मुहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान की स्थापना का श्रेय जाता है। कायदे आज़म कहा जाता है। 1930 के दशक में जिन्ना मुसलामानों के सबसे बड़े रहनुमा बनकर उभरे लेकिन एक दिलचस्प सवाल यहां उठता है। जिन्ना तो शराब पीने वाले, पोर्क खाने वाले थे। फिर मुसलमानों ने उन्हें अपना लीडर क्यों स्वीकार कर लिया? 19वीं सदी के आख़िरी दशक की बात है। प्रिवी काउंसिल जो ब्रिटिश कॉलोनीज के लिए एक किस्म की सर्वहच्च अदालत थी। उसके सामने एक केस आया। अब्दुल फता मोहम्मद बनाम रुसोमई धर मुल्ला। केस में जो फैसला आया, उसका मतलब निकला कि कोई मुसलमान अपनी पूरी संपत्ति को वक्फ नहीं बना सकता। यहां फैमिली वक्फ की बात हो रही थी। वक्फ असल में दो प्रकार का हो सकता है। एक पब्लिक वक्फ दूसरा प्राइवेट। दोनों के अंतर पर आगे डिटेल में बात करेंगे लेकिन फिलहाल किस्सा आगे बढ़ाते हैं। तो हुआ यूं कि फैसला आते ही हंगामा हुआ और मुस्लिम नेता इस फैसले के खिलाफ अपील में लग गए।
 
अल-मामून सुहरावर्दी नाम के एक आलिम इस्तांबुल (तुर्की) गए। वहां से ऑटोमोन्स की एक पुरानी किताब लेकर आए, यह साबित करने के लिए कि निजी धन यानी कैश भी वक्फ का हिस्सा हो सकता है।  इस्लामी कानून में यह जायज है। यह साबित करने के लिए सुहरावर्दी साहब मिस्र भी गए। वहां मुफ़्तियों से फ़तवे लिखवाकर लाए। यह पूरी कवायद प्राइवेट वक़्फ़ को बचाने की थी। हालांकि, अंग्रेज़ सरकार टस से मस नहीं हुई। अंत में कहानी में एंट्री हुई एक वकील की।

 

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1906, में दिए एक भाषण में मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेज़ी कानून के खिलाफ बोलते हुए कहा, 'अगर एक आदमी अपने बच्चों के नाम पर वक्फ नहीं बना सकता तो इसका मतलब है कि वह अपने परिवार और बच्चों के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। इससे मुसलमान परिवार टूट जाएंगे।' वक्फ के समर्थन में जिन्ना की कवायद नतीजा लाई। इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में जिन्ना ने एक "प्राइवेट मेंबर्स बिल" पेश किया। तीन साल तक संघर्ष के बाद जिन्ना ये बिल पास कराने में सफल रहे। मुस्लिम वक्फ वैलिडेटिंग बिल 1913 के तहत प्राइवेट वक़्फ़ को कानूनी सहमति मिल गई। 

संसद में क्या चर्चा हुई?

 

इस कानून की सफलता ने जिन्ना को रातों-रात मुसलमानों में लोकप्रिय बना दिया। आगे चलकर वह मुस्लिम लीग के सबसे बड़े लीडर बने। हालांकि, इन्हीं जिन्ना ने जब पाकिस्तान बनाया, कहानी पलट गई। वक़्फ़ - इन दिनों भारत में बहस का मुद्दा है। वक्फ संशोधन बिल 2025 पर बहस के दौरान वक़्फ़ से जुड़े कई मसलों पर बात हुई और जैसा अक्सर होता है। दूसरे देशों से तुलना भी हुई। बीजेपी सांसद संबित पात्रा ने दावा किया कि तुर्की, लीबिया, मिस्र, इराक जैसे देशों में वक़्फ़ का कोई सिस्टम नहीं है। वहीं गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दूबे एक कदम आगे बढ़कर बोले कि किसी मुसलमान देश में वक़्फ़ का सिस्टम नहीं है। इसी बात पर हमने सोचा, क्यों न हमारे नीति निर्माताओं के प्रिय पड़ोसी देश पाकिस्तान पर नज़र डाली जाए।


 
अलिफ लैला की इस किश्त में हम बात करेंगे पाकिस्तान में वक़्फ़ के सिस्टम की। जानेंगे वहां वक़्फ़ से जुड़े मसले क्या हैं और वक्त के साथ इसमें क्या क्या बदलाव आया है?

वक़्फ़ को लेकर पिछले दिनों इतनी बात हुई है कि ज्यादा बड़ा इंट्रोडक्शन दोहराव होगा लेकिन फिर भी शार्ट में वक़्फ़ क्या है, यह जान लेते हैं। वक़्फ़ की सिंपल मीनिंग - धार्मिक दान है। कोई शख्स अपनी संपत्ति (ज़मीन, बिल्डिंग, पैसा) दान कर सकता है। इसके बाद यह संपत्ति अल्लाह की हो जाती है। इस्लाम में वक़्फ़ का सिस्टम धार्मिक और सामाजिक उद्देश्यों के लिए बनाया गया था लेकिन वक्त के साथ वक़्फ़ के दो प्रकार बन गए। पब्लिक वक़्फ़- संपत्ति जिसे पब्लिक इस्तेमाल के लिए दान किया जाता है। मसलन मस्जिद, मदरसे, दरगाह, स्कूल, हॉस्पिटल बने जाते हैं। दूसरा होता है  निजी वक्फ- जिसे किसी परिवार के फायदे के लिए बनाया जाता है।

 

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एक उदाहरण से समझते हैं। ग्रेगरी कॉज़्लोवस्की अपनी किताब, 'मुस्लिम एंडोमेंट एंड सोसायटी इन ब्रिटिश इंडिया' में ब्रिटिश दौर का एक किस्सा बताते हैं। साल 1863 की बात है। कानपुर के मुहम्मद अली को लगा कि उनका अंत समय नजदीक है। इस्लामी क़ानून के अनुसार कोई शख्स अपनी संपत्ति का केवल एक तिहाई हिस्सा वसीयत में अपनी मर्जी के अनुसार दे सकता था। बाकी दो तिहाई हिस्सा शरीयत के हिसाब से बांटा जाता था। जिसमें जिसमें पत्नी, बेटे, बेटियां, माता-पिता और अन्य रिश्तेदारों को निश्चित हिस्सा मिलता था। इसमें भी लड़कियों को लड़कों की आधी संपत्ति मिलती थी। 
 
मुहम्मद अली चाहते थे उनकी बेटी और बहू को ज्यादातर हिस्सा मिले। इसलिए उन्होंने एक तरकीब निकाली।  उनके पास चार गांव की जमींदारी थी। इस संपत्ति के लिए वक़्फ़ बनाकर उन्होंने एक गांव अपनी बहू के नाम कर दिया। जो विधवा हो चुकी थी। कुछ प्रॉपर्टी से एक इमामबाड़ा बनाया और बाकी प्रॉपर्टी का अलग वक़्फ़ बनाकर अपनी इकलौती बेटी बेगम फातिमा के नाम कर दिया। इस तरह वक़्फ़ का इस्तेमाल अपनी जायदाद सुरक्षित करने के लिए किया गया। यह कुछ कुछ उसी तरह है, जैसे आजकल लोग ट्रस्ट बनाकर अपने परिवार वालों को ट्रस्टी बना देते हैं। यह सब टैक्स बचाने और कानूनी पचड़े से बचने के लिए किया जाता है। लगभग यही तरीका वक़्फ़ में भी इस्तेमाल होता था। वक्फ बनाने से संपत्ति परिवार के पास ही रहती थी और जब कोई वारिस न बचता तो इसे संपत्ति धार्मिक  संस्थानों के पास चली जाती। बरसों तक इकठ्ठा हुई ऐसी सम्पत्तियों के बल पर धार्मिक संस्थान काफी ताकतवर बन जाते और फिर उनके पॉलिटिकल पावर में भी इजाफा होता। आजादी का बाद इस फिनोमिना का सबसे बड़ा असर पाकिस्तान में देखने को मिला। 

पाकिस्तान में वक़्फ़ की कहानी

 

1951 में पाकिस्तान में वक़्फ़ सम्पत्तियों को पहली बार सरकार की निगरानी में लाया गया। 1951 में  पंजाब मुस्लिम औक़ाफ़ ऐक्ट बनाकर एक बोर्ड बनाया गया, जो वक्फ पर नज़र रखता था, हालांकि बोर्ड के बाद ज्यादा पावर नहीं थी। सिस्टम में बड़ा चेंज आया, 1958 में। जब जनरल अयूब खान ने सत्ता संभाली। अयूब खान पीरों और सज्जाद नशीनों की ताकत से ज्यादा खुश नहीं थे। यानी उन लोगों से जो दरगाहों और धार्मिक स्थानों का जिम्मा संभाले हुए थे। वक़्फ़ की काफी बड़ी प्रॉपर्टी होने के अलावा पीरों के पास मुरीदों की बड़ी फॉलोविंग हुआ करती थी। अंग्रेज़ अफसर मेजर ऑब्रे ओ'ब्रायन के अनुसार पंजाब और सिंध के गांव में ये लोग "मिनी किंग" जैसे थे और चुनाव में वहटिंग भी इन्हीं  के कहे पर होती थी।

 

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अयूब इन पर नकेल कसना चाहते थे। इस मामले में अयूब पर अल्लामा इकबाल का असर था। इकबाल के बेटे,  जावेद इकबाल ने अपनी किताब 'आइडियोलॉजी ऑफ पाकिस्तान' में दरगाहों को बंद करने और पीरों की ताकत कम करने की सलाह दी थी। लिहाजा अयूब ने 1959 में 'वेस्ट पाकिस्तान वक्फ प्रॉपर्टीज ऑर्डिनेंस' नाम का एक कानून जारी किया। सीधे शब्दों में सरकार ने दरगाहों और वक्फ संपत्तियों पर कब्ज़ा कर लिया। पीरों और सज्जाद-नशीनों की पावर छीन ली गई। इसके बाद वक़्फ़ संपत्ति की देख-रेख दो सरकारी विभागों के पास चली गई। 

 

पहला औक़ाफ़ विभाग - भारत में जैसे वक़्फ़ बोर्ड है। वैसी ही पाकिस्तान में औकाफ विभाग होता है। पंजाब, सिंध,नार्थ वेस्टर्न फ्रंटियर प्रोविंस (खैबर पख्तूनख्वा) और बलूचिस्तान - तमाम सूबों के लिए के अलग अलग औकाफ विभाग के अलावा वक़्फ़ की संपत्ति एक और संस्था देखती है। इवैक्यू ट्रस्ट प्रापर्टी बोर्ड (ETPB)- इसका गठन खासकर उस प्रॉपर्टी की देखरेख के लिए किया गया- जो बंटवारे के वक़्त हिन्दू और सिख लोग छोड़ गए थे। हालांकि, इसके दायरे में कई वक्फ संपत्तियां भी आती हैं। 

कितनी संपत्ति है?
  
ETPB के पास 1 लाख 9 हज़ार एकड़ से ज़्यादा ज़मीन है। क़रीब 15,619 दुकानें, घर, दफ़्तर, गोदाम अलग! सुबाई औकाफ विभागों का अलग हिसाब है। पंजाब औक़ाफ़ विभाग के पास लगभग 74,964 एकड़ ज़मीन! साथ में 6,000 से ज़्यादा दुकानें और 1,400 से ज़्यादा घर! सिंध औक़ाफ़ विभाग के पास 10,823 एकड़ ज़मीन, हज़ारों दुकानें, गोदाम और फ्लैट्स हैं। 2024 के आंकड़ों के मुताबिक़, इनसे होने वाली आमदनी 10 करोड़ रुपये से ज़्यादा है।

 

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इनके अलावा बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में भी हजारों एकड़ ज़मीन औक़ाफ़ विभाग के तहत आती है। भारत में वक़्फ़ पर चल रही बहस के बीच कुछ लोग कहते हैं कि वक़्फ़ की प्रॉपर्टी राष्ट्रीय संपत्ति होनी चाहिए। दिलचस्प बात यह कि करने वाले लोग भी वहीं हैं जो सरकारी महकमों की नाकामी की दुहाई देते हुए, प्रावटाइजेशन पर बल देते हैं। बहरहाल चलिए देखते हैं वक़्फ़ प्रॉपर्टी नेशनलाइज करने से पाकिस्तान में क्या हुआ।
 
साल 1994, पाकिस्तान की अदालत में एक केस सामने आया। मलिक असलम परवेज़ बनाम पंजाब। पता चला कि पंजाब औक़ाफ़ विभाग के कर्मचारियों को ही वक़्फ़ की जमीन लीज़ पर दे दी थी।  किस रेट पर,  प्रति माह -1 रुपया प्रति मरला यानी लगभग 272 स्क्वायर फ़ीट के हिसाब से। वह भी 99 साल के लिए जबकि वक्फ प्रॉपर्टीज ऑर्डिनेंस के हिसाब से यह जमीन 3 साल से ज्यादा की लीज़ पर नहीं दी जा सकती थी।
 
ऐसा ही एक केस और था, मोहम्मद हाशिम बनाम पंजाब। इस केस में वक़्फ़ की जमीन स्कूल ग्राउंड बनाने के दी गए थी लेकिन विभाग ने लीज पर दे दी। पेट्रोल पंप चलाने के लिए, रेट वही- 1 रुपया प्रति मरला। ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में रिसर्चर मोहम्मद जुबैर अब्बासी अपने रिसर्च पेपर में ऐसे कई मामले गिनाते हैं। जिनमें वक़्फ़ प्रॉपर्टी औने पौने दामों में दे दी गई। चलिए भ्रष्टाचार अपनी जगह है लेकिन वक़्फ़ की आमदनी से सरकार ने कई बढ़िया काम भी किए होंगे?

 

'वक्फ इन पाकिस्तान: चेंज इन ट्रेडिशनल इंस्टिट्यूशन्स' टाइटल से रिसर्च पेपर में एस. जमाल मलिक बताते हैं, 'वक़्फ़ आमदनी का 59 % हिस्सा प्रशासनिक खर्च में ही निपट जाता है। शिक्षा और धर्म पर 6.7% जबकि, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर 11.7% पैसा खर्च हुआ।' वक़्फ़ की प्रॉपर्टी कई बार धार्मिक मतभेद का निशाना भी बनी है। दरअसल, सुन्नी समुदाय में दो धड़े हैं। बरेलवी और देवबंदी। देवबंदी दरगाहों की मुखालफत करते हैं। इसी के चलते इन्हें निशाना बनाया जाता है। लाहौर का दाता दरबार, कराची में अब्दुल्ला शाह की मजार और पेशावर में रहमान बाबा की मजार कट्टरपंथियों के निशाने का शिकार बन चुकी हैं।    

 

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सवाल यह कि क्या वक़्फ़ का मॉडल पूरी तरह फेल है? नहीं, वक़्फ़ सिस्टम से चलने वाले कई सफल संस्थान भी हैं। साल 1906, दिल्ली में हकीम अब्दुल मजीद ने गरीबों को राहत देने के लिए हमदर्द की स्थापना की। एक छोटी सी आठ वर्ग फुट की दुकान से हुई शुरुआत 1947 आते आते एक बड़ा नाम बन गई थी लेकिन पाकिस्तान के बनने के बाद, मजीद का परिवार पाकिस्तान चला गया। वहां उनके बेटे हकीम मुहम्मद सईद ने नए सिरे से हमदर्द की स्थापना की और 1953 में, उन्होंने हमदर्द लेबोरेटरीज को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया। तब से लेकर आज तक हमदर्द पाकिस्तान में बहुत अच्छा काम कर रहा है। हमदर्द के तीन एंटरप्राइज हैं।     


हमदर्द लेबोरेटरीज - जो यूनानी दवाइयां बनाती है, हमदर्द फाउंडेशन - जो समाज सेवा करती है, मदीनत-अल-हिकमा - जो शिक्षा और संस्कृति का केंद्र है। हमदर्द लेबोरेटरीज का 85% प्रॉफिट फाउंडेशन को जाता है। वहीं, मदीनत-अल-हिकमा  के तहत हमदर्द पब्लिक स्कूल और हमदर्द यूनिवर्सिटी चलती है। इसके अलावा पूरे पाकिस्तान में हमदर्द 500 मेडिकल सेंटर भी चलाता है। इसके अलावा मीजान बैंक का बनाया। इहसान वक्फ भी माइक्रोफाइनेंसिंग का एक सफल मॉडल है। यह ट्रस्ट शिक्षा के लिए ब्याज मुक्त लोन देता है। साथ ही कई अनाथालय भी चलाता है। इहसान ट्रस्ट की बदौलत 20 हजार से ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा हासिल कर चुके हैं।

 

ये तमाम संस्थाएं बताती हैं कि वक़्फ़ का सही प्रबंधन हो तो यह कारगर भी हो सकता है। मोहम्मद जुबैर अब्बासी की रिसर्च के अनुसार, पाकिस्तान में वक़्फ़ के तहत ही कुछ नए मॉडल एक्सपेरिमेंट किए जा रहे हैं। इनमें से एक है कैश वफ्फ।     

कैश वक़्फ़ क्या है? 

 

वक़्फ़ के तहत आम तौर पर अचल सम्पत्तियों को गिना जाता है। मसलन जमीन, इमारतें आदि लेकिन कैश वक़्फ़ में चल सम्पति का इस्तेमाल किया जाता है। मसलन कैश, आभूषण लैपटॉप गाड़ी आदि।  अब्बाीस कैश वक़्फ़ के कई अलग-अलग मॉडल्स के बारे में बताते हैं।   मसलन- वक्फ शेयर्स स्कीम। इस मॉडल में ट्रस्टी वक्फ शेयर जारी करता है। शेयर्स से जमा होने वाली राशि को इन्वेस्ट किया जाता है और इससे होने वाली कमाई जरूरतमंदों के काम आती है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति चैरिटी करना चाहता है। मसलन इस्लाम में जकात देना जरूरी होता है। एक बार चैरिटी दी तो पैसा वहीं ख़त्म। इसके बदले अगर ये पैसे वक़्फ़ शेयर में निवेश किए जाएं तो आपके पैसे लगातार दूसरे के काम आ सकेंगे। आपकी जिंदगी के बाद भी, यह मॉडल सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, मलेशिया, इंडोनेशिया और कुवैत जैसे मुस्लिम देशों में आजमाया जा रहा है। 
 
इसी तरह के और भी कई मॉडल हैं। जो पारंपरिक वक्फ से अलग तरीके से काम करते हैं   मसलन कॉर्पोरेट वक़्फ़ स्कीम है, जिसका एक उदाहरण हमदर्द के रूप में पहले हमें बताया था। यह पाकिस्तान में वक़्फ़ की कहानी थी। ऐसे ही बाकी देशों में भी वक़्फ़ काम करता है। हालांकि, अलग-अलग तरीकों से। कहीं इसे औकाफ के नाम से जाना जाता है। कहीं एंडोमेंट। कहीं यह काफी हद तक सफल है। कहीं असफल। मसलन सऊदी अरब अपनी तरक्की के लिए वक़्फ़ को मजबूत बना रहा है। मुहम्मद बिन सलमान के विजन के तहत सऊदी अरब का लक्ष्य है कि 2030 तक वक़्फ़ के जरिए लगभग 8000 अरब रुपयों का निवेश किया जाए। 

 

ऑल्ट न्यूज़ के फैक्टचेक के मुताबिक़ ये एक भ्रांति है कि ज़्यादातर मुस्लिम देशों में वक़्फ़ नहीं होते। तुर्किए में भी वक़्फ़ होते हैं, जिनका नियंत्रण वहां के संस्कृति एवं पर्यटन मंत्रालय के पास है। जॉर्डनस लिबिया और सीरिया में वक़्फ़ होते हैं और सरकारी विभागों द्वारा उनका प्रबंधन होता है। मिस्र में भी इजिप्शियन एनडाउमेंट्स मिनिस्ट्री जनरल ब्यूरो है, जिसके तहत वहां के वक़्फ़ आते हैं। इराक़ में 2003 तक मिनिस्ट्री ऑफ एनडाउमेंट्स एंड रिलीजियस अफ़ेयर्स होती थी। इसकी जगह अब सुन्नी एनडाउमेंट्स और शिया एनडाउमेंट्स नाम की संस्थाएं हैं।
 
धार्मिक संस्था होने के चलते वक़्फ़ को अलग नज़र से देखा जाता है लेकिन अंत में बात वही है। इंसान के हाथ की बात है। सही के हाथ में आ जाए तो ऑपरेशन का औजार, गलत के हाथ में आ जाए तो क़त्ल का जरिया।