साल 1519, रमज़ान का महीना ख़त्म होने की खुशी में बाबर एक बोटिंग पार्टी से लौट रहे हैं। नशे की हालत में बाबर एक घोड़े पर सवार हैं। पीछे-पीछे एक सेवक चल रहा है। जिसके एक हाथ में लालटेन और दूसरे में शराब की बोतल है। बाबर की आत्मकथा 'बाबरनामा' के अनुसार रमजान के महीने में बाबर रोजे भी रखते थे और बिला नागा नमाज़ भी पढ़ते थे लेकिन इसके साथ शराब और माजून (एक प्रकार का नशा) का सेवन भी करते थे। बाबर के बाद आगे जितने मुग़ल बादशाह हुए, उन्होंने रमज़ान की परंपरा को जारी रखा। शाहजहां के दौर में लाल किले से 25 तोपें दागी जाती थीं। यह ऐलान होता था - चांद दिखाई देने का। इसके बाद ही लोग ईद-उल-फितर या जिसे मीठी ईद भी कहा जाता है- मनाते थे।
मुग़ल काल में ईद कैसे मनाई जाती थी? आज से 300 साल पहले इफ्तार के मेन्यू में क्या क्या होता था? रोजे रखे जाने की शुरुआत कहां से हुई? कहानी जानेंगे अलिफ लैला के इस एपिसोड में।
रमज़ान की शुरुआत
रमज़ान इस्लामी कैलेंडर का नौवां महीना है। इसी महीने में मुसलमान रोज़े रखते हैं- यानी सुबह से शाम तक न कुछ खाते हैं, न पीते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि माना जाता है कि इसी महीने में क़ुरान शरीफ का अवतरण हुआ था। इसी खुशी में रमजान महीने के अंत होने पर ईद मनाई जाती है। दिलचस्प बात यह है कि रोजे रखे जाने की परम्परा इस्लाम से पहले भी मौजूद थी। ढाका विश्वविद्यालय में इस्लामी शिक्षा विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ. शम्सुल आलम, बीबीसी के एक आर्टिकल में बताते हैं, 'मक्का और मदीना में लोग इस्लाम आने से पहले भी कुछ खास दिनों में उपवास रखते थे।'
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इस्लामी मान्यता के अनुसार, आदम, जिन्हें पहला नबी माना जाता है, उनके वक्त में तीन दिनों तक रोजा रखा जाता था। वहीं मूसा के वक्त में आशूरा यानी मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख़ को रोजा रखा जाता था। इस्लामी परंपरा में जिक्र आता है कि 622 ईस्वी में जब पैगम्बर मुहम्मद हिजरत पर मक्का से मदीना गए। उन्होंने पाया कि मदीना के लोग आशूरा की तारीख पर रोजा रखते हैं। उन्होंने लोगों से इसका कारण पूछा तो जवाब मिला, 'इसी दिन अल्लाह ने मूसा को फिरौन के चंगुल से मुक्ति दिलाई थी। इसी वजह से हम रोज़ा रखते हैं।'
रमजान के महीने का एक ऐतिहासिक महत्व यह भी है कि इस्लाम की पहली बड़ी जंग रमजान के महीने में ही लड़ी गई थी। 17 मार्च, 624 ईस्वी को लड़ी गई इस जंग को 'बद्र के युद्ध' के नाम से जाना जाता है। बद्र, मदीना और मक्का के बीच एक जगह का नाम है। यहां पैगंबर मुहम्मद के नेतृत्व में मुसलमानों की छोटी सेना ने मक्का के बड़े कुरैश दल को हराया था। मुसलमानों के पास सिर्फ 313 लोग थे। कुरैश के पास 1,000 से ज्यादा सैनिक थे। इस्लामी परम्परा में इस लड़ाई को 'यौम ए फुरकान' यानी 'सही गलत में फैसले का दिन' भी कहा जाता है। रमजान के महीने में होने के बावजूद, इस लड़ाई को इस्लाम के लिए ज़रूरी माना गया। इस जीत ने इस्लाम की ताकत बढ़ाई। इससे मुसलमानों का मनोबल ऊंचा हुआ और इस्लाम का प्रसार तेज़ी से बढ़ा।
रमज़ान के दिनों में रोजा रखने की परम्परा 624 ईस्वी से ही चली आ रही है। इसी समय से पैगम्बर ने मुसलमानों के लिए रोजा अनिवार्य कर दिया और रोजा, इस्लाम के पांच धार्मिक स्तम्भों में से एक बन गया। इस्लाम के बाकी चार स्तम्भ हैं - अल्लाह में विश्वास, नमाज़, ज़कात और हज। इस तरह अरब देशों में रोजे रखे जाने की शुरुआत हुई। हालांकि, शुरुआत में रोजे रखे जाने के नियम अलग हुआ करते थे।
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डॉ. शम्सुल आलम लिखते हैं कि शुरुआत में 24 घंटे तक भूखा रहना होता था। रात की अज़ान (ईशा) से अगले दिन शाम तक कुछ नहीं खा-पी सकते थे। यह काफी मुश्किल था। कई बार खाना खाने से पहले ही रात की अज़ान हो जाती थी और लोगों को भूखे रहना पड़ता था। इस मुश्किल को देखते हुए नियम बदला गया, अब सुबह की अज़ान से सूरज डूबने तक ही रोज़ा रखा जाता है। डॉ. शम्सुल आलम के अनुसार, शुरुआत में रोजा न रख पाने की स्थिति में कोई शख्स दान देकर इसकी पूर्ति कर सकता था लेकिन बाद में सबके लिए रोज़े अनिवार्य कर दिए गए।
उस ज़माने में रोज़ेदार क्या खाते थे? डॉ. शम्सुल आलम के मुताबिक, 'अरब के लोग सहरी यानी रोजा शुरू होने से पहले सुबह और इफ्तार यानी रोजा तोड़ने के लिए शाम में लगभग एक जैसा ही खाना खाते थे - खजूर, ज़मज़म का पानी, कभी-कभी ऊंट या दुंबा (एक तरह की भेड़) का दूध, और मांस।'
भारत में रमजान और ईद
भारत में अगर हम रमजान और ईद का इतिहास देखें तो मुग़ल काल में शाही तौर तरीकों से ईद का जिर्क मिलता है। बाबरनामा के अनुसार, हिंदुस्तान आने के बाद भी बाबर ने रमजान में रोजे रखना जारी रखा। हालांकि, शराब छोड़ दी थी। इसके अलावा एक और दिलचस्प बात पता चलती है कि अपने जीवन के आखिर 10 वर्षों में बाबर ने कभी-कभी दो साल लगातार एक ही जगह पर ईद नहीं मनाई। मसलन 1526 में बाबर ने आगरा में 1527 में सीकरी में ईद मनाई। यहां से सीधे अकबर के दौर में चलें तो कहा जाता है कि शुरू में अकबर पूरी पाबंदी से नमाज़ पढ़ते थे, खुद अज़ान देते थे, नमाज़ पढ़ाते थे, और मस्जिद में अपने हाथों से झाड़ू तक लगाते थे लेकिन धीरे-धीरे उनकी धार्मिक नीति बदली। इतिहासकार बदायूंनी के अनुसार अकबर ने बाद में नमाज़, रोज़ा और हज पर पाबंदी तक लगा दी थी। हालांकि, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि अकबर ने खुद ये सब छोड़ दिया था पर इन्हें पूरी तरह बंद नहीं किया। कम से कम 1582 तक अकबर के नमाज पढ़ने, रोजे रखने आदि का जिक्र मिलता है।
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अकबरनामा में अबुल फज़ल लिखते हैं कि 1578 में अकबर ने ईद के मौके पर फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद में 5,000 से ज्यादा लोगों को दान दिया था। रमज़ान के मौके पर अकबर अजमेर शरीफ जाकर ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाकर चादर चढ़ाते थे।
किस्सा है कि अकबर लम्बे समय तक जब अकबर के कोई बेटा न हुआ, उन्होंने अजमेर जाकर मन्नत मांगी कि बेटा हो जाए तो पैदल अजमेर आऊंगा। चिश्ती परंपरा के एक सूफी संत ने उन्होंने बताया कि उनके तीन बेटे होंगे। ठीक ऐसा ही हुआ। अकबर के तीन बेटों में से एक थे सलीम यानी जहांगीर।
'तुज़्क-ए-जहांगीरी' से पता चलता है कि अपने शासन के 13वें साल में जहांगीर ने रमज़ान के रोज़े रखे। जहांगीर दान देने के लिए भी जाने जाते थे। एक मौके पर उन्होंने रमजान के दौरान, एक लाख नब्बे बीघा ज़मीन, चावल के बोरों से लदे ग्यारह हज़ार ख़च्चर गरीबों में बांट दिए थे। जहांगीर के समय में रमज़ान में फौजी कैंपों में भी इफ्तार होती थी।
चांद दिखने के बाद 25 तोपों की सलामी
जहांगीर के बाद आए शाहजहां। शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली शिफ्ट की। मुग़ल दरबारी हमीदुद्दीन लाहौरी के अनुसार शाहजहां के दौर में रमजान के दौरान हर रोज़ शाम होने ही लाल किले से तोपें दागी जाती थी। रमजान का महीना ख़त्म होने पर चांद देखने के रस्म थी। चांद दिखाई देते ही 25 तोपों की सलामी दी जाती थी। जिसका मतलब अगले रोज़ ईद मनाई जाएगी। ईद के मौके पर चांदनी चौक से एक भव्य जुलूस निकाला जाता था। बादशाह खुद सोने-चांदी से सजे हाथी पर बैठते थे। बंदूकची, मशालची, घुड़सवार और पैदल सैनिक उनके पीछे चलते थे।
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आसपास के कस्बों और गांवों से बड़ी संख्या में लोग इस नज़ारे की एक झलक पाने के लिए राजधानी आते थे। ईद के दिन जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने की परम्परा भी शाहजहां के वक्त से शुरू हुई थी। तमाम मुग़ल दस्तावेजों के अनुसार शाहजहां के दौर तक रमजान और ईद पूरी भव्यता से मनाए जाते थे लेकिन कमाल की बात मुग़लों के दौर में नवरोज़ सबसे बड़ा त्यौहार हुआ करता था।
नवरोज़ यानी ईरानी नया साल। यह त्यौहार पारसी, बहाई, और शिया मुस्लिम समुदाय द्वारा मनाया जाता है। नवरोज़ मुग़लों का बड़ा त्यौहार कैसे बना? दरअसल मुग़ल बादशाह हुमायूं ने जब शेर शाह सूरी से जंग में शिकस्त खाई, उन्होंने ईरान के शाह तहमस्प से मदद मांगी। शाह तहमस्प ने हुमायूं को मदद दी और हुमायूं हिंदुस्तान के तख़्त पर दोबारा काबिज़ हो गए। इस प्रकरण का एक असर यह हुआ कि मुग़ल दरबार में ईरानियों की संख्या में खूबी इजाफा हुआ। हुमांयू के बाद बाकी बादशाहों ने भी ईरानियों की परम्पराओं का ख्याल रखा। लिहाजा शाहजहां के दौर तक नवरोज़ मुग़ल दिल्ली का सबसे बड़ा उत्सव हुआ करता था।
इस स्थिति में बदलाव आया औरंगज़ेब के बादशाह बनने के बाद। अपने कट्टर धार्मिक रविये के चलते औरंगज़ेब ने नवरोज़ के त्यौहार को बंद करवा दिया। औरंगज़ेब के दौर में ईद-उल-फितर को बड़ा महत्त्व मिला क्योंकि दिलचस्प बात यह थी कि दारा शिकोह और शाह शुजा को हराने के बाद जब औरंगज़ेब तख़्त पर काबिज़ हुए, तब रमजान का महीना चल रहा था। औरंगज़ेब ने अपनी ताजपोशी के जश्न को ईद तक बढ़ाकर दोनों को मिला दिया।
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फ्रांसीसी यात्री बर्नियर के अनुसार, औरंगज़ेब जून की गर्मी में भी रोजे रखते थे। रात में सिर्फ तीन घंटा सोते और रोज़े के बावजूद सरकार के सारे काम करते थे। औरंगज़ेब के बाद मुग़ल सल्तनत के ढलान का दौर शुरू हुआ। हालांकि, राना सफ़वी की किताब, ‘सिटी ऑफ माय हार्ट’ के अनुसार आखिरी मुग़ल दौर में भी रमज़ान और ईद पूरी शान-शौकत से मनाई जाती थी। रमज़ान के आखिरी जुमे (शुक्रवार) को 'अलविदा' कहा जाता था। इस दिन बादशाह जामा मस्जिद में एक शानदार जुलूस के साथ जाते थे। मस्जिद की सीढ़ियों के पास, बादशाह की पालकी रखी जाती थी। पालकी को हवादार कहते थे। हाथी से उतारकर बादशाह हवादार में सवार होते और मस्जिद में प्रवेश करते थे। इसके बाद सभी मृत बादशाहों के नाम खुतबा पढ़वाया जाता था।
राना सफ़वी लिखती हैं, 'रमजान महीने के 29वें दिन खास लोग भेजे जाते थे, चांद देखने के लिए। चांद की खबर मिलते ही ईद का जश्न शुरू हो जाता, लोग बादशाह को मुबारकबाद देने वाते। और बदले में बादशाह के महल से सभी को पनीर और मिस्री बांटी जाती थी।'
सहरी और इफ्तार
रमजान के महीने में परम्परा है कि लोग मिलकर रोजा तोड़ते हैं। इस दौरान इफ्तार पार्टियां दी जाती हैं। मुग़ल दरबार में रमजान और ईद के दौरान एक दिलचस्प ब्योरा मिलता है, इफ्तार और सहरी के मेन्यू का। 'बज़्म-ए-आख़िर' में मुंशी फ़ैज़ुद्दीन देहलवी के अनुसार, रमजान के दिनों में तीन डंके बजाए जाते थे। रात के डेढ़ बजे- पहला डंका बजने के साथ सहरी की तैयारी शुरू होती थी। दूसरे डंके पर दस्तरख्वान बिछता, तीसरे डंके पर बादशाह सहरी खाना शुरू कर देते थे।
मेन्यू क्या होता था?
मुग़ल रसोई में छत्तीस प्रकार की रोटियां, पुलाव, कबाब, मिठाइयां, सालन तैयार होते थे। रोटियों में फुल्के, पराठे, बेसनी रोटी, खमीरी रोटी, नान, शीरमाल, कुल्चा, बाक़र खानी- आदि होता था। वहीं पुलाव भी दसियों प्रकार का बनता था- ख़्नी पुलाव, मोती पुलाव, नूर महली पुलाव, नुक्ती पुलाव, किशमिश पुलाव, नरगिस पुलाव, आदि। मिठाइयों में, फ़िरनी, खीर, बादाम की खीर, कद्दू की खीर, गाजर की खीर, कंगनी की खीर और विभिन्न प्रकार के हलवे बनते थे। वहीं सीख कबाब, शामी कबाब, तीतर के कबाब, बटेर के कबाब, नुक्ती कबाब- इतने प्रकार के कबाब तैयार होते थे।
मुग़ल दरबार में रमज़ान और ईद के तौर तरीकों के बारे में आपने सुना लेकिन हिंदुस्तान में ईद और रमजान की यह शान सिर्फ मुग़ल सल्तनत तक सीमित नहीं थी। मैसूर के शासक टीपू सुलतान के राज्य में भी भरपूर ईद मनाई जाती थी। वहीं कई ऐतिहासिक मौकों पर ईद और रमज़ान की छाप दिखती हैं। 1857 के विद्रोह के दौरान, क्रांतिकारियों ने बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में जामा मस्जिद में ईद मनाई थी। इस अवसर का उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे हिंदू और मुस्लिम सैनिकों के बीच एकता मजबूत करने के लिए किया गया था। ऐसा ही एक जिक्र 1924 में आता है, जब महात्मा गांधी ने अपना 21 दिन का उपवास ईद के दिन तोड़ा था। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए गांधी ने प्रतीक के तौर पर मौलाना शौकत अली से संतरे का जूस स्वीकार किया था।
ईद का चांद
जैसा पहले बताया रमजान के महीने के अंत में ईद मनाई जाती है लेकिन ईद कब मनेगी, यह चांद पर निर्भर करता है। दरअसल, इस्लामी त्यौहार हिज़री कैलेंडर के अनुसार चलते हैं। इस कैलेंडर में भी साल में 12 महीने होते हैं। इस कैलेंडर की शुरुआत 622 ईस्वी से होती है। वह साल जब पैगम्बर मुहम्मद हिजरत पर गए। यानी हिजरी कैलेंडर के हिसाब से वर्तमान में साल 1446 चल रहा है। हिजरी कैलेंडर की शरूआत मुहर्रम के महीने से होती है। रमज़ान नौवां महीना होता है जबकि दसवें महीने को शव्वाल कहते हैं। हिजरी कैलेंडर ग्रेगोरियन कैलेंडर से एक और मायने में अलग होता है कि इसमें 354 दिन होते हैं जबकि ग्रेगोरियन कैलेंडर में 365 दिन होते हैं। इन 11 दिनों के अंतर के चलते ईद हर साल ग्रेगोरियन कैलेंडर की एक ही तारीख को नहीं आती। इसपर भी चूंकि दुनिया के अलग-अलग कोने में अलग-अलग वक्त पर रात होती है। इसलिए दुनिया के मुसलमान एक ही दिन ईद नहीं मनाते।
अक्सर सऊदी अरब में ईद एक दिन पहले मनाई जाती है। केरल में भी कई बार बाकी भारत से अलग ईद मनाई जाती है। इस मामले में अलग अलग मुस्लिम सेक्ट अपने अपने धार्मिक नेताओं की बात मानते हैं। खगोल विज्ञान चांद की इग्जैक्ट टाइमिंग बता सकता है लेकिन अधिकतर लोग चांद दिखने की व्यक्तिगत गवाही का इंतज़ार करते हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो चांद देखने के लिए नेशनल कमिटी बनाई गई है। जिसपर कई बार विवाद होता रहता है। एक किस्सा है। साल 1967 का। सैन्य जनरल अयूब खान और जमात-ए-इस्लामी के बीच झगड़ा हो गया। खान ने वैज्ञानिक तरीके से ईद की तारीख तय की। जमात ने विरोध किया। नतीजा-जमात के प्रमुख को दो साल जेल में दाल दिया। आज भी पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में केंद्र सरकार द्वारा तय तारीख पर बवाल होता रहता है। यूं चांद कब निकलेगा, खगोल विज्ञान से इसकी ठीक ठीक गणना की जा सकती है लेकिन चूंकि मामला धर्म और परम्परा का है। इसलिए अधिकतर लोग चांद दिखने की व्यग्तिगत गवाही का इंतज़ार करते हैं। बहरहाल ईद की बधाइयां देते हुए हम आज का एपिसोड यहीं ख़त्म करते हैं।