सिर काटकर जमीन में क्यों गाड़ देते थे नागा? जान लीजिए खेती से जुड़ा कनेक्शन
एक समय ऐसा था जब नागालैंड के लोग खेती करने से पहले इंसानों के सिर काट लाते थे और उसे जमीन में गाड़ देते थे। आइए इसके पीछे की कहानी जानते हैं।

नागाओं की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
घने जंगलों के बीच एक गांव है। इतना घना कि सूरज की रोशनी भी ज़मीन तक पहुंचने के लिए संघर्ष करती है। यहां के मर्द अपनी छाती और चेहरे पर स्याही गुदवाते हैं। यह कोई फैशन नहीं है, हर लकीर एक कहानी है, एक सबूत है। इस बात का कि उन्होंने कितनी जानें ली हैं। यहां इज्जत पैसे से नहीं मिलती। ज़मीन-जायदाद से नहीं मिलती। इज्जत मिलती है एक खास चीज़ लाने से। वह चीज़, जिसे पाने के लिए ये मीलों पैदल चलते हैं। दूसरे गांवों पर हमला करते हैं और जब वापस आते हैं, तो पूरा गांव जश्न मनाता है।
वह ट्रॉफी क्या है? वह है-इंसान का कटा हुआ सिर।
एक ज़माना था जब भारत के पूर्वोत्तर में Headhunting यानी सिर काट लेना अपराध नहीं, बल्कि धर्म था। जहां इंसान की जान लेना फसल अच्छी होने की गारंटी मानी जाती थी। अलिफ लैला की इस किस्त में पढ़िए भारत के नागालैंड राज्य के हेडहंटर्स की कहानी।
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भारत का नक्शा देखिए। बिल्कुल पूर्व में म्यांमार (बर्मा) के बॉर्डर पर। वहां पहाड़ ऐसे नहीं हैं जैसे मसूरी या शिमला में होते हैं। वहां की पहाड़ियां ऐसी हैं जैसे आरी के दांत। Saw-toothed ridges, ये नागा हिल्स हैं। सदियों तक, यह इलाका एक ब्लैक होल था। मुगलों की सेनाएं आईं लेकिन इन जंगलों में खो गईं। असम के अहोम राजाओं ने कोशिश की लेकिन इन पहाड़ियों ने उन्हें रोक दिया। यह एक नेचुरल किला था, जिसने नागाओं को बाहरी दुनिया से पूरी तरह काट दिया था। अगर आप किसी पुराने नागा वॉरियर की तस्वीर देखें तो आपको कुछ अजीब दिखेगा। वे हज़ारों फीट की ऊंचाई पर घने पहाड़ों में रहते थे। समंदर वहां से हज़ारों मील दूर था लेकिन उनकी ड्रेस देखिए। उनके बाजूबंद, उनके गले के हार। सब कुछ कौड़ियों और शंख से बना हुए हैं।
पहाड़ के लोग समंदर के गहने क्यों पहन रहे थे?
एंथ्रोपोलॉजिस्ट्स का मानना है कि नागा मूल रूप से पहाड़ी लोग नहीं थे। उनकी जड़ें प्रशांत महासागर के द्वीपों से जुड़ी हो सकती हैं। शायद इंडोनेशिया या मलेशिया के रास्ते। वे हज़ारों साल पहले वहां से चले। भटकते हुए बर्मा के रास्ते ऊपर आए और हिमालय की इन दुर्गम पहाड़ियों में बस गए। वे अपने साथ समंदर की यादें लेकर आए थे। इसलिए, एक नागा वॉरियर के लिए, वे कौड़ियां सिर्फ सजावट नहीं थीं। वह उनकी पुरानी पहचान का सबूत थीं। Naga hills हमेशा बाक़ी दुनिया से कटे रहे। लंबे वक्त तक इस ट्राइबल दुनिया में ना कोई राजा था। न कोई पुलिस थी। कोई लिखित कानून नहीं था। वहां सिर्फ गांव थे और हर गांव अपने आप में एक अलग देश था।
दुनिया में सभ्यताओं का उदय हमेशा नदियों के किनारे हुआ। नील नदी, सिंधु नदी। गंगा नदी। नदियों से पीने का पानी मिलता था, खेती हो सकती थी। इसीलिए बड़े शहर भी नदियों के ही किनारे बसे लेकिन नागा कबीलों ने एक मुश्किल चुनाव किया। उन्होंने नदियों के किनारों की जगह पहाड़ों की चोटियों को अपना घर बनाया क्योंकि ये वॉरियर ट्राइब्स थीं। कोई भी, कहीं से भी हमला कर सकता था। इसीलिए हर गांव अपने आप में एक क़िला था। इलाके की सबसे ऊंची चोटी पर बसने का लॉजिक यह कि दुश्मन फौज को दूर से देखा जा सके। गांव के चारों तरफ लकड़ी की ऊंची दीवारें होती थीं और उन दीवारों के बाहर, ज़मीन में नुकीले बांस गड़े होते थे। जो किसी भी हमलावर के पैर के आर-पार हो सकते थे।
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यह डिफेंस सिस्टम इतना मजबूत था कि सदियों तक कोई बाहरी ताकत इसे भेद नहीं पाई। अंग्रेज़ आए तो उन्होंने नागालैंड को एक एक्सक्लूडेड एरिया बना दिया। क्यों, क्या, कब ये सब आगे जानेंगे लेकिन अभी समझिए कि जब बाकी भारत में रेलवे आ रही थी, स्कूल खुल रहे थे। नागा अपनी उसी पुरानी दुनिया में ही रह गए। उनकी सदियों पुरानी परंपराएं, जो शायद बाहरी दुनिया के संपर्क में आकर खत्म हो जातीं, वे इस लाइन सिस्टम की वजह से ज़िंदा रह गईं और उन्हीं परंपराओं में से एक थी- हेडहंटिंग।
सिर उतार लेना अपराध नहीं!
हम और आप, जो शहरों में रहते हैं, हमारे लिए किसी का सिर काट देना क्राइम है लेकिन नागाओं के लिए यह क्राइम नहीं, खेती करने का एक तरीका था। जैसे आज एक किसान खाद डालता है ताकि फसल अच्छी हो। ठीक वैसे ही, नागालैंड की कोन्याक जनजाति के लिए, इंसान का सिर उस खाद जैसा था। यह सुनने में अजीब लग सकता है। खौफनाक लग सकता है लेकिन इसके पीछे उनकी अपनी फिलॉसफी थी।
इस फिलॉसफी का नाम था-Mio (मियो)। कोन्याक लोग मानते थे कि इंसान की आत्मा दो हिस्सों में बंटी होती है। पहला हिस्सा है Yaha-यानी आपकी पर्सनालिटी, आपका भूत। नागाओं को इससे कोई मतलब नहीं था। उन्हें मतलब था दूसरे हिस्से से। जिसे वह Mio कहते थे। Mio का मतलब है-प्राण शक्ति। वह एनर्जी जिससे जीवन चलता है और नागाओं का मानना था कि यह सारी एनर्जी इंसान की खोपड़ी के अंदर जमा रहती है।
पहाड़ों पर जीवन बहुत मुश्किल था। कभी बारिश नहीं होती थी। कभी फसलें सूख जाती थीं। कभी गांव के बच्चे बीमार पड़ने लगते थे। औरतों को बच्चे पैदा करने में दिक्कत होती थी। जब ऐसा कुछ होता तो गांव के बुजुर्गों की पंचायत बैठती। उनका डायग्नोसिस साफ़ होता था- हमारे गांव की Mio यानी प्राण शक्ति खत्म हो रही है।
इलाज क्या था?
नई एनर्जी लाना और नई एनर्जी कहां मिलेगी? किसी दूसरे इंसान की खोपड़ी में। यह एक तरह की एनर्जी हार्वेस्टिंग यानी ऊर्जा की खेती थी। जब एक योद्धा दूसरे गांव के आदमी का सिर काटकर लाता तो वह सिर्फ एक ट्रॉफी नहीं ला रहा था। वह उस मरे हुए इंसान की सारी लाइफ फोर्स चुराकर अपने गांव ला रहा था ताकि उसके गांव की फसलें लहलहा उठें ताकि उसके गांव के जानवर न मरें। यही वजह है कि सिर काटने को एक पवित्र काम माना जाता था। यह कम्युनिटी सर्विस थी लेकिन इस कहानी में एक और पेच है।
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हम सोचते हैं कि वॉरियर्स का मतलब है-दो मर्दों की लड़ाई। तलवारें खनक रही हैं और जो जीता वही सिकंदर लेकिन नागा हेड हंटिंग के नियम थोड़े अलग थे। वहां सबसे ज्यादा कीमती सिर किसी ताकतवर मर्द का नहीं माना जाता था। सबसे ज्यादा प्रेस्टीज या इज्जत मिलती थी-एक औरत या बच्चे का सिर लाने पर।
सुनने में यह कायरता लग सकती है लेकिन नागाओं का लॉजिक बिल्कुल अलग था। उनका तर्क यह था कि मर्द तो गांव के बाहर, खेतों में या जंगलों में लड़ते हुए मिल जाएंगे। उन्हें मारना आसान है लेकिन औरतें और बच्चे? वे गांव के बिल्कुल बीचों-बीच रहते हैं। सबसे सुरक्षित जगह पर। औरतों और बच्चों तक पहुंचने का मतलब है कि वॉरियर ने दुश्मन के गांव की पूरी सुरक्षा को भेद दिया है। उसने उनके Inner Sanctum में घुसपैठ की है। इसके लिए ज्यादा हिम्मत और ज्यादा चतुराई चाहिए और दूसरा कारण था-वही Mio यानी एनर्जी। नागा मानते थे कि एक औरत या बच्चे के सिर में, एक मर्द के मुकाबले ज्यादा Fertility Power होती है। बच्चे में बढ़ने की क्षमता है, औरत में जन्म देने की क्षमता है इसलिए उनके सिरों में ज्यादा खाद है। ज्यादा एनर्जी है तो जब कोई वॉरियर किसी बच्चे का सिर काटकर लाता, तो उसे क्रूर नहीं माना जाता था। उसे गांव का सबसे बड़ा हीरो माना जाता था क्योंकि वह अपने गांव के लिए सबसे ज्यादा पावर लेकर आया है।
अब सवाल यह है कि उस सिर का होता क्या था? उस कटे हुए सिर के साथ मेहमान जैसा सुलूक किया जाता था। गांव का पुजारी उस कटे हुए सिर के पास आता। उसके मुंह में चावल से बनी बीयर डालता। उसे खाना खिलाता और फिर उससे बातें करता। वह कहता-तुम्हारी मां, तुम्हारे पिता, तुम्हारे भाई-बहन सब यहां आएं। वे भी हमारी बीयर पिएं और हमारा चावल खाएं। ये मेहमाननवाजी नहीं थी। दुश्मन के सिर को खाना-पीना देकर, वे उसके बाकी परिवार को भी ललचाते थे ताकि भविष्य में उसके भाई, उसके रिश्तेदार भी उसी रास्ते पर आएं और उसी भाले का शिकार बनें। यानी एक सिर के जरिए, पूरे खानदान को दावत दी जा रही थी-मरने की।
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यह सिलसिला रुकता नहीं था। गांव में बड़े-बड़े लकड़ी के ड्रम (Log Gongs) होते थे। जाइलोफोन जैसे। ये ड्रम गांव की आवाज़ थे। किसी खतरे की सूचना देनी हो या जीत का जश्न मनाना हो, इन ड्रम्स को बजाया जाता था लेकिन एक नया ड्रम तब तक नहीं बज सकता था, जब तक उसे खून न मिले। जब भी गांव में नया ड्रम बनता, तो उसका उद्घाटन रिबन काटकर नहीं होता था। उसका उद्घाटन होता था एक ताज़ा कटे हुए सिर से। यह एक पूरा ईको-सिस्टम था लेकिन यह सिस्टम हजारों सालों तक ऐसे ही नहीं चला। यह सिस्टम इसलिए चला क्योंकि वे अलग-थलग थे। पहाड़ों ने उन्हें बाहरी दुनिया से बचाकर रखा था। उनकी अपनी दुनिया थी, अपने नियम थे, अपने देवता थे लेकिन फिर हवा का रुख बदला। 1820 का दशक आया। भारत के नक्शे पर एक नई लकीर खींची जा रही थी। अंग्रेज भारत में फैल चुके थे लेकिन उनका ध्यान इन घने, जानलेवा जंगलों पर नहीं था। उन्हें इन पहाड़ियों से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें डर लगता था लेकिन फिर, एक खोज हुई। एक ऐसी खोज जिसने पूरी दुनिया का नक्शा बदल दिया और नागालैंड की किस्मत भी। वह खोज थी-चाय।
चाय की खोज और पूर्वोत्तर की किस्मत
असम के मैदानी इलाकों में अंग्रेजों को जंगली चाय के पौधे मिले। अंग्रेजों के दिमाग में मुनाफ़ा चमकने लगा। उन्होंने जंगल काटने शुरू किए। बड़े-बड़े चाय बागान बनाए। हज़ारों मजदूर काम पर लगाए लेकिन एक दिक्कत थी। ये चाय के बागान, उन पहाड़ियों के ठीक नीचे थे, जहां हेड हंटर्स रहते थे। नागाओं ने नीचे देखा। उन्हें लगा कि कोई उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर रहा है। कोई उनके जंगलों को काट रहा है और फिर शुरू हुआ-छापेमारी का सिलसिला।
नागा वॉरियर्स नीचे आते। चाय के बागानों पर हमला करते और अपने साथ कुछ मज़दूरों या मैनेजरों के सिर काट ले जाते। उनके लिए यह शिकार था। उनके देवताओं के लिए तोहफ़ा था लेकिन अंग्रेजों के लिए? यह बिज़नेस का नुकसान था। अंग्रेजों ने जवाब में एक स्पेशल फ़ोर्स बनाई- कछार लेवी। जिसे बाद में असम राइफल्स कहा गया। इनका काम था- चाय के बागानों को इन खून के प्यासे कबीलों से बचाना। यहीं से शुरू हुआ-सभ्यता और परंपरा का टकराव।
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अंग्रेजों ने अपनी ताकत के दम पर शांति लागू कर दी। उन्होंने एक फरमान जारी किया-आज से हेड हंटिंग बंद। उन्हें लगा कि उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। उन्होंने हत्याएं रोक दी हैं लेकिन नागाओं के लिए यह शांति नहीं थी। यह तो कयामत थी। याद कीजिए, अगर सिर नहीं आएगा, तो Mio नहीं आएगी और अगर Mio नहीं आएगी, तो फसलें कैसे उगेंगी?
जब हेड हंटिंग पर बैन लगा तो नागालैंड के गांवों में एक अजीब सा स्पिरिचुअल क्राइसिस आ गया। बुजुर्ग परेशान थे। उन्हें लगा कि देवता नाराज हो गए हैं तो उन्होंने जुगाड़ निकाला। उन्होंने लकड़ी के सिर बनाने शुरू किए। कभी-कभी जानवरों के सिर, जैसे बंदर या गाय के सिर का इस्तेमाल किया जाने लगा। वे इन लकड़ी के सिरों को गांव में लाते। वही रस्में निभाते। उन्हें बीयर पिलाते लेकिन गांव के बुजुर्ग खुश नहीं थे। वे कहते थे-इन लकड़ी के सिरों में वह बात नहीं है। इनमें वह पावर नहीं है।
संयोग देखिए। जैसे ही अंग्रेजों ने हेड हंटिंग बंद कराई और सड़कें बनवानी शुरू कीं। गांव में महामारियां फैलने लगीं। हैजा, चेचक, और यौन रोग। ये बीमारियां उन सड़कों के रास्ते आईं, जो अंग्रेजों ने बनाई थीं लेकिन नागाओं को लगा-हमने सिर काटना बंद कर दिया, इसलिए हमारे देवता नाराज हो गए हैं।
इस दौरान दोनों संस्कृतियों के बीच जो गलतफहमियां थीं, वे कभी-कभी बहुत ही दिलचस्प और कभी-कभी बहुत ही डरावनी होती थीं। एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा है 1930 के दशक का। एक ब्रिटिश महिला थीं, उर्सुला ग्राहम बॉवर (Ursula Graham Bower)। वह नागालैंड में एंथ्रोपोलॉजिस्ट के तौर पर काम कर रही थीं। उनके साथ हमेशा एक नागा बॉडीगार्ड चलता था, तगड़ा, टैटू वाला। एक बार वे लोग कलकत्ता जा रहे थे। ट्रेन खचाखच भरी हुई थी। पैर रखने की जगह नहीं थी लेकिन उर्सुला को सीट चाहिए थी। उनके नागा बॉडीगार्ड ने दिमाग लगाया। वह ट्रेन के डिब्बे में चढ़ा। वहां बैठे हुए सभ्य, पढ़े-लिखे बंगाली भद्रलोक को घूरा और अपनी टूटी-फूटी भाषा में एक अफवाह फैला दी। उसने कहा-मुझे बहुत भूख लगी है और मैं एक आदमखोर हूं। मुझे इंसान का मांस खाने की तलब लग रही है। इतना सुनना था कि पूरा डिब्बा खाली हो गया। लोग डर के मारे भाग गए और वह नागा बॉडीगार्ड मजे से पूरी सीट पर फैलकर सो गया।
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एक और कहानी है। जब 1950 के दशक में प्रशासन ने वहां कदम रखा तो एक अजीब घटना हुई। एक गांव की स्कूल टीचर थी। सुबोंगलेमला (Subonglemla)। उसे पकड़ा गया, घसीटा गया और फिर एक Political Officer- जो खुद को सभ्य सरकार का नुमाइंदा मानता था। उसने वह किया जो शायद किसी हेडहंटर ने भी न किया हो। उस ऑफिसर ने उस टीचर को ज़िंदा रहते हुए स्कैल्प कर दिया यानी उसके सिर की चमड़ी और बाल उतार लिए और फिर उसका सिर काट दिया। वजह? वजह कोई मिलिट्री रणनीति नहीं थी। उस ऑफिसर ने कहा कि वह उसके लंबे बालों से एक पवित्र धागा बनाएगा। गुड लक के लिए।
विश्व युद्ध और सिर काटने का मौका
नागा कबीलों में चली हेड हंटिंग की प्रथा सिर्फ़ कबीलों तक सीमित नहीं रही। 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ। अंग्रेजों को लगा कि नागा लोग बहुत तगड़े हैं, मेहनती हैं। क्यों न इन्हें युद्ध में इस्तेमाल किया जाए? फ्रांस की खाइयों में लड़ने के लिए 2000 नागाओं को भेजा गया। साल था 1916, लेबर कॉर्प्स का हिस्सा बनाकर उन्हें यूरोप भेजा गया लेकिन वहां एक समस्या खड़ी हो गई। जब नागाओं ने खाइयों में दुश्मन जर्मन सिपाहियों को देखा, तो उनकी आंखों में चमक आ गई। उन्हें लगा कि ये तो हेड हंटिंग का सबसे शानदार मौका है। इतने सारे दुश्मन, इतने सारे सिर। अंग्रेज अफसर घबरा गए। वे नहीं चाहते थे कि उनके सैनिक, दुश्मनों के सिर काटकर अपनी बेल्ट पर लटकाएं। यह वॉर क्राइम की श्रेणी में आता तो वहां एक अजीब समझौता हुआ।
अंग्रेज अफसरों ने नागाओं से कहा-देखो, तुम सिर नहीं काटोगे लेकिन तुम्हें खाली हाथ भी नहीं लौटना पड़ेगा। उस समय जर्मन सैनिक एक खास तरह का हेलमेट पहनते थे। जिसके ऊपर एक नुकीली Spike होती थी। अंग्रेजों ने कहा-तुम सिर मत लाओ। तुम बस वह Spiked Helmet ले आओ। हम उसे ही ट्रॉफी मान लेंगे और इस तरह, फ्रांस के युद्ध के मैदानों में एक अजीब खेल खेला गया। जहां बाकी दुनिया ज़मीन के टुकड़ों के लिए लड़ रही थी, वहां नागा वॉरियर्स हेलमेट जमा कर रहे थे लेकिन क्या वे खुश थे? नहीं।
युद्ध खत्म हुआ। 1918 आया। नागा वापस अपने पहाड़ों में लौटे लेकिन उनके अंदर एक कसक रह गई थी। एक अंग्रेज अफसर, J.H. Hutton ने अपनी डायरी में एक बहुत ही दिलचस्प घटना नोट की है। एक नागा, जो फ्रांस से लौटा था, उसने हटन से पूछा-साहब, क्या कोई और लड़ाई बची है? क्या हम कहीं और जा सकते हैं?
हटन ने पूछा-क्यों?
उस नागा ने जवाब दिया-वहां फ्रांस में हमें मज़ा नहीं आया। मैं एक आदमी को काटना चाहता हूं।
नागाओं को पहले विश्व युद्ध में तो यह मौक़ा नहीं मिल पाया लेकिन दूसरे विश्व युद्ध में चीजें बदली। पहले विश्व युद्ध में नागा दुनिया के पास गए थे लेकिन दूसरे विश्व युद्ध में दुनिया उनके पास आई। साल था 1944, जापानी सेना बर्मा (म्यांमार) के रास्ते भारत में घुसने की कोशिश कर रही थी और उनके रास्ते में खड़ी थी- नागालैंड की पहाड़ियां। यहां कोहिमा में एक ऐसी लड़ाई लड़ी गई, जिसे Battle of the Tennis Court कहते हैं।
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एक तरफ ब्रिटिश सेना। दूसरी तरफ जापानी सेना और बीच में-एक टेनिस कोर्ट। यह टेनिस कोर्ट वहां के डिप्टी कमिश्नर के बंगले का था। हफ्तों तक, दोनों सेनाएं इस टेनिस कोर्ट के आर-पार लड़ती रहीं। इतनी पास कि वे एक-दूसरे को गालियां दे सकते थे। एक तरफ से ग्रेनेड फेंके जा रहे थे, जैसे टेनिस की बॉल फेंकी जाती है लेकिन इस पूरी लड़ाई में नागा क्या कर रहे थे?
नागा लोग कन्फ्यूज़्ड थे। कुछ नागा अंग्रेजों के वफादार थे। वे उनके लिए जासूसी कर रहे थे। घायल सिपाहियों को ढो रहे थे लेकिन कुछ नागाओं ने देखा कि यह मौका है। उन्होंने जापानी सेना का साथ दिया। उन्हें लगा कि अगर जापानी जीत गए तो शायद उन्हें अंग्रेजों से आज़ादी मिल जाएगी। इसमें सबसे प्रमुख नाम था-ए.जेड. फिजो (A.Z. Phizo), जो बाद में नागालैंड की आज़ादी की मांग का सबसे बड़ा चेहरा बने लेकिन ज्यादातर नागाओं के लिए, यह युद्ध भी एक शिकार का मैदान था। भले ही अंग्रेजों ने उन्हें सख्त हिदायत दी थी कि हेड हंटिंग नहीं करनी है लेकिन पुरानी आदतें इतनी आसानी से नहीं जातीं।
ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं कि जब लड़ाई खत्म होती या रात होती तो नागा वॉरियर्स युद्ध के मैदान में जाते। वे जापानी लाशों को लूटते लेकिन सिर्फ हथियार या पैसों के लिए नहीं। कई जापानी सैनिकों के सिर गायब मिले। युद्ध का एक और गहरा असर हुआ। अब तक नागालैंड में अलग-अलग कबीले थे। कोन्याक, आओ, अंगामी। वे आपस में लड़ते थे। एक-दूसरे के दुश्मन थे लेकिन जब उन्होंने अपनी आंखों के सामने दो बड़े साम्राज्यों को लड़ते देखा। जब उन्होंने देखा कि टैंक और हवाई जहाज क्या कर सकते हैं और सबसे बड़ी बात-जब उन्होंने अंग्रेजों को डरते हुए, भागते हुए और खून से लथपथ देखा तो उनका वह भ्रम टूट गया कि गोरा आदमी अजेय है।
आजादी के बाद क्या हुआ?
विश्व युद्ध की आग ने उन अलग-अलग कबीलों को पिघलाकर एक नई पहचान दी। नागा पहचान। उन्हें समझ आ गया कि अगर बचना है, तो एक होना पड़ेगा। यह नागा राष्ट्रवाद की शुरुआत थी। युद्ध खत्म हो गया। अंग्रेज चले गए। भारत आज़ाद हो गया लेकिन नागालैंड के जंगलों में शांति नहीं आई। एक तरफ भारत सरकार थी, जो चाहती थी कि नागालैंड भारत का हिस्सा बने। दूसरी तरफ फिजो जैसे नेता थे, जिन्होंने कहा- 'हम भारतीय नहीं हैं। हमारा इतिहास अलग है। हम आजाद रहेंगे।'
1950 और 60 के दशक में भारतीय सेना वहां पहुंची और जवाब में नागालैंड के युवाओं ने हथियार उठा लिए। कल तक जो मोरुंग (Morung - युवाओं का हॉस्टल) अनुशासन और खेती सिखाता था। अब वह गुरिल्ला वॉरफेयर का ट्रेनिंग सेंटर बन गया। तलवार की जगह AK-47 ने ले ली लेकिन सबसे बड़ा बदलाव तो चेहरे पर आया।
याद है वह टैटू? जो सिर्फ एक हेड हंटर के चेहरे पर होता था? जो उसकी वीरता का सबूत था? आज के दौर में वह टैटू लगभग गायब हो चुका है। सिर्फ कुछ बहुत बूढ़े लोगों के चेहरों पर वह दिखता है। वह एक लुप्त होती दुनिया की आखिरी निशानी है लेकिन कहानी में एक मॉडर्न ट्विस्ट है। आजकल, कुछ नागा युवा फिर से टैटू बनवा रहे हैं लेकिन किसी को मारने के बाद नहीं बल्कि एक प्रोटेस्ट के तौर पर।
एक सीन इमैजिन कीजिए। दिल्ली का एक कैफे। वहां एक नागा लड़का वेटर का काम कर रहा है। लोग उसे चिंकी कहकर बुलाते हैं, उसे चिढ़ाते हैं। उसे बाहरी समझते हैं। वह लड़का, अपनी पहचान वापस पाने के लिए, अपने चेहरे पर वही पुराने हेड हंटर वाले टैटू बनवा लेता है। अब वह किसी का सिर नहीं काट रहा लेकिन वह उस टैटू को एक ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहा है। एक ऐसी दुनिया में, जो उसे अपना नहीं मानती।
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