कि साल भर बाद जिसकी बिल्ली सबसे मोटी होगी, उसे इनाम मिलेगा। साल भर बाद राजा ने बिल्लियों को बुलाया। सबकी बिल्लियां मोटी-ताज़ी। गोनू झा की बिल्ली दुबली-पतली! राजा ने पूछा, 'गोनू, तुम्हारी बिल्ली इतनी कमज़ोर क्यों है? दूध नहीं पिलाते?' गोनू झा बोले, 'महाराज, मेरी बिल्ली तो दूध पीती ही नहीं!' राजा को यकीन नहीं हुआ। दूध का कटोरा मंगाया गया। कटोरा देखते ही गोनू झा की बिल्ली दुम दबाकर भाग गई! राजा ने कहा, 'इसे भात खिलाओ।' भात की थाली बिल्ली चट कर गई।
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राजा चकराए। गोनू झा से पूछा गया कि उन्होंने ऐसा कैसे किया? तब गोनू झा ने बताया, 'महाराज आपने जो भैंस दी थी। उससे निकला दूध बिल्ली चट कर जाती थी। ऐसे में मैंने एक तरकीब लगाई। मैं रोज़ कटोरे में खौलता गर्म दूध रखकर बिल्ली को बुलाता। बिल्ली जैसे ही मुंह लगाती, जीभ जल जाती और भाग जाती। रोज़ ऐसा ही हुआ। कुछ दिन में बिल्ली दूध का कटोरा देखते ही डरकर भागने लगी।' राजा गोनू झा की चतुराई समझ गए और इतने खुश हुए कि उन्हें राज्य के दान विभाग का अध्यक्ष बना दिया!
क्या बीरबल जैसे थे गोनू झा?
अक्सर लोग गोनू झा की तुलना अकबर के दरबारी बीरबल से करते हैं। दोनों ही अपनी हाजिरजवाबी के लिए मशहूर हैं लेकिन एक फ़र्क है। बीरबल की कहानियां अक्सर दरबारी मनोरंजन तक सीमित रहीं, जबकि गोनू झा की कहानियां मिथिला की लोक संस्कृति, भाषा और कहावतों का हिस्सा बन गईं। वह सिर्फ एक दरबारी नहीं, बल्कि एक लोकनायक बन गए और मिथिला में आज भी उनकी विरासत संजोने का प्रयास जारी है।
हाल ही में, गोनू झा के जन्मस्थान गांव भरौड़ा (सिंहवाड़ा ब्लॉक, दरभंगा) में उनकी एक भव्य मूर्ति लगवाई है। दरभंगा और मिथिलांचल के कई स्कूलों और कॉलेजों में आज भी गोनू झा के किस्सों पर नाटक और कार्यक्रम होते हैं। बिहार सरकार ने हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में योगदान देने वालों के लिए "गोनू झा हास्य और व्यंग्य पुरस्कार" की भी शुरुआत की है। यूट्यूब चैनल, पॉडकास्ट और सोशल मीडिया पर भी गोनू झा की कहानियां नए अंदाज़ में सुनाई जा रही हैं। #GonuJha जैसे हैशटैग के साथ लोग उनसे जुड़ी बातें शेयर करते हैं।
सिर्फ ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखें तो जैसा पहले बताया, गोनू झा के बारे में बहुत कम बातें पता है। पंजी-ग्रंथों में गोनू झा के बेटे का नाम कान्ह और पोते का नाम भीखू भी मिलता है, यानी उनका वंश आगे चला लेकिन अधिकतर डिटेल्स बस किस्से कहानियों तक सीमित है।
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मसलन वाचक परंपरा का ऐसा उदाहरण कहां ही देखने को मिलेगा कि एक व्यक्ति की मृत्यु भी कहानी में पिरोई गई है। गोनू झा की मौत कैसे हुई। इसे लेकर भी एक किस्सा है। कहते हैं गोनू झा मां दुर्गा के बड़े भक्त थे। एक बार उन्होंने देवी से पूछ लिया, "हे माँ! आपके दस हाथ हैं, सबमें हथियार। जब आपको सर्दी-ज़ुकाम होता होगा, तो नाक कैसे पोंछती होंगी?"
मां दुर्गा मुस्कुराईं, "अरे गोनू! तुम तो भगवान को भी नहीं छोड़ते!" फिर आशीर्वाद दिया, "जाओ, तुम अपनी बुद्धि से हमेशा जीतोगे। पर जिस दिन किसी से बहस या चतुराई में हार जाओगे, उसी दिन तुम्हारी मौत हो जाएगी।" और कहते हैं, हुआ भी यही। गोनू झा अपने ही गाँव के खुशीलाल से एक अजीब शर्त में हार गए। हुआ यूं कि गोनू झा और खुशीलाल पास-पास शौच के लिए बैठे। ज़िद लग गई कि कौन बाद तक बैठा रहेगा। इस अजीब मुकाबले में गोनू झा हार मान गए। कहते हैं, यही उनकी पहली और आखिरी हार थी और उसी दिन उनका देहांत हो गया। कहानी कितनी सच है, कौन जाने पर यह बताती है कि गोनू झा जीवन भर अजेय रहे और उनकी हार भी उतनी ही अनोखी थी।